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राजनीतिकनाडा

कनाडा में खुद को बचाने के लिए भारत से भिड़ रहे हैं ट्रूडो?

२३ अक्टूबर २०२४

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो भारत के साथ कूटनीतिक विवाद के कारण अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में हैं. ठीक इसी समय वह अपने नौ साल के कार्यकाल में पहली बार अपना राजनीतिक अस्तित्व और विरासत बचाने की लड़ाई भी लड़ रहे हैं.

16 अक्टूबर को ओटावा में फॉरेन इंटरफेरेंस कमीशन के आगे अपना बयान दर्ज कराते कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो
पहले जून 2024 में टोरंटो की एक सुरक्षित सीट पर हार, फिर सितंबर में मॉन्ट्रियल में मिली हार ने जस्टिन ट्रूडो की राजनीतिक ताकत में और सेंध लगाई हैतस्वीर: Sean Kilpatrick/The Canadian Press/AP/picture alliance

जस्टिन ट्रूडो कई हफ्तों से परेशान हैं. पहले तो जगमीत सिंह की वामपंथी 'न्यू डेमोक्रैटिक पार्टी' (एनपीडी) ने संसद में ट्रूडो की लिबरल पार्टी से समर्थन वापस ले लिया, जिसकी वजह से उनकी सरकार अल्पमत में आ गई. इसके बाद उन्हें संसद में दो-दो बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा, जिसे वे किसी तरह क्यूबेक की अलगाववादी पार्टी ब्लॉक 'क्यूबेक्वा' की मदद से बचा पाए.

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जस्टिन ट्रूडो 2013 से अपनी "लिबरल पार्टी ऑफ कनाडा" का नेतृत्व कर रहे हैंतस्वीर: Justin Tang/The Canadian Press/AP/picture alliance

घरेलू मोर्चे पर इन चुनौतियों के अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के साथ झगड़ा! कभी देश के हीरो रहे ट्रूडो की प्रधानमंत्री के तौर पर लोकप्रियता लगातार नीचे जा रही है, वह भी वोटरों के बीच में. लोग बढ़ती महंगाई, किफायती घरों की कमी और बिगड़ती स्वास्थ्य सेवा के कारण ट्रूडो से नाराज हैं.

और तो और, अब उनकी अपनी पार्टी के नेता भी मानने लगे हैं कि अगर ट्रूडो रहे तो पार्टी अगला चुनाव जीत नहीं पाएगी. वे ट्रूडो के खिलाफ विद्रोह पर उतर आए हैं. पार्टी के बैकबेंचरों को डर है कि यही हाल रहा तो वे वापस संसद में नहीं पहुंच पाएंगे.

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद एक साल बाद 2015 में जब जस्टिन ट्रूडो पूर्ण बहुमत के साथ चुनाव जीतकर सत्ता में आए थे, तो उन्हें लिबरल राजनीति का नया चेहरा बताया गया था. अमेरिका में 2016 चुनाव हुए, उस समय हिलेरी क्लिंटन और डॉनल्ड ट्रंप चुनाव लड़ रहे थे और वहां सवाल पूछा जा रहा था कि ऐसे चेहरे अमेरिका में क्यों नहीं हैं.

अब नौ साल बाद हालात बदल चुके हैं और ट्रूडो न सिर्फ अपनी लिबरल पार्टी के लिए, बल्कि अपने देश के लिए भी बोझ बन गए लगते हैं. उनपर चौतरफा हमला हो रहा है और वे भी अपनी कुर्सी बचाने के लिए चौतरफा हमले कर रहे हैं.

भारत के साथ जारी विवाद में कई विशेषज्ञ जस्टिन ट्रूडो की आलोचना कर रहे हैं. इस प्रकरण में अब तक उनका जैसा रुख रहा है, उसे अपरिपक्व कूटनीति के तौर पर देखा जा रहा है तस्वीर: Sean Kilpatrick/The Canadian Press via AP/picture alliance

ट्रूडो से क्यों नाराज हुए मतदाता

कनाडा के लोगों की अपने प्रधानमंत्री से नाराजगी की मुख्य वजह बिगड़ती अर्थव्यवस्था है. कोरोना महामारी के बाद से हालात बिगड़े हैं. यूक्रेन पर रूसी हमले ने स्थितियां और खराब की हैं. रोजमर्रा की जरूरी चीजों के अलावा बिजली की कीमतें आसमान छू रही हैं. घरों की कीमतें बढ़ी हैं और किफायती घर मिलना मुश्किल हो गया है.

रेलकर्मियों की हफ्तों चली हड़ताल ने देश को ठप कर दिया था. सरकार के रवैये ने लोगों के असंतोष को और भड़काया. ट्रूडो ने इन मुद्दों को लंबे समय तक नजरअंदाज किया. वहीं लिबरलिज्म, क्लाइमेट चेंज या जेंडर जैसे उनके मुद्दे महंगाई का सामना कर रहे लोगों को निराश कर रहे थे.

