भारत में यूरिया की मांग बढ़ी, घरेलू उत्पादन पीछे छूटा
शिवांगी सक्सेना
१२ नवम्बर २०२५
किसान अब पहले से ज्यादा यूरिया की मांग कर रहे हैं. लेकिन घरेलू उत्पादन उस गति से नहीं हो रहा. तो क्या भारत यूरिया संकट की तरफ बढ़ रहा है?
भारत में एक ओर यूरिया की मांग बढ़ रही है तो दूसरी ओर यूरिया का घरेलू उत्पादन भी घट रहा हैतस्वीर: Anuwar Hazarika/NurPhoto/picture alliance
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भारत में किसानों की यूरिया पर निर्भरता लगातार बढ़ रही है. यह स्थिति सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है. किसानों की बढ़ती जरूरत के मुकाबले देश में यूरिया का उत्पादन कम हो रहा है. पिछले वित्त वर्ष यानी अप्रैल 2024 से मार्च, 2025 के बीच यूरिया की खपत लगभग 38.8 मिलियन टन रही. यह रिकॉर्ड आंकड़ा है.
जल्द ये रिकॉर्ड भी टूट सकता है. चालू वित्त वर्ष में यूरिया की खपत 40 मिलियन टन से ज्यादा होने की उम्मीद है. इस वित्त वर्ष के पहले छह महीनों में ही यूरिया की बिक्री में 2.1 प्रतिशत का उछाल आया है. रबी के मौसम में यह और बढ़ेगी. गेहूं, चना, आलू, सरसों और मटर जैसी फसलें इसी मौसम में बोई जाती हैं. इन फसलों को अधिक नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, जो यूरिया से मिलता है.
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि यूरिया की खपत पिछले दशकों में लगातार बढ़ी है. वित्त वर्ष 1990‑91 में यह लगभग 14 मिलियन टन थी. वर्ष 2010-11 तक खपत दोगुनी होकर 28.1 मिलियन टन पर पहुंच गई. लेकिन बढ़ती मांग के साथ घरेलू उत्पादन नहीं बढ़ रहा बल्कि कम हो रहा है. घरेलू उत्पादन वर्ष 2023‑24 में 31.4 मिलियन टन था. लेकिन अगले वित्त वर्ष में यह घटकर 30.6 मिलियन टन हो गया. साल 2025 में अप्रैल से सितंबर के बीच यह उत्पादन, पिछले वर्ष इसी अवधि की तुलना में 5.6 प्रतिशत कम हुआ है.
यूरिया की मांग क्यों बढ़ रही है?
वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन और मिट्टी की स्थिति के कारण यूरिया की बिक्री बढ़ रही है. साथ ही यूरिया का गैर-कृषि कार्यों में भी इस्तेमाल बढ़ा है. गोंद, पेंट, प्लास्टिक और फर्नीचर जैसे उद्योगों में यूरिया की जरुरत पड़ती है.
तापमान और बारिश का पैटर्न बदला है. सूखा या अत्यधिक बारिश होने से मिट्टी की पोषक तत्व क्षमता प्रभावित होती है. इस वर्ष जून से अगस्त के बीच देश भर में बारिश औसत से ऊपर रही. जून में 8.9 प्रतिशत, जुलाई में 4.8 प्रतिशत, और अगस्त में 5.2 प्रतिशत अधिक बारिश हुई है. अच्छी बारिश से खरीफ फसलों जैसे मक्का और धान की बुवाई पर असर पड़ा. किसान फसल धनत्व बढ़ाने के लिए उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं. इसके चलते यूरिया की मांग अचानक बहुत बढ़ गई है.
क्यों इतने खास हैं 'माउंट ऑफ ऑलिव्स' के जैतून
येरुशलम के पूरब की ओर एक लंबे टीले पर तीन पहाड़ियां हैं. इन्हीं में से एक है, माउंट ऑफ ऑलिव्स. यहां जैतून तोड़कर तेल निकालना एक प्राचीन परंपरा का हिस्सा है. मान्यता है कि ईसा मसीह ने इस पहाड़ी पर प्रार्थना की थी.
