भारत में हर साल औसतन 98 लोग पुलिस की हिरासत में दम तोड़ देते हैं. यह आंकड़ा सरकारी है. मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक, असली आंकड़ा कई गुना ज्यादा है.
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पुलिस हिरासत के ज्यादातर मामलों में दोषी पुलिस वालों के खिलाफ कोई केस दर्ज नहीं होता. दोषी साफ बच निकलते हैं. बीते साल सुप्रीम कोर्ट में भी हिरासत में होने वाली मौतों को मानवता पर धब्बा करार दिया था. लेकिन न तो सरकार चेती है और न ही पुलिस. पुलिस हिरासत में देश भर में होने वाली हर सौ मौतों के लिए औसतन महज दो पुलिस वालों को ही सजा होती है. इन मौतों के लिए अब तक महज 26 पुलिस अधिकारियों को ही सजा हो सकी है.
बढ़ता आंकड़ा
तमाम मानवाधिकार संगठनों की बढ़ती सक्रियता के बावजूद देश में पुलिस हिरासत में होने वाली मौतें थमने की बजाय बढ़ती ही जा रही हैं. कई बेकसूर संदिग्ध भी पुलिस की थर्ड डिग्री के आगे दम तोड़ देते हैं. पुलिस अब भी अंग्रेजों के जमाने के कानून से संचालित होती है. तमाम कवायद के बावजूद अब तक पुलिस में सुधार परवान नहीं चढ़ सके हैं. नतीजतन हिरासत में कैदियों पर इस कदर जुल्म ढाए जाते हैं कि कई लोग उसे सह नहीं पाते. कुछ दिनों के शोरगुल के बाद मामला दब जाता है. अकेले वर्ष 2013 में हिरासत में पांच सौ मौतें हुई थीं. यह स्थिति तब है जबकि खासकर ग्रामीण इलाकों में ऐसे मामले सामने ही नहीं आ पाते.
देश में कुल मिला कर ऐसे जितने मामले सामने आते हैं उनमें से आधे में भी दोषी पुलिस वालों के खिलाफ कोई केस दर्ज नहीं होता. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2001 से 2013 के बीच देश के विभिन्न राज्यों में पुलिस हिरासत में 1275 लोगों की मौत हुई थी. लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़े कुछ और कहानी कहते हैं. आयोग के मुताबिक, वर्ष 2001 से 2010 के बीच एक दशक के दौरान ही 12,727 लोगों की मौत हुई है.
देखिए, प्रताड़ित और जख्मी समाज की कुछ तस्वीरें
प्रताड़ित और जख्मी समाज
दुनिया के अलग अलग हिस्सों में हर पल लोग कई तरह की प्रताड़ना के शिकार हैं. कहीं अपराध का शिकार हुए लोग हैं तो कहीं कानून का पालन करवाने वालों से ही जनता है परेशान.
तस्वीर: Amnesty International
दक्षिण अफ्रीका इस शख्स ने अपने जीवन के बीस साल जेल में सजा काटते हुए बिताए हैं. इसके चेहरे का हर एक टैटू गैंग में उसके ओहदे का प्रतीक है.
तस्वीर: Theodore Afrika
नाइजीरिया के लागोस में इस व्यक्ति को प्रतिबंधित क्षेत्र में अपनी ओकाडा टैक्सी चलाने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया. 2012 में इन टैक्सियों को राजधानी की मुख्य सड़कों पर लाना मना था.
तस्वीर: Olufemi Ajasa
तस्वीर में दिख रही दक्षिण अफ्रीका की करीब 90 साल की इस महिला ने एक रात आंख खुलने पर एक आदमी को अपने उपर चढ़ा हुआ पाया. निकिवे मसांगो ने कहा, "किसी नशीली चीज से मुझे बेहोश कर वह पूरी रात मेरे साथ बलात्कार करता रहा."
तस्वीर: Lungi Mbulwana
एक मोबाइल फोन की चोरी के आरोप में इस आदमी को लोगों ने खूब पीटा. केप टाउन की व्यस्त सड़क पर बुरी तरह पिटने के बाद पुलिस ने इसे अस्पताल पहुंचाया लेकिन इस मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं हुई.
तस्वीर: Lulama Zenzile
केन्या में एक एक्टिविस्ट बोनिफेस "बोनी" मवांगी को उठा कर ले जाते हुए सुरक्षा कर्मी. बोनी का गुनाह यह था कि एक ट्रेड यूनियन अधिकारी के भाषण के दौरान उन्होंने गद्दार! गद्दार! के नारे लगाए थे. इसके लिए उनकी पिटाई हुई और पुलिस हिरासत में रखा गया.
तस्वीर: Evans Habil Kweyu
हिंसा का सामना कर रहे कश्मीर में सुरक्षा बलों की जांच पड़ताल अत्यंत सामान्य है. अक्सर होने वाले हिंसक प्रदर्शनों के बीच किशोरों को भी इस तरह पुलिस तलाशी का सामना करना पड़ता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
आफताब आलम अंसारी को सिरीयल बम हमले के मास्टरमाइंड के रूप में पकड़ा गया और जुर्म कबूल करने के लिए यातना दी गई. अदालत में आरोप साबित नहीं किया जा सका. निर्दोष युवा पर गलत आरोप मढ़ने के लिए अदालत ने पुलिस की खिंचाई की.