कनाडा दुनिया की नौवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. उसकी जीडीपी 2022 में 2.2 ट्रिलियन डॉलर थी, जबकि पड़ोसी अमेरिका करीब 25 ट्रिलियन डॉलर के साथ दुनिया की सबसे बड़ी इकोनॉमी है. 2023 में कनाडा की अर्थव्यवस्था 1.1 प्रतिशत की दर से बढ़ी. इस साल विकास दर 0.5 प्रतिशत से नीचे है.

प्रमुख थिक टैंक 'फ्रेजर इंस्टिट्यूट' के अनुसार, कनाडा के दो तिहाई लोग सोचते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था गलत दिशा में जा रही है और उनका जीवन स्तर लगातार गिर रहा है. आर्थिक आंकड़ों और लोगों की भावनाओं में ये बड़ा अंतर इसलिए है कि जीडीपी में वृद्धि आबादी में वृद्धि की वजह से है.

2023 में माइग्रेशन की वजह से कनाडा की आबादी 1957 के बाद से सबसे ज्यादा 3.2 फीसदी बढ़ी है. लेकिन जीवन स्तर का आकलन प्रति व्यक्ति जीडीपी के आधार पर किया जाता है और उसमें तीन फीसदी की गिरावट आई है, जो इस साल भी बदस्तूर जारी है.

17 से 22 अक्टूबर के बीच हुए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, कनाडा में पांच में से एक ही शख्स चाहता है कि ट्रूडो फिर से चुनाव लड़ें. कुल प्रतिभागियों में से आधे ऐसे हैं, जो चाहते हैं ट्रूडो तत्काल इस्तीफा देंतस्वीर: Sean Kilpatrick/The Canadian Press/AP/picture alliance

कनाडा में लिबरल नेता भी ट्रूडो से नाराज

कनाडा में अगले साल चुनाव होने वाले हैं और चुनावों में जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी का हारना तय माना जा रहा है. इसे देखते हुए पार्टी के बहुत सारे सांसद ट्रूडो से नाराज हैं. पिछले महीनों में हुए दो चुनावों में लिबरल पार्टी मॉन्ट्रियल और टोरंटो की सुरक्षित सीटें हार गई.

मतदाताओं की नाराजगी को देखते हुए कम-से-कम चार मंत्रियों ने प्रधानमंत्री से कह दिया है कि वे अगला चुनाव नहीं लड़ेंगे. कुछ सांसद भी हारने के डर से चुनाव नहीं लड़ना चाहते. हालांकि, ट्रूडो को अभी तक सरकार के मंत्रियों का समर्थन मिल रहा है.

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मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, पार्टी के असंतुष्ट सांसद इस समय चल रहे संसद अधिवेशन के दौरान ट्रूडो को घेरने की योजना बना रहे हैं. उनकी संख्या कितनी बड़ी है इसका अंदाजा पार्टी कॉकस की मीटिंग के दौरान ही चलेगा, लेकिन विद्रोही नेताओं का कहना है कि संख्या बढ़ रही है.

करीब 30 लिबरल सांसदों ने एक आंतरिक दस्तावेज में ट्रूडो के इस्तीफे की मांग की है. ट्रूडो संसद का सत्र स्थगित करके इस समस्या से बच सकते हैं, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इससे लिबरल पार्टी को नेतृत्व परिवर्तन का समय मिल जाएगा.

देश के अंदर सिखों का समर्थन पाने के लिए ट्रूडो ने भारत के खिलाफ जो मोर्चा खोला, उसका उल्टा असर हुआ हैतस्वीर: Sean Kilpatrick/The Canadian Press/AP/picture alliance

ट्रूडो का कंजरवेटिव पार्टी पर हमला

जस्टिन ट्रूडो अब तक यह मानने को तैयार नहीं कि उनके नेतृत्व की चमक फीकी पड़ चुकी है. वे अभी भी फिर से पुरानी लोकप्रियता पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. प्रो. अपराजिता कश्यप नई दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कनेडियन, यूएस और लैटिन अमेरिकन स्टडीज में पढ़ाती हैं. वह कहती हैं, "ट्रूडो अभी दवाब में हैं और उनका सारा फोकस लोगों का ध्यान घरेलू समस्याओं से हटाने पर है."