तस्वीर: Oded Balilty/AP Photo/picture alliance
माना जाता है, ईसा ने यहां प्रार्थना की थी
कभी ये जमीन जैतून के पेड़ों से ढकी थी. जैतून के पेड़ों से इसे ही 'माउंट ऑफ ऑलिव्स' को अपना नाम मिला. इसका जिक्र बाइबिल में भी मिलता है. गॉस्पेल के मुताबिक, सूली चढ़ाने के लिए प्राचीन येरुशलम ले जाए जाने से पहले ईसा मसीह ने आखिरी रात यहीं गुजारी थी. ईसा ने यहां प्रार्थना की थी. ईसाई और यहूदी, दोनों धर्मों में इस जगह की काफी मान्यता है.
तस्वीर: Menahem Kahana/AFP/Getty Images
जैतून के प्राचीन पेड़
'माउंट ऑफ ऑलिव्स' पर जैतून के बहुत प्राचीन पेड़ भी हैं. इन्हें अहम सांस्कृतिक धरोहर माना जाता है. इस साल जैतून की फसल तोड़ने के मौसम में ही इस्राएल और हमास के बीच युद्धविराम हुआ. युद्ध के दौरान आशंका थी कि पेड़ों को मिसाइल से नुकसान पहुंच सकता है.
तस्वीर: Oded Balilty/AP Photo/picture alliance
प्राचीन परंपरा का हिस्सा
अब शांत हुए माहौल में मंक और ननें 'माउंट ऑफ ऑलिव्स' और 'गेथसमनी गार्डन' में जैतून की तैयार हो चुकी फसल जमा करने में व्यस्त हैं. यह बहुत प्राचीन परंपरा रही है. जैतून तोड़ने के लिए कई देशों से वॉलंटियर भी यहां आते हैं. सिर्फ वयस्क ही नहीं, बच्चे और किशोर भी हाथ बंटाते हैं. इस तस्वीर में दो कैथलिक नन, सिस्टर मैरी बेनेडिक्ट और सिस्टर कोलोंबा नजर आ रही हैं.
तस्वीर: Oded Balilty/AP Photo/picture alliance
जैतून तोड़कर जमा करने में लोगों की आस्था है
डिएगो दला गासा एक 'फ्रेंसिस्कन' हैं. यह कैथलिक चर्च से जुड़ा एक धार्मिक समूह है. डिएगो, 'माउंट ऑफ ऑलिव्स' पर 'गेथसमनी गार्डन' के पास एक आश्रम (हरमिटेज) में जैतून पैदावार की देखरेख करते हैं. पहाड़ी पर बने बाकी कैथलिक आश्रमों-चर्चों और उनमें रहने वाले समुदायों के लिए जैतून तोड़कर उनसे तेल जैसे उत्पाद बनाना ना तो कारोबार है, ना ही भरण-पोषण का मुख्य जरिया.
तस्वीर: Oded Balilty/AP Photo/picture alliance
"ये जमीन एक तोहफा है"
इन लोगों के लिए यह काम प्रार्थना का एक रूप और श्रद्धा की एक अभिव्यक्ति है. जैसा कि डिएगो ने एपी से बातचीत में कहा, "यह जमीन एक तोहफा है, दैवीय उपस्थिति का एक प्रतीक है." डिएगो बताते हैं, "पवित्र जगहों का संरक्षक होने का मतलब बस उनकी रक्षा करना नहीं है, बल्कि उन्हें जीना है. शरीर से भी और आध्यात्मिक रूप से भी. दरअसल ये पवित्र जगहें हमारी रक्षा करती हैं."
तस्वीर: Oded Balilty/AP Photo/picture alliance
इन लोगों के लिए कारोबार नहीं है जैतून की खेती
पहाड़ी पर बने आश्रमों और चर्चों के लोग बाजार में बेचने के लिए सामान नहीं बनाते हैं. इस काम में उनकी गहरी आस्था है. जैसा कि सिस्टर मैरी बेनेडिक्ट बताती हैं, "जैतून तोड़ते समय प्रार्थना करना आसान है, और प्रकृति में भी इतनी सुंदरता है. ऐसा लगता है छुट्टी बिता रहे हों."
