फसल नुकसान जांचे बिना किसानों को मिलेगा बीमा का पैसा?
शिवांगी सक्सेना
९ अक्टूबर २०२५
भारत सरकार चरम मौसमी घटनाओं से निपटने के लिए क्लाइमेट पैरामीट्रिक बीमा पर विचार कर रही है. इनसे प्रभावित क्षेत्रों में लोगों को सीधा भुगतान किया जाएगा. इस से सरकार का आर्थिक बोझ कम होने की उम्मीद है.
अगर भारत जलवायु आधारित बीमा की शुरुआत करता है तो वह ऐसा करने वाले चंद देशों में शामिल हो जाएगातस्वीर: Indranil Mukherjee/AFP
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जलवायु परिवर्तन के चलते भारत में चरम मौसम घटनाएं भीषण रूप ले रही हैं. ऐसे में भारत जलवायु-आधारित बीमा योजना पर विचार कर रहा है. यह योजना जलवायु परिवर्तन से किसानों को होने वाले नुकसान को कवर करती है. इसके लिए सरकार ने देश की स्थानीय बीमा कंपनियों के साथ शुरुआती स्तर पर बातचीत भी शुरू कर दी है.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक यह योजना पैरामीट्रिक मॉडल पर आधारित होगी. यह एक प्रकार का बीमा मॉडल है. इसमें कुछ पूर्व निर्धारित पैरामीटर होते हैं जैसे हवा की गति, तापमान, भूकंप की तीव्रता आदि. यानी अगर हवा, एक निर्धारित गति से ज्यादा तेज चली या एक निर्धारित आंकड़े से ज्यादा बारिश हुई तो बीमा धारक को हुए नुकसान का आकलन किए बिना बीमा भुगतान कर दिया जाता है.
भारतीय साधारण बीमा निगम के पूर्व अध्यक्ष रामास्वामी नारायणन ने बताया है कि जलवायु घटनाओं की तीव्रता बढ़ गई है और इसी आधार पर सरकार के साथ यह चर्चा शुरू हुई है. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, वित्त मंत्रालय, भारतीय साधारण बीमा निगम और अन्य प्रमुख बीमा कंपनियों के बीच कवरेज विकल्पों और वित्तीय व्यवस्था पर बातचीत चल रही है. हालांकि अभी इसका कोई औपचारिक प्रस्ताव तैयार नहीं हुआ है. लेकिन ऐसी बीमा योजनाओं के विकल्प दुनिया के कई देशों में मौजूद हैं.
जर्मनी में आलू के लिए बड़ा संकट बना कीट
रीड ग्लास विंग्ड सिकाडा नाम का एक कीट जर्मनी में आलू और दूसरी सब्जियों के लिए महामारी फैला रहा है. कुछ किसानों की तो पूरी फसल ही चौपट हो गई है. जर्मनी के लोगों पर इसका क्या असर होगा?
तस्वीर: Privat
कीट का खतरा
दिखाई नहीं देता लेकिन बेहद खतरनाक है. रीड ग्लास विंग्ड सिकाडा पौधों में तेजी से फैल रही स्टोल्बर बीमारी के पीछे है. दक्षिणी जर्मनी के बाडेन वुर्टेमबर्ग के कृषि मंत्रालय के मुताबिक आलू, सब्जियों, चुकंदर की सप्लाई के लिए पहले ही "गंभीर खतरा" मान लिया गया है. यह कीट जर्मनी के लोअर सैक्सनी और सेक्सनी अनहाल्ट राज्यों तक फैल गया है.
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किसानों की फसल हो रही है चौपट
सिगाडा एक बैक्टीरियम को पौधों तक पहुंचाता है जिनकी वजह से आलू के पौधे मुरझा जाते हैं और चुकंदर नरम हो जाता है. इसके नतीजे में भारी नुकसान होता है. कृषि वैज्ञानिक सब्जियों के नमूने और सिकाडा के लार्वा तैयार कर रहे हैं जिससे कि प्रयोगशाला में उन पर प्रयोग किए जा सकें.