खुद ट्रूडो पर चीन के नजदीक होने के आरोप हैं, लेकिन उन्होंने विपक्षी कंजरवेटिव पार्टी पर भी इल्जाम लगाया है कि उसके कुछ नेता विदेशी हस्तक्षेप के मामलों में शामिल हो सकते हैं. ट्रूडो ने विपक्षी कंजरवेटिव पार्टी पर आरोप लगाने के लिए खुफिया जानकारी का हवाला दिया है. उन्होंने आयोग में कहा, "मेरे पास कंजरवेटिव पार्टी के कई सांसदों, पूर्व सांसदों या उम्मीदवारों के नाम हैं जो विदेशी हस्तक्षेप के मामलों में या तो शामिल हैं, या शामिल होने के जोखिम में हैं, या जिनके बारे में खुफिया सूचना है."

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ट्रूडो ने आरोप लगाया है कि कंजरवेटिव पार्टी इस मामले को गंभीरता से नहीं ले रही है. कंजरवेटिव पार्टी के नेता पियर पोलिएवर ने प्रधानमंत्री को झूठा बताते हुए कहा है कि उनके चीफ ऑफ स्टाफ को सरकार से क्लासिफाइड ब्रीफिंग मिली है. सरकार ने उन्हें या उनके चीफ ऑफ स्टाफ को किसी भी समय नहीं बताया है कि उनके मौजूदा या पूर्व सांसद या उम्मीदवार विदेशी हस्तक्षेप में जानबूझकर शामिल हैं. चुनावी सर्वेक्षणों में पोलिएवर की रेटिंग 45 प्रतिशत चल रही है. अगर इस समय चुनाव होते हैं, तो कंजरवेटिव पार्टी लिबरल पार्टी को हरा देगी.

अमेरिका ने कहा कि भारत को जांच में कनाडा के साथ सहयोग करना चाहिएतस्वीर: Jonathan Ernst/REUTERS

कनाडा में भी माइग्रेशन पर सख्ती

पूरी पश्चिमी दुनिया में महंगाई और जीवन स्तर में गिरावट की समस्या को माइग्रेशन से जोड़कर देखा जा रहा है. कनाडा में भी ट्रूडो की सरकार आर्थिक समस्याओं की जड़ विदेशियों में देख रही है और माइग्रेशन कानूनों में सख्ती ला रही है.

ट्रूडो ने एक्स पर एक संदेश में लिखा, "हम कम आय वाले विदेशी कामगारों की तादाद घटा रहे हैं और उनके कॉन्ट्रैक्ट की अवधि भी कम कर रहे हैं. हमें ऐसे उद्यमों की जरूरत है; जो कनाडा के कामगारों में निवेश करें." ट्रूडो ने कहा कि आप्रवासन कनाडा की अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद है; लेकिन अगर खराब लोग व्यवस्था का दुरुपयोग करेंगे तो हम सख्त कदम उठाएंगे.

कनाडा सालों से विदेशी छात्रों के लिए लोकप्रिय मुकाम रहा है. अब विदेशी छात्रों को दिए जाने वाले परमिट में भी कमी की जा रही है. आने वाले सालों में स्टडी परमिट में 300,000 की कमी की जाएगी. अगले दो सालों में कनाडा सिर्फ करीब सवा चार लाख स्टडी परमिट देगा.

कनाडा में भारतीय छात्रों को सता रहा सपनों के टूटने का डर

कनाडा के कॉलेजों में दाखिला लेने वाले हजारों विदेशी छात्रों को इस साल वीजा नहीं मिला है, जिसकी वजह से वे मौजूदा सेमेस्टर में पढ़ाई शुरू नहीं कर पाए हैं. परमिट में कटौती का असर कनाडा के शिक्षा संस्थानों पर तो पड़ेगा ही, अर्थव्यवस्था भी इससे प्रभावित होगी.

भारत-कनाडा तनाव पर अमेरिका की दुविधा

देश के अंदर सिखों का समर्थन पाने के लिए ट्रूडो ने भारत के खिलाफ जो मोर्चा खोला, उसका उल्टा असर हुआ है. 3.8 करोड़ की आबादी वाले कनाडा में भारतीय मूल के लोगों की तादाद करीब 30 लाख है. इनमें से 10 लाख भारतीय पासपोर्ट धारी है. कनाडा ने खुफिया सूचना को आधार बताकर भारतीय अधिकारियों पर सिख अलगाववादी नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में शामिल होने का आरोप लगाया.

कनाडा और भारत ने एक-दूसरे के राजनयिकों को निकाला

इस मामले में राजदूत तक को घसीटे जाने के बाद से भारत बहुत नाराज है. अजय बिसारिया 2022 तक कनाडा में भारत के उच्चायुक्त रहे हैं. भारत और कनाडा के बीच समस्या तब भी थी जब वे ओटावा में पोस्टेड थे, लेकिन दोनों पक्षों ने जिन को बोतल में बंद कर रखा था जो अब निकलकर बाहर आ गया है. अजय बिसारिया कहते हैं, "भारत की कोई कनाडा समस्या नहीं है, उसकी ट्रूडो समस्या है. जैसे ही ट्रूडो हटते हैं, संबंध सामान्य होने लगेंगे. हालांकि, इसमें समय लगेगा."