तस्वीर: Oded Balilty/AP Photo/picture alliance
धार्मिक कार्यों में भी इस्तेमाल होता है ऑलिव ऑइल
ये लोग जितना जैतून का तेल निकालते हैं, उसका बड़ा हिस्सा खुद ही इस्तेमाल करते हैं. धार्मिक अनुष्ठानों में भी ऑलिव ऑइल इस्तेमाल किया जाता है. यहां 'बेनेडिक्टेन मोनेस्ट्री' में रहने वालीं सिस्टर कोलोंबा ने बताया कि ईसा मसीह की मूर्ति के पास जलने वाले चर्च लैंप के जैतून का तेल पर्याप्त मात्रा में मौजूद हो, यह सुनिश्चित करना उनकी जिम्मेदारी है.
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आर्थिक और धार्मिक, दोनों रूपों से बड़ा प्रतीक है जैतून
इस शुष्क, रेगिस्तानी इलाके में जैतून के पेड़ बहुत अहम पैदावार हैं. सदियों से यहां जैतून उगता और उगाया जाता रहा है. वेस्ट बैंक में यहूदी सेटलर्स और फलस्तीनियों के बीच संघर्ष में जैतून के पेड़ों पर भी विवाद रहा है. यहां जैतून आर्थिक और धार्मिक, दोनों रूपों से एक मजबूत प्रतीक है.
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इस बरस कम पैदावार हुई
इस साल जैतून की पैदावार काफी कम हुई. सूखा पड़ने और तेज हवाओं के कारण फूलों को बड़ा नुकसान पहुंचा. बसंत के मौसम में एक बड़ी आग में बहुत सारे पेड़ तहस-नहस भी हो गए.
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वरिष्ठ वैज्ञानिक और कृषि विज्ञान केंद्र, सीतापुर के प्रमुख डॉ. दया श्रीवास्तव ने डीडब्ल्यू को बताया कि किसान कम समय में अधिक पैदावार चाहते हैं. एक बार जब खेत में यूरिया का उपयोग किया जाता है, तो मिट्टी को भविष्य में हर बार पहले से अधिक यूरिया की जरूरत होती है.
वह कहते हैं, "अधिक मुनाफा कमाने के प्रयास में किसान अब उसी जमीन पर अनेकों प्रकार की फसलें और अधिक घनत्व में बुवाई कर रहे हैं. इस वजह से वे जरूरत से ज्यादा यूरिया का इस्तेमाल कर रहे हैं. मिट्टी का स्वास्थ्य जांचना बहुत जरुरी होता है. किसान अक्सर मिट्टी की गुणवत्ता को गंभीरता से नहीं लेते. फिर मिट्टी के परीक्षण के लिए लैब तक पहुंच आसान नहीं है. इसलिए किसान बिना मिट्टी की जांच कराए दुकानदार से लिए सामान्य बीज बो देते हैं." दरअसल मिट्टी का परीक्षण करने से नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश और अन्य मिनरल्स की स्थिति का पता चलता है. परीक्षण के आधार पर ही किसानों को तय कर चाहिए कि कितने यूरिया की जरूरत है और किस फसल को लगाना चाहिए.
डॉ. दया श्रीवास्तव किसानों के बीच पारंपरिक यूरिया की लोकप्रियता को यूरिया की बढ़ी मांग की वजह एक अहम वजह बताते हैंतस्वीर: Daya S Srivastava
जून 2021 में भारतीय किसान और उर्वरक सहकारी (इफको) ने नैनो तरल यूरिया लांच किया गया था. दावा किया गया कि 500 मिलीलीटर की एक स्प्रे बोतल, पारंपरिक यूरिया के 45 किलो बैग के बराबर असरदार है. लेकिन किसानों को इसमें लाभ नहीं दिखा. एक अध्ययन से भी पता चलता है कि नैनो यूरिया से उल्लेखनीय परिणाम नहीं मिलता.