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खतरे की घंटी
नमूनों को कड़ी बारीकी से माइक्रोस्कोप के जरिए परखा जा रहा है. शुगर बीट ग्रोअर्स एसोसिएशन के चेयरमैन के मुताबिक रीड ग्लास विंग्ड सिकाडा ने यूरोपीय संघ में भोजन की आपूर्ति के लिए अब तक का सबसे बड़ा खतरा पैदा किया है, इसमें कोई संदेह नहीं है. किसान ने असरदार मदद के लिए तुरंत कदम उठाने की मांग की है.
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सब्जियां खराब होंगी
सिकाडा अपने साथ कैंडिडेटस फाइटोप्लाज्मा सोलानी बैक्टिरियम लेकर आता है. जो पौधों में अपने डंक मारने के साथ छोड़ देते हैं. इसकी वजह से अकसर स्टोलबर बीमारी पैदा होती है. इस कारण पौधे या तो मुर्झा जाते हैं या फिर उनका जड़ खराब हो जाता है. सब्जियों को स्टोर करना मुश्किल हो जाता है, फसल घट जाती है और उनका स्वाद बिगड़ जाता है. इसकी वजह है उनमें मिठास का कम होना.
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केवल आलू के लिए नहीं है संकट
प्याज, पत्तागोभी, गाजर, मिर्च, रुबाब जैसी कई और सब्जियां इस बीमारी की चपेट में आती हैं. ये वैज्ञानिक रूबाब के खेतों में सिकाडा के संक्रमण के कारण हुए नुकसान का विश्लेषण कर रहे हैं.
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जलवायु परिवर्तन को दोष
इस तरह के अवांछित कीटों के बढ़ने के कई कारण हो सकते हैं, खासतौर से मौसम. जलवायु परिवर्तन गर्मियों का ताप बढ़ा रहा है और ठंड को उतना सर्द नहीं होने दे रहा. ऐसा वातावरण कीटों के पनपने के लिए काफी अनुकूल है. यह उनकी सक्रियता का दौर बढ़ा देता है, प्रजनन को तेज करता है और उन्हें ज्यादा इलाकों तक पहुंचने में मदद करता है. इसकी वजह से खतरा और बढ़ता है.
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घट जाएगी स्थानीय उपज
पौधों को जाली से ढक कर इस बीमारी को कुछ हद तक रोकने में मदद मिल सकती है. अधिकारियों के मुताबिक स्टोल्बर से इंसानों की सेहत को कोई खतरा नहीं है. आलू या दूसरी सब्जियों में अगर उनके खराब होने के निशान दिख जाएं तो उन्हें बेचने की वैसे भी अनुमति नहीं है. हालांकि अगर यह बीमारी इसी तरह फैलती रही तो पतझड़ के मौसम में स्थानीय सब्जियों की कमी जरूर हो जाएगी.
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कितनी सब्जियां चाहिए जर्मनी को
जर्मन लोग अमूमन प्रतिदिन 600 ग्राम तक सब्जियां खाते हैं. बीते 20 सालों में सब्जियों की इस खपत में 24 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. जर्मनी सब्जियों के अपने कुल उपभोग का लगभग 36 फीसदी हिस्सा ही उगा पाता है. बाकी की सब्जियां उसे दूसरे देशों से आयात करनी पड़ती है. सब्जियां तो यहां कई सारी उगाई जाती हैं लेकिन सबसे ज्यादा गाजर, प्याज और पत्तागोभी उगाया जाता है.
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आलू की खपत
दूसरे यूरोपीय देशों की तरह ही जर्मनी में भी आलू की खपत काफी ज्यादा है. औसत रूप से हर आदमी यहां एक साल में 60 किलो तक आलू खा जाता है. आलू सिर्फ सब्जी के तौर पर ही नहीं बल्कि कई बार रोटी चावल की तरह भी खाई जाती है. ऐसे कई पकवान हैं जिन्हें आलू के साथ खाया जाता है. 2021 में जर्मनी में 1.07 करोड़ टन आलू पैदा हुआ था. देश में पैदा होने वाले आलू का बड़ा हिस्सा जर्मन लोग खुद खा जाते हैं.