कनाडा, अमेरिका का पड़ोसी और पारंपरिक सहयोगी है. वहीं, नई दिल्ली के साथ मजबूत रिश्ते वॉशिंगटन के अपने हित में भी हैं. वह भारत और कनाडा के बीच संतुलन की नीति पर चल रहा हैतस्वीर: Justin Sullivan/Getty Images

जिस तरह से कनाडा ने "फाइव आई" के साथी अमेरिका से मिली खुफिया सूचना का इस्तेमाल किया है, उसने अमेरिका को भी इस भंवर में खींच लिया है. अमेरिका इस समय भारत और कनाडा के बीच संतुलन की नीति पर चल रहा है. भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर के शब्दों का इस्तेमाल करें, तो वह अपने विकल्पों का इस्तेमाल कर रहा है.

जयशंकर: कनाडा में राजनयिकों को "डराया-धमकाया" गया

प्रो. राहुल मिश्र, मलेशिया के मलाया यूनिवर्सिटी में 'सेंटर फॉर आसियान रीजनल स्टडीज' के डाइरेक्टर रहे हैं. हिंद-प्रशांत इलाके में चीन को काबू में रखने के लिए अमेरिका और पश्चिमी देशों की कोशिशों पर उनकी पैनी निगाह रहती है. राहुल मिश्र कहते हैं, "कनाडा-भारत विवाद ने अमेरिका को मुश्किल में डाल दिया है. एक ओर वह भारत को नाराज नहीं करना चाहता और दूसरी ओर वह कनाडा और भारत में से किसी को चुनने की स्थिति में नहीं पड़ना चाहता."

रूस की मेजबानी में हुआ 16वां ब्रिक्स शिखर सम्मेलन, भारत-चीन के बीच पांच साल से जमी बर्फ को पिघलाने का मंच बना तस्वीर: Alexander Shcherbak/Tass/IMAGO

भारत का रूस और चीन कनेक्शन

यह बात भी दीगर है कि अमेरिका और कनाडा की लिबरल सरकारों को भारत की दक्षिणपंथी सरकार बहुत सुहाती नहीं. अमेरिका और पश्चिमी देश यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से भारत को अपने पक्ष में लाने और मॉस्को पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों में शामिल करने की कोशिश करते रहे हैं.

इसी तरह चीन पर काबू रखने की पश्चिमी कोशिशों में 2020 के सीमा विवाद के बाद से भारत, पश्चिमी देशों को स्वाभाविक सहयोगी दिखता रहा है. लेकिन जिस तेजी से कनाडा-भारत विवाद भड़कने के बाद नई दिल्ली और बीजिंग के बीच सीमा विवाद पर सहमति बनी है, उससे साफ दिखता है भारत यह संदेश देना चाह रहा है कि वह जरूरत पड़ने पर पश्चिमी देशों से पल्ला झाड़ भी सकता है.

रूस में हो रहे ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लेने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद कजान गए. उन्होंने व्लादिमीर पुतिन और शी जिनपिंग के साथ जो गर्मजोशी दिखाई, वह अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भारत की नई भूमिका का संकेत देता है. करीब पांच साल बाद मोदी और जिनपिंग के बीच रूस में सीधी बैठक हुई. जिनपिंग के साथ हाथ मिलाने की एक तस्वीर साझा करते हुए पीएम मोदी ने एक्स पर लिखा, "पारस्परिक विश्वास, पारस्परिक सम्मान और एक-दूसरे के प्रति संवेदनशीलता द्विपक्षीय संबंधों को राह दिखाएगी." 

इससे पहले भी दोनों नेता अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में मिलते रहे हैं, लेकिन आमतौर पर बैठकों के समानांतर जिस तरह देशों के बीच अलग से द्विपक्षीय वार्ता भी होती है, वैसा भारत और चीन के बीच नहीं हो रहा था. भारत, कनाडा के साथ जारी विवाद और इसमें अमेरिका और ब्रिटेन से कनाडा को मिले समर्थन का इस्तेमाल रूस और चीन के साथ संबंधों को बढ़ाने के लिए कर सकता है.

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इस संभावना पर प्रो. राहुल मिश्र कहते हैं, "भारत में एक राय यह बन रही है कि पश्चिमी देशों पर लंबे समय के लिए भरोसा नहीं किया जा सकता. यह इंडो-पेसिफिक में न सिर्फ क्वाड के लिए समस्याएं पैदा करेगा, बल्कि कोई भी संबंध बनाना मुश्किल कर देगा." कनाडा भले ही मध्य दर्जे की सत्ता हो, लेकिन ट्रूडो सरकार के फैसले आने वाले समय में निश्चित तौर पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करेंगे.

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