वर्ष 2015 में भारत सरकार ने देश में बने और आयात किए जाने वाले यूरिया को नीम से लेपित करना अनिवार्य कर दिया. नीम की परत से यूरिया धीरे‑धीरे मिट्टी में नाइट्रोजन छोड़ता है. जिससे पौधों को लंबे समय तक पोषण मिलता है. ज्यादा यूरिया की भी जरुरत नहीं पड़ती. हालांकि किसानों के बीच इसे लोकप्रिय बनाने के उपाय कारगर नहीं हुए और उन्हें पुराने तरीकों की आदत ही बनी रही. ऐसे में यूरिया के ये विकल्प लोकप्रिय नहीं बने.
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अन्य उर्वरकों पर सब्सिडी की जरुरत
बाजार में मौजूद अन्य उर्वरकों की तुलना में यूरिया सस्ता है. सरकार यूरिया पर सबसे ज्यादा सब्सिडी देती है. यूरिया का एमआरपी नवंबर 2012 से 5,360 रूपए प्रति टन है. यह तब से नहीं बदला है. वहीं जनवरी 2015 से नीम की परत लगी यूरिया का मूल्य लगभग 5,628 रूपए प्रति टन है.
चाय बागानों और मजदूरों पर कठोर मौसम की मार
मौसम की चरम स्थितियों के कारण भारत के चाय बागानों में फसलें नष्ट हो रही हैं, जिससे असम और दार्जिलिंग जैसे ताजगी भरे पेय पदार्थों के लिए प्रसिद्ध उद्योग का भविष्य खतरे में पड़ रहा है.
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
चिलचिलाती धूप और मजदूरी को मजबूर
असम के चाय बागान में मजदूरी करने वाली कामिनी कुर्मी के सिर पर छतरी बंधी है, वह अपने दोनों हाथों को खाली रखना चाहती हैं ताकि उन्हें चाय की पत्तियां तोड़ने में कोई मुश्किल ना आए. कुर्मी कहती हैं, "जब बहुत गर्मी होती है, तो मेरा सिर चकराने लगता है और मेरा दिल बहुत तेजी से धड़कने लगता है."
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
मशीन नहीं, इंसानी हाथ
कामिनी कुर्मी उन सैकड़ों महिलाओं में से एक हैं जिन्हें उनकी निपुण उंगलियों के लिए नौकरी पर रखा गया है. अधिकांश पारंपरिक फसलों के लिए मशीन इस्तेमाल होता है जो कुछ ही दिनों में इसे काट लेती हैं. हालांकि मशीनें कामिनी जैसी कुशलता नहीं दिखा सकतीं.
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
चाय बागानों पर मौसम की मार
मौसम की चरम स्थितियों के कारण भारत के चाय बागानों में फसलें नष्ट हो रही हैं, जिससे असम और दार्जिलिंग की मशहूर चाय के उद्योग का भविष्य खतरे में पड़ रहा है, जबकि अनुमान है कि 10 अरब डॉलर प्रति वर्ष से अधिक के वैश्विक व्यापार पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है.
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
तापमान और बारिश के पैटर्न में बदलाव
असम में चाय अनुसंधान संघ की वैज्ञानिक रूपांजलि देब बरुआ कहती हैं, "तापमान और वर्षा के पैटर्न में बदलाव अब कभी-कभार होने वाली असामान्य बातें नहीं रह गई हैं. ये अब सामान्य बात हो गई है." भारतीय चाय उद्योग असम और दार्जिलिंग चाय जैसे पेय पदार्थों के लिए मशहूर है, जिनका नाम उन क्षेत्रों के नाम पर रखा गया है जहां इनकी खेती की जाती है.
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
कीटों में बढ़ोतरी
उच्च तापमान और कम बारिश ने भी कीटों के प्रकोप को बढ़ावा दिया है. चाय की पत्तियों का रंग उड़ना, धब्बे पड़ना और भूखे कीट नाज़ुक पत्तियों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे फसल की पैदावार और भी कम हो जाती है और उनकी लागत बढ़ जाती है.
