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भारत के लिए अभी नहीं तो कभी नहीं वाली स्थिति

मुरली कृष्णन
५ मार्च २०२२

संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि अगर भारत 2030 तक कड़े से कड़ा कदम नहीं उठाता है तो जलवायु परिवर्तन के नतीजे उस पर बहुत भारी पड़ने वाले हैं. क्या भारत सरकार इस चुनौती से निपटने को तैयार है?

उत्तराखंड में अचानक आई बाढ़
तस्वीर: DW

संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर गठित सरकारों के पैनल (आईपीसीसी) की सबसे ताजा रिपोर्ट में भारत को लेकर निराशानजनक तस्वीर पेश की गई है. उसने चेतावनी दी है कि भारत अगले दो दशकों में जलवायु परिवर्तन से होने वाली बहुत सारी तबाहियों का सामना करने को विवश हो सकता है. रिपोर्ट के मुताबिक अगर 2030 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भारी कटौती नहीं की गई तो जलवायु परिवर्तन जनित विनाश को रोक पाना अधिकारियों के लिए संभव नहीं होगा.

लीगल इनिशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एंवायरेन्मेंट (लाइफ) नाम के एक संगठन से जुड़े वकील रित्विक दत्त ने डीडब्लू को बताया, "आईपीसीसी रिपोर्ट साफतौर पर दिखाती है कि बहुत सारे जलवायु और गैरजलवायु खतरे एक दूसरे से जुड़ेंगे और नतीजे में तमाम सेक्टरों और क्षेत्रों में तमाम किस्म के खतरों की गति को और तेज कर देंगे. भारत के सामने ये खास किस्म की चुनौतियां होंगी.”

उत्तराखंड में 2021 की बाढ़ के दौरान मची तबाहीतस्वीर: DW

स्थानीय समुदायों के बीच अपने काम के लिए 2021 का राइट लाइवलीहुड अवार्ड जीतने वाले रित्विक दत्त कहते हैं, "भारत सरकार के लिए ये रिपोर्ट खतरे की घंटी की तरह है, उसे मुस्तैदी से निर्णय के सभी स्तरों में जलवायु चिंताओं को मुख्य जगह देनी होगी.” 67 देशों के वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की ये रिपोर्ट तैयार की है. इनमें से नौ भारत से हैं.

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क्या भारत जलवायु परिवर्तन के लिहाज से ढल पाएगा?

नई दिल्ली स्थित अंतरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान की अदिति मुखर्जी ने डीडब्लू को बताया, "रिपोर्ट बताती है कि इस तरह के अनुकूलन के लिए पानी की केंद्रीय भूमिका होती है. जैसे, बहुत सारे अनुकूलन अभी पानी से जुड़े नुकसानों की प्रतिक्रियास्वरूप हो रहे हैं. दूसरी ओर दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा पानी से जुड़े प्रभावों के जरिए जलवायु परिवर्तन की मार को झेल रहा है तो इस रूप में भी पानी, पूरी समस्या का एक हिस्सा बना है. लेकिन दूसरी ओर पानी, समाधान का भी एक हिस्सा है.” 

रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की 40 फीसदी से ज्यादा आबादी 2050 तक पानी की किल्लत से जूझ रही होगी. और उसी दौरान देश के तटीय इलाके, जिनमें मुंबई जैसे बड़े शहर भी शामिल हैं, समुद्र के बढ़ते जलस्तर से प्रभावित हो रहे होंगे. गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी बेसिनों में और बाढ़ आएगी और उसी दौरान सूखे और पानी की किल्लत से फसल उत्पादन भी गिरेगा.

भारत के कई इलाकों में सूख रहा है भूजलतस्वीर: DW

सेंटर फॉर साइंस ऐंड एंवायरेन्मेंट (सीएसई) की निदेशक सुनीता नारायण ने डीडब्लू को बताया, "भारत के लिए ये अस्तित्व का संकट है. इससे निपटने के लिए अवसर की जो खिड़की मिली है वो भी बंद हो रही है.”

शहरी आजीविका पर असर

रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि जलवायु परिवर्तन से भारत के शहरी इलाकों में स्वास्थ्य, आजीविका और बुनियादी ढांचा पहले ही प्रभावित हो चुका है. रिपोर्ट के मुताबिक 2015 और 2020 के बीच शहरों में 35 फीसदी वृद्धि हुई है. अगले 15 साल में शहरों में कम से कम 60 करोड़ और निवासी हो जाएंगे.

इंडियन इन्स्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटियिरोलॉजी में जलवायु वैज्ञानिक रॉक्सी मैथ्यू कॉल ने डीडब्लू को बताया, "जलवायु परिवर्तन की विभिन्न चुनौतियों से निपटने के लिए सामूहिक कार्रवाई की दरकार है. सरकारें, निजी सेक्टर, और स्थानीय समुदाय को खतरे कम करने के लिए एक साथ मिलकर काम करना होगा. हमें फौरी उपायों या तात्कालिक समाधानों से बचना होगा. असहायता और संकट के मूल कारणों को कम करने के लिए हमें रूपांतरण के स्तर पर खुद को ढालने की जरूरत है, इसके लिए तमाम प्रणालियों और व्यवस्थाओं को गैरटिकाऊ लक्ष्यों से दूर हटाना होगा.”

कहीं बाढ़ तो कहीं भीषण सूखातस्वीर: DW

भारत के जलवायु लक्ष्य

नवंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्लासगो जलवायु बैठक में कहा था कि भारत 2030 तक अपनी गैर-ईंधन ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावॉट तक बढ़ाकर अपनी 50 फीसदी ऊर्जा जरूरतें पूरी कर सकता है. मोदी ने ये भी कहा कि भारत 2030 तक अपने कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में भी कटौती करेगा, अपनी अर्थव्यवस्था में कार्बन भागीदारी को 2030 तक 45 फीसदी तक कम कर देगा और 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन हासिल कर लेगा.

भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने आईपीसीसी रिपोर्ट का स्वागत करते हुए मीडिया को बताया कि सरकार ऊर्जा सेक्टर के उत्सर्जनों में कटौती के लिए कदम उठा रही है. उन्होंने कहा, "पर्यावरणीय वार्ताएं ‘एक हाथ ले एक हाथ दे' जैसा मामला नहीं होती हैं- वे दुनिया को बचाने के बारे में होती हैं. विकसित देशों को अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए और जानना चाहिए कि अतीत में वे क्या कर गुजरे हैं.”

आईपीसीसी की अगली रिपोर्ट अप्रैल में आएगी. उसमें जलवायु संकट से निपटने और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के उपायों से जुड़े परामर्श दिए जाएंगे. सीएसई निदेशक सुनीता नारायरण कहती हैं, "भारत को अपने हित में काम करना होगा. हमारी जलवायु रणनीति सह-लाभों पर आधारित होनी चाहिए. हमें जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपाय करने चाहिए क्योंकि ये दुनिया के लिए ही नहीं, हमारे अपने लिए भी यही बेहतर होगा.”

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