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साल 2007 में 16 कैरेबियन देशों के संयुक्त प्रयास से कैरेबियन कैटस्ट्रॉफी रिस्क इंश्योरेंस फैसिलिटी (सीसीआरआईएफ) बीमा लागू किया गया था. यह दुनिया की पहली सार्वजनिक क्षेत्र की पैरामीट्रिक बीमा सुविधा है. कैरेबियन देशों जैसे जमैका को तूफान और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण भारी आर्थिक नुकसान झेलना पड़ता है. राहत कार्य और पुनर्निर्माण में सरकार का काफी समय और पैसा लगता है. इस मॉडल के तहत प्राकृतिक आपदा के कुछ पैरामीटर जैसे तूफान के दौरान हवा की गति, बारिश और भूकंप की तीव्रता तय किए गए हैं. साल 2021 में तूफान एल्सा ने जमैका में भारी तबाही मचाई थी. जमैका को सीसीआरआईएफ से तुरंत 3.5 मिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता मिली. यह भुगतान 14 दिन के भीतर कर दिया गया था.
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भारत में क्यों है इसकी जरुरत?
भारत में जलवायु परिवर्तन की स्थिति गंभीर होती जा रही है. विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2024 में करीब 88 फीसदी दिन में कहीं ना कहीं चरम मौसमी घटनाएं दर्ज की गई. यानी 366 में से 322 दिन देश के किसी ना किसी हिस्से में चरम मौसमी स्थिति देखने को मिली. यह आंकड़ा साल 2023 में 318 दिन और साल 2022 में 314 दिन था.
देश में साल 2023 और 2024 में रिकॉर्ड-तोड़ गर्मी पड़ी. आईएमडी के अनुसार हीटवेव वाले दिनों की संख्या पिछले 30 वर्षों में दोगुनी हुई है. उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और ओडिशा सबसे प्रभावित राज्य रहे. यहां कई इलाकों में तापमान 47-49°C तक पहुंच गया. करीब 20 से 25 दिन यही तापमान दर्ज किया गया. इसी साल मानसून के दौरान पंजाब के कई जिलों में भारी बारिश हुई. इस दौरान लगभग 1,400 गांव प्रभावित हुए. करीब 2.5 लाख एकड़ से अधिक कृषि भूमि बाढ़ में डूब गई. ऐसी घटनाओं के चलते हर साल भारत में हजारों लोगों की मौत होती है.
क्या भारत में पहले से लागू है इस तरह की योजना?
भारत में फिलहाल मौसम आधारित फसल बीमा योजना लागू है. ये बीमा खाद्य फसलों जैसे अनाज, बाजरा और दालें, और वार्षिक बागवानी फसलों पर लागू होता है. यह योजना किसानों को अत्यधिक वर्षा, सूखा, तूफान, ओलावृष्टि, चक्रवात, प्राकृतिक आग और बिजली जैसी जलवायु आधारित घटनाओं से होने वाले नुकसान से सुरक्षा देती है. योजना राज्यों के चयनित जिलों और ब्लॉकों में लागू है. अभी 12 कंपनियां फसल बीमा प्रदान कर रही हैं.
मध्य प्रदेश राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के उपनिदेशक सौरभ सिंह बताते हैं कि बाढ़, भूकंप, महामारी और हीटवेव जैसी प्राकृतिक आपदाओं से तुरंत निपटने के लिए राज्यों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती हैतस्वीर: Saurabh Singh/DW
मध्य प्रदेश राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के उपनिदेशक सौरभ सिंह बताते है कि भारत में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना लागू है. भारत सरकार जलवायु परिवर्तन के कारण फसल नुकसान पर राहत राशि देने पर काफी ध्यान दे रही है. इसके लिए पहले से ही पैरामीटर या मानक तय कर लिए गए हैं.