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
क्वालिटी कंट्रोल पर जोर
ये महिला कर्मचारी सूखी चाय की पत्तियों को प्रोसेसिंग मशीन में डाल रही है, जिसके बाद उत्पाद की अंतिम गुणवत्ता जांच की जाती है और उसे पैक किया जाता है. पिछले साल सूखे के कारण फसल की पैदावार कम हो गई थी, क्योंकि किसानों ने अपनी चाय के पेड़ों की समय से पहले ही छंटाई कर दी थी और अपने खेतों में ज्यादा कीटनाशकों का इस्तेमाल किया था.
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
कम पैदावार, कम निर्यात
भारत की उच्च गुणवत्ता वाली चाय का निर्यात घट रहा है, जबकि आयात लगभग दोगुना हो गया है, साल 2024 में यह 4.53 करोड़ किलो के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गया. कोलकाता की एक प्रमुख एक्सपोर्ट कंपनी के एक अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, "भारत में भी सप्लाई कम होने से वैश्विक आपूर्ति कम हो सकती है और इसके नतीजे में वैश्विक कीमतों में बढ़ोतरी हो सकती है."
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
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जबकि एक टन सिंगल सुपर फॉस्फेट (एसएसपी) की कीमत 11,500 से 12,000 रूपए, ट्रिपल सुपर फॉस्फेट (टीएसपी) 26,000 रूपए, डाय-अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) 27,000 रूपए और म्युरिएट ऑफ पोटाश (एमओपी) की कीमत 36,000 रूपए है. किसान उर्वरक बैग के हिसाब से खरीदते हैं. यूरिया के एक 45 किलोग्राम वाले बैग की कीमत लगभग 250 से 270 रूपए है. जो बाकियों से बहुत सस्ता पड़ता है.
सस्ता होने के साथ ही यूरिया में नाइट्रोजन की मात्रा भी ज्यादा होती है. इसमें 46 प्रतिशत नाइट्रोजन है. डीएपी में लगभग 18 प्रतिशत नाइट्रोजन होता है. वहीं एसएसपी और टीएसपी में नाइट्रोजन लगभग ना के बराबर मिलता है.
आयात नहीं, घरेलू उत्पादन को बढ़ाना होगा
भारत में यूरिया की कुल मांग का लगभग 87 प्रतिशत घरेलू उत्पादन से पूरा होता है. जितना कम पड़ता है उसे आयात किया जाता है. भारत में चीन, ओमान, कतर और रूस से यूरिया खरीदा जाता है. इस वित्त वर्ष आयात बढ़ने का अनुमान है.
भारत में यूरिया बनाने के लिए प्राकृतिक गैस (एलएनजी) की भी जरुरत पड़ती है. देश में लगभग 15 प्रतिशत यूरिया संयंत्र ही देश की खुद की गैस का इस्तेमाल करते हैं. बाकी की क्षमता आयातित गैस पर आधारित है. इसका मतलब एलएलजी की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में उतार-चढ़ाव की वजह से यूरिया के आयात और दाम पर असर पड़ सकता है.
यूरिया उत्पादन वर्ष 2019‑20 में 24.5 मिलियन टन से बढ़कर 2023‑24 में 31.4 मिलियन टन तक पहुंच गया. लेकिन अगले ही वित्त वर्ष से इसमें गिरावट आने लगी. वर्ष 2024-25 के बीच इफको, नेशनल फर्टिलाइजर्स लिमिटेड, कृषक भारती सहकारी लिमिटेड, मैटिक्स फर्टिलाइजर और चंबल फर्टिलाइजर ने घरेलू यूरिया उत्पादन की आपूर्ति करने में मदद की. वरना स्थिति और खराब हो सकती थी.
हालांकि इसके कुछ नुकसान भी हैं. यूरिया बनाने वाले इन संयंत्रों से प्रदूषण भी फैलता है. विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) की एक रिपोर्ट के अनुसार कुल उत्पादन लागत का लगभग 70-80 प्रतिशत हिस्सा ऊर्जा की खपत पर खर्च होता है. अध्ययन में यह भी पाया गया कि यूरिया उत्पादन करने वाले संयंत्रों में प्रति वर्ष लगभग 191 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी का उपयोग होता है. लगभग 26 प्रतिशत संयंत्रों में भूजल का इस्तेमाल होता है. इन संयंत्रों से निकलने वाला पानी भी प्रदूषित होता है.