तस्वीर: DW/S.A.Rahman
11 जनवरी, 2002 से अमेरिकी नौसेना की ग्वांतानामो जेल के कैदियों के साथ अमानवीय बर्ताव की खबरें आती रही हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इसे बंद करने के इरादे की घोषणा बहुत पहले ही कर दी थी लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो सका है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Shane T. McCoy/US Navy
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सही तस्वीर नहीं
एशियन सेंटर फार ह्यूमन राइट्स की ओर से जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसे मामलों में आंकड़े सही तस्वीर नहीं पेश करते. उसका कहना है कि इन आंकड़ों में सशस्त्र बलों के हिरासत में होने वाली मौतें शामिल नहीं हैं. इसके अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ऐसी कई मौतों को दर्ज नहीं करता. कई मामलों में इसे प्राकृतिक व स्वास्थ्यजनित कारणों से हुई मौत करार दे दिया जाता है.
हिरासत में होने वाली मौतों के मामले में महाराष्ट्र का स्थान सबसे ऊपर है. उसके बाद आंध्र प्रदेश व गुजरात का नंबर है. बड़े राज्यों में से हरियाणा में हिरासत में होने वाली हर मौत के मामले में केस दर्ज किया गया. मणिपुर, बिहार व झारखंड जैसे राज्यों में भी हर मामले में केस दर्ज हुआ, लेकिन महाराष्ट्र में महज 11.4 फीसदी मौतों के मामले में ही दोषी पुलिस वालों के खिलाफ केस दर्ज हुआ. पश्चिम बंगाल में यह आंकड़ा 16.5 फीसदी है.
फिलिपींस की जेल की दर्दनाक तस्वीरें
जेल की दर्दनाक तस्वीरें
फिलीपीन्स के राष्ट्रपति ने देश से नशीली दवाओं के सफाये की कसम खाई है. बहुत अच्छी बात है. लेकिन देखिए, उस सफाए के नाम पर क्या क्या हो रहा है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Celis
नया राज, नई बात
फिलीपीन्स के नए राष्ट्रपति रोबेर्तो दुतेर्ते ने नशीली दवाओं का व्यापार चलाने वाले गैंग्स के खिलाफ जंग छेड़ दी है. और यह जंग कागजी नहीं है. जमीन पर दिख रही है. हजारों लोगों को जेल में डाल दिया गया है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Celis
अमानवीय
लेकिन जिन लोगों को जेल में डाला गया है, उनकी हालत देखकर कुछ अच्छा नहीं लग रहा है. मनीला के पास केजोन जेल छह दशक पहले बनी थी. 800 लोगों की इस जेल में फिलहाल 3800 कैदी हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Celis
खुली छत के नीचे
कैदियों को सोने के लिए जगह नहीं मिल रही है. वे जेल के बीचोबीच बने बास्किटबॉल कोर्ट में सो रहे हैं. 130 लोगों के लिए एक टॉयलेट है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Celis
पागलपन के हालात
कैदी सोते वक्त पांव सीधे तक नहीं कर पा रहे हैं. एक कैदी मारियो डि ने कहा कि ज्यादातर लोग पागल हो जाएंगे. लोग बढ़ते जा रहे हैं, जगह घटती जा रही है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Celis
पैसा तो है नहीं
केजोन सिटी जेल की एक सेल में 20 कैदियों की जगह है लेकिन रह रहे हैं 120. खाने का बजट है प्रति कैदी एक डॉलर.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Celis
बीमारियां
सफाई नहीं है तो नतीजा बीमारियों के रूप में दिख रहा है. हालत खराब है तो आपस में झगड़े भी होते रहते हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Celis
क्रूर दमन
दमन बहुत क्रूरता तरीके से किया जा रहा है. अब तक 420 लोगों को गोली मारी जा चुकी है, जिन पर ड्रग तस्करी के आरोप थे.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Celis
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कानून का अभाव
लोकसभा ने 2010 में पुलिस हिरासत में अत्याचार रोकने के लिए प्रीवेंशन आफ टॉर्चर बिल पारित किया था. इसकी मियाद खत्म हो गई है. इस विधेयक में भी कई खामियां थीं. मसलन ऐसे मामलों में छह महीने के भीतर ही शिकायत दर्ज करानी होती थी और पुलिसिया अत्याचार की व्याख्या भी साफ नहीं थी. लेकिन विपक्ष ने इसे शीघ्र पारित करने पर जोर दिया था. दरअसल, यातना पर संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन के प्रस्तावों को समर्थन के सिलसिले में इसे हड़बड़ी में तैयार किया गया था.