सौरभ सिंह ने डीडब्लू को बताया, "सूखा और बाढ़ की वजह से फसल को नुकसान होता है. सभी राज्य सरकारें मौसम आधारित फसल बीमा योजना के तहत अत्यधिक गर्मी से हुए फसल नुकसान के लिए पैसा देती है. इसे 'हीट कंपन्सेशन' कहा जाता है. इसके अलावा राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष 2021 भी लागू है. बाढ़, भूकंप, महामारी और हीटवेव जैसी प्राकृतिक आपदाओं से तुरंत निपटने के लिए राज्यों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है. यह भारत में कुल आपदा राहत फंड का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा होता है."
ऐसे में क्लाइमेट पैरामीट्रिक बीमा योजना सरकार के ऊपर कई तरह का बोझ कम कर सकती है. किसान या प्रभावित लोग बीमा कंपनियों से सीधा मुआवजा पा सकते हैं. इस मामले में सरकार पर पूरी निर्भरता नहीं रहती. किसानों को सरकारी दफ्तरों के चक्कर नहीं लगाने पड़ते. सरकार को भी हर बार आपदा के बाद राहत राशि देने की जरुरत नहीं पड़ती. बीमा कंपनियां आर्थिक नुकसान की भरपाई कर देती हैं. ऐसे में सरकार आपदा के बाद बुनियादी सुविधाओं के नुकसान और जलवायु परिवर्तन पर अधिक ध्यान दे सकती है.
जबकि पारंपरिक बीमा में पहले नुकसान का सर्वेक्षण किया जाता है. पटवारी या कंपनी के लोग किसान के खेत खुद जाकर देखते हैं. निरीक्षण कर नुकसान का अनुमान लगाया जाता है. भुगतान की राशि आने में भी समय लगता है.
चाय बागानों और मजदूरों पर कठोर मौसम की मार
मौसम की चरम स्थितियों के कारण भारत के चाय बागानों में फसलें नष्ट हो रही हैं, जिससे असम और दार्जिलिंग जैसे ताजगी भरे पेय पदार्थों के लिए प्रसिद्ध उद्योग का भविष्य खतरे में पड़ रहा है.
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
चिलचिलाती धूप और मजदूरी को मजबूर
असम के चाय बागान में मजदूरी करने वाली कामिनी कुर्मी के सिर पर छतरी बंधी है, वह अपने दोनों हाथों को खाली रखना चाहती हैं ताकि उन्हें चाय की पत्तियां तोड़ने में कोई मुश्किल ना आए. कुर्मी कहती हैं, "जब बहुत गर्मी होती है, तो मेरा सिर चकराने लगता है और मेरा दिल बहुत तेजी से धड़कने लगता है."
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
मशीन नहीं, इंसानी हाथ
कामिनी कुर्मी उन सैकड़ों महिलाओं में से एक हैं जिन्हें उनकी निपुण उंगलियों के लिए नौकरी पर रखा गया है. अधिकांश पारंपरिक फसलों के लिए मशीन इस्तेमाल होता है जो कुछ ही दिनों में इसे काट लेती हैं. हालांकि मशीनें कामिनी जैसी कुशलता नहीं दिखा सकतीं.
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
चाय बागानों पर मौसम की मार
मौसम की चरम स्थितियों के कारण भारत के चाय बागानों में फसलें नष्ट हो रही हैं, जिससे असम और दार्जिलिंग की मशहूर चाय के उद्योग का भविष्य खतरे में पड़ रहा है, जबकि अनुमान है कि 10 अरब डॉलर प्रति वर्ष से अधिक के वैश्विक व्यापार पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है.
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
तापमान और बारिश के पैटर्न में बदलाव
असम में चाय अनुसंधान संघ की वैज्ञानिक रूपांजलि देब बरुआ कहती हैं, "तापमान और वर्षा के पैटर्न में बदलाव अब कभी-कभार होने वाली असामान्य बातें नहीं रह गई हैं. ये अब सामान्य बात हो गई है." भारतीय चाय उद्योग असम और दार्जिलिंग चाय जैसे पेय पदार्थों के लिए मशहूर है, जिनका नाम उन क्षेत्रों के नाम पर रखा गया है जहां इनकी खेती की जाती है.