भारत की कुछ सबसे प्रसिद्ध भूख हड़तालें
महात्मा गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह के विचार आज के भारत में भी जिंदा हैं. हाल के सालों में किसी ने किसानों की, तो किसी ने गंगा की भलाई के लिए किए गए वादे याद दिलाने के लिए भूख हड़ताल की है.
तस्वीर: picture-alliance / akg-images / Archiv Peter Ruehe
जगजीत सिंह डल्लेवाल
पंजाब के किसान नेता डल्लेवाल 26 नवंबर 2024 से आमरण अनशन पर हैं. 70 साल के डल्लेवाल संयुक्त किसान मोर्चा के संयोजक हैं. यह फोरम 100 से ज्यादा किसान संघों का प्रतिनिधित्व करता है. यह डल्लेवाल की छठवीं और सबसे लंबी भूख हड़ताल है. उनकी प्रमुख मांग है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू हों और फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी दी जाए.
तस्वीर: Abhimanyu Kohad
गुरु दास अग्रवाल
कभी देश के केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पहले मेंबर-सेक्रेटरी रह चुके नौकरशाह, जीडी अग्रवाल ने देश में प्रदूषण के खिलाफ बहुत काम किया. गंगा नदी को साफ करने की कोशिशों में ही उनकी जान गई. अमेरिका से पीएचडी और आईआईटी कानपुर में पढ़ाने और बाद में संन्यासी बने अग्रवाल उर्फ 'स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद' की उपवास के 112वें दिन मृत्यु हो गई.
तस्वीर: IANS
सोनम वांगचुक
लद्दाख के पर्यावरण कार्यकर्ता वांगचुक ने 2024 में दो बार भूख हड़ताल की. अक्टूबर में 16 दिन और उससे पहले मार्च में 21 दिनों तक भूख हड़ताल कर चुके 58 साल के वांगचुक इंजीनियर और आविष्कारक रहे हैं. वे इतने दिन केवल नमक और पानी पर रहे. उनके अभियानों का मकसद था केंद्र सरकार को लद्दाख के पर्यावरण और आदिवासी मूल निवासियों की संस्कृति को सुरक्षित रखने का वादा याद दिलाना.
तस्वीर: Ab Rauoof Ganie/DW
मेधा पाटकर
नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर बांध के जलस्तर के बढ़ने से 2019 में मध्य प्रदेश के कई गांव पानी में डूब गए थे. दो साल पहले ही इसका उद्घाटन हुआ था, जिसकी योजना करीब 56 साल से लंबित थी. विस्थापित और प्रभावित लोगों के समर्थन में नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर ने वहां कई दिनों तक अनशन किया था.
सामाजिक कार्यकर्ता और मणिपुरी कवियित्री इरोम कानु शर्मिला को पूरा विश्व सबसे लंबे समय तक भूख हड़ताल करने वाली महिला के रुप में जानता है. 2000 से शुरु कर 2016 तक अनशन करने वाली शर्मिला की मांग थी अपने गृह राज्य मणिपुर में लागू विवादित सुरक्षा कानून को हटवाना. इसे आत्महत्या की कोशिश बता कर उन्हें सालों हिरासत में रखा गया और जबरन नाक में ड्रिप लगाकर तरल भोजन दिया जाता था.
तस्वीर: AP
अन्ना हजारे
आज दिल्ली की सत्ता चला रही आम आदमी पार्टी का जन्म जिस विरोध प्रदर्शन और भूख हड़ताल से हुआ था, उसके केंद्र में थे सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे. साल 2011 में एक सशक्त लोकपाल विधेयक की मांग को लेकर उन्होंने आमरण अनशन शुरु किया था. भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी इस मुहिम में अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण, बाबा रामदेव और कई अन्य बड़े नाम शामिल थे.