पुलिस हिरासत में अत्याचार और मौत के बढ़ते मामलों को ध्यान में रखते हुए बीते साल जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्य सरकारों को मानवाधिकार आयोगों के गठन का निर्देश दिया था ताकि दोषी पुलिस वालों को सजा दिलाई जा सके. न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर और न्यायमूर्ति आर. भानुमती की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा था कि आतंकवाद से निपटने के लिए सरकारी आंतकवाद सही तरीका नहीं है. इससे आतंकवाद को और शह मिलेगा. अदालत ने ऐसे मामलों में दोषी पुलिस वालों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज करने का भी निर्देश दिया था. बावजूद इसके हालात जस के तस हैं.
मानवाधिकारों का कड़वा सच जानना है तो ये तस्वीरें देखें
मानवाधिकारों का कड़वा सच
संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य राष्ट्रों के लिए मानवाधिकारों के वैश्विक घोषणापत्र में जिन अधिकारों का वर्णन है, वे वर्तमान समय में दुनिया के कई हिस्सों में ना के बराबर दिखाई दे रहे हैं...
तस्वीर: Roberto Schmidt/AFP/Getty Images
अभिव्यक्ति की आजादी (अनुच्छेद 18,19,20)
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में 350 से ज्यादा पत्रकार इस समय जेल में हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
समानता का अधिकार (अनुच्छेद 1)
कॉन्गो की सोने की खानों में जबरदस्ती काम में ढकेले गए इस बच्चे की सूरत मानवाधिकारों पर सवालिया निशान लगाती है.
तस्वीर: picture alliance/AFP Creative/Healing
नागरिक अधिकार (अनुच्छेद 2)
म्यांमार के अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति को देखकर यह बात कहना मुश्किल है. सभी मानवों को उनकी जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म या ऐसी किसी भी विभिन्नता के बावजूद समान नागरिक अधिकार मिलने चाहिए.
तस्वीर: Reuters
जीवन और आजादी का अधिकार (अनुच्छेद 3,4,5)
किसी को भी गुलाम बनाकर रखना मानवाधिकार का हनन है. किसी के साथ भी क्रूरता या दंडनीय बर्ताव करना अमानवीय है. भारत की इस कपड़ा मिल में इस बच्चे के मानवाधिकार कुछ ऐसे कारखानों की भेंट चढ़ रहे हैं.
तस्वीर: picture-alliance/Godong
साथी चुनने का अधिकार (अनुच्छेद 16)
यूनीसेफ के मुताबिक दुनिया भर में 70 करोड़ से ज्यादा महिलाएं अपनी मर्जी के खिलाफ दांपत्य संबंध में जी रही हैं. ये है आठ साल की उम्र में शादी के बंधन में बांधा गया एक यमनी जोड़ा.
तस्वीर: Stephanie Sinclair, VII Photo Agency for National Geographic magazine/AP/dapd
सम्माननीय कार्य करने का अधिकार (अनुच्छेद 23, 24)
संयुक्त राष्ट्र के श्रम संगठन (आईएलओ) के मुताबिक इस समय 20 करोड़ से ज्यादा लोगों के पास नौकरी नहीं है. फिर घोषणापत्र में दिए गए उनके काम करने के अधिकार का क्या करें.
तस्वीर: DW
गरिमा के बारे में (अनुच्छेद 25)
दुनिया भर में दो अरब से ज्यादा लोग कुपोषण से जूझ रहे हैं, जबकि 80 करोड़ भुखमरी के शिकार हैं. हर किसी को जीवन की गरिमा को बरकरार रखते हुए भोजन, आश्रय, स्वास्थ्य सुविधाएं और सामाजिक सुविधाएं पाने का हक बताया गया है.
तस्वीर: Roberto Schmidt/AFP/Getty Images
शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 26)
कहां तो प्राथमिक शिक्षा को जरूरी और मुफ्त बनाने का मकसद था. जबकि यूनेस्को के मुताबिक आज भी दुनिया भर में 78 करोड़ लोग लिख पढ़ नहीं सकते.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
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सुधार कैसे
मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि हिरासत में होने वाली मौतों के मामलों में किसी कार्रवाई का डर नहीं होना संख्या में वृद्धि की बड़ी वजह है. ऐसे मामलों में संघ की भावना भी काम करती है और जेलकर्मी अपने साथी के अपराध की न तो शिकायत करते हैं और न ही गवाही देते हैं. एक मानवाधिकार संगठन के संयोजक बी.सी. मजुमदार कहते हैं, "पुलिस वालों को कानून का कोई खौफ नहीं होता. वह खुद को कानून से ऊपर समझते हैं. इसी मानसिकता की वजह से ऐसी घटनाओं पर अंकुश नहीं लग पा रहा है."
मानवाधिकार संगठनों और कार्यकर्ताओं का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद राज्य सरकारें उसके पालन में कोताही बरतती हैं. ऐसे ज्यादातर मामलों में या तो दोषी पुलिस वालों के खिलाफ मामले ही दर्ज नहीं होते या फिर चार्जशीट ऐसी कमजोर होती है कि ऐसे मामले एकाध पेशी के बाद ही खारिज हो जाते हैं. उनका कहना है कि ऐसी मौतों के लिए पुलिस की जवाबदेही तय करनी होगी और कानूनों को कड़ाई से लागू करना होगा. वरना हिरासत में होने वाली मौतें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चेहरे पर काला धब्बा बनी रहेंगी.