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कीटों में बढ़ोतरी
उच्च तापमान और कम बारिश ने भी कीटों के प्रकोप को बढ़ावा दिया है. चाय की पत्तियों का रंग उड़ना, धब्बे पड़ना और भूखे कीट नाज़ुक पत्तियों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे फसल की पैदावार और भी कम हो जाती है और उनकी लागत बढ़ जाती है.
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क्वालिटी कंट्रोल पर जोर
ये महिला कर्मचारी सूखी चाय की पत्तियों को प्रोसेसिंग मशीन में डाल रही है, जिसके बाद उत्पाद की अंतिम गुणवत्ता जांच की जाती है और उसे पैक किया जाता है. पिछले साल सूखे के कारण फसल की पैदावार कम हो गई थी, क्योंकि किसानों ने अपनी चाय के पेड़ों की समय से पहले ही छंटाई कर दी थी और अपने खेतों में ज्यादा कीटनाशकों का इस्तेमाल किया था.
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कम पैदावार, कम निर्यात
भारत की उच्च गुणवत्ता वाली चाय का निर्यात घट रहा है, जबकि आयात लगभग दोगुना हो गया है, साल 2024 में यह 4.53 करोड़ किलो के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गया. कोलकाता की एक प्रमुख एक्सपोर्ट कंपनी के एक अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, "भारत में भी सप्लाई कम होने से वैश्विक आपूर्ति कम हो सकती है और इसके नतीजे में वैश्विक कीमतों में बढ़ोतरी हो सकती है."
तस्वीर: Sahiba Chawdhary/REUTERS
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भारत में ऐसी ही कुछ अन्य पहलों के तहत अत्यधिक गर्मी से निपटने के लिए पहले ही बीमा की शुरुआत हो चुकी है. साल 2024 में अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संस्था ‘क्लाइमेट रेजिलिएंस फॉर ऑल' ने भारत में महिलाओं के लिए काम करने वाली संस्था ‘सेल्फ-इंप्लॉयड विमेंस एसोसिएशन' (सेवा) के साथ मिलकर तापमान बीमा की शुरुआत की थी. यदि तापमान लगातार दो दिनों तक 40 °C से अधिक चला गया तो बीमा का भुगतान स्वचालित रूप से हो जाएगा. इसके तहत राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के 22 जिलों में काम करने वाली 50,000 महिलाओं को अत्यधिक गर्मी पड़ने पर जलवायु-आधारित बीमा योजना का लाभ मिला.
कई देशों में पहले से हैं ऐसे इंश्योरेंस
पैरामीट्रिक बीमा या जलवायु-आधारित बीमा योजना पहले से ही कई देशों में लागू है. खासकर उन जगहों पर जो जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं से बार-बार प्रभावित होते हैं. इसमें वर्ल्ड बैंक और एशियाई विकास बैंक (एडीबी) भी मदद करता है. फिलीपींस एक ऐसा देश है जहां बाढ़, भूकंप और तूफान की घटनाएं होती हैं.
जलवायु परिवर्तन ने इसकी तीव्रता को और बढ़ा दिया है. किसानों और मछुआरों को इसका भारी नुकसान उठाना पड़ता है. फिलीपींस ने साल 2017 में जलवायु‑संबंधित बीमा यानी पैरामेट्रिक कैटस्ट्रॉफी रिस्क इंश्योरेंस की शुरुआत की थी. इसके लिए वर्ल्ड बैंक और यूके अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग ने फिलीपींस की मदद की थी. बाढ़ या तूफान आने पर सीधे मोबाइल पेमेंट के जरिए भुगतान कर दिया जाता है.
मोजांबिक में भी सरकार अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों, वर्ल्ड बैंक और अफ्रीकन डेवलपमेंट बैंक के साथ मिलकर काम करती है. बाढ़ और सूखे के जोखिम को कवर करने के लिए इसी तरह का बीमा उपलब्ध है. जानकर मानते हैं कि बढ़ते जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर इसी तरह की योजना की जरुरत भारत को भी है ताकि किसानों के साथ मछुआरों, छोटे कारोबारियों और ग्रामीणों को भी इसका लाभ मिल सके.