तस्वीर: Narinder Nanu/AFP/Getty Images
भगत सिंह
स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी भगत सिंह ने 1929 में लाहौर की मियांवाली जेल में 116 दिनों तक भूख हड़ताल की थी. उस जेल में राजनीतिक कैदियों के साथ बर्ताव को बदलने की मांग को लेकर भगत सिंह और उनके कुछ साथियों ने हड़ताल शुरु की थी. हड़ताल के 63वें दिन क्रांतिकारी जतिंद्र नाथ दास की इसमें जान चली गई. 116 दिन बाद पिता के मनाने पर भगत सिंह ने हड़ताल खत्म की.
तस्वीर: Raminder Pal Singh/EPA/dpa/picture alliance
महात्मा गांधी
महात्मा गांधी ने अपने जीवन काल में 20 से भी ज्यादा बार भूख हड़ताल की और भारत पर काबिज ब्रिटिश औपनिवेशिक शक्तियों को कमजोर किया. सन 1913 से 1948 के बीच वे कभी 3-4 दिन, तो कभी तीन हफ्ते लंबे उपवास पर रहे. उनकी भूख हड़ताल पूरी तरह अहिंसक सत्याग्रही उपवास होती, जो गांधी के शब्दों में "उनको सुधारने या सही रास्ते पर लाने के लिए किया जाता है जो आपको प्रेम करते हैं."
तस्वीर: picture-alliance / akg-images / Archiv Peter Ruehe
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यूरिया पर निर्भरता घटाने की जरुरत भी
केवल यूरिया पर निर्भर रहने के बजाय किसान गोबर, कंपोस्ट, हरी खाद और जैविक उर्वरक का उपयोग कर सकते हैं. डॉ.दया श्रीवास्तव सुझाव देते हैं कि सरकार उन किसानों को प्रोत्साहित करे जो यूरिया का इस्तेमाल कम कर रहे हैं. अभी ऐसा नहीं हो रहा है.
वह कहते हैं, "अगर यूरिया पर सब्सिडी दी जा रही है, तो वर्मी कंपोस्ट जैसे जैविक उर्वरक पर भी सब्सिडी दी जानी चाहिए. जैविक उर्वरक महंगे होने के कारण कम इस्तेमाल होते हैं. प्राकृतिक या जैविक खेती में रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक का उपयोग नहीं होता. जैविक खेती के लिए किसान को रजिस्ट्रेशन का खर्च अपनी जेब से देना पड़ता है. यह 4,000 से 4,500 रुपये है. जबकि सरकार को जैविक खेती अपनाने वाले किसानों को अधिक सब्सिडी और प्रोत्साहन देना चाहिए.”
डॉ. दया श्रीवास्तव आगे बताते हैं, "जैविक खेती करने वाले किसानों के लिए अभी तक कोई विशेष बाजार विकसित नहीं किया गया है, जिससे उन्हें अपना उत्पादन बेचने में दिक्कत होती है. यूरिया पर सब्सिडी को कम किया जा सकता है क्योंकि नाइट्रोजन के अन्य कई स्रोत उपलब्ध हैं." डॉ. दया श्रीवास्तव के मुताबिक पोल्ट्री मेंयोर एक बेहतरीन विकल्प है. साथ ही, जैविक उर्वरक जैसे बायो-एनपीके के उपयोग और महत्व के बारे में किसानों में जागरूकता बढ़ाई जानी चाहिए.
हालांकि भारत में यूरिया की बढ़ी मांग और कमजोर उत्पादन के बीच भारत सरकार के उर्वरक विभाग ने हाल ही में कहा है कि देश में यूरिया की मांग को पूरा करने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं. इस वर्ष अप्रैल से अक्टूबर के बीच, भारत ने 5.8 मिलियन टन यूरिया का आयात किया. पिछले वर्ष इसी अवधि में यह मात्रा 2.4 मिलियन टन थी.
देश में भी घरेलू उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास जारी हैं. असम के नामरूप और ओडिशा के तलचर में दो यूरिया संयंत्र निर्माणाधीन हैं. दोनों की क्षमता 1.27 मिलियन टन प्रति वर्ष है. साथ ही सरकार ने आश्वासन दिया है कि रबी सीजन के लिए यूरिया का पर्याप्त स्टॉक है.