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नहीं थम रहा नवजातों की मौत का सिलसिला

प्रभाकर मणि तिवारी
२६ जनवरी २०१७

भारत में बीते 25 वर्षों के दौरान नवजात शिशुओं की मृत्युदर में 53 फीसदी की गिरावट जरूर आई है लेकिन भारत पांच साल बाद भी वर्ष 2012 तक के लिए तय लक्ष्य हासिल नहीं कर सका है.

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तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Kanojia

भारत संयुक्त राष्ट्र की पहल पर तय मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स की तहत तय लक्ष्य हासिल करने से भी बहुत दूर है. सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) की ओर से हाल में जारी ताजा आंकड़ों से इसका खुलासा हुआ है.

ताजा आंकड़े

वर्ष 2015 के दौरान देश में जन्मे हर एक हजार नवजातों में से 37 की मौत हो गई थी. सरकार ने उस साल के लिए 39 प्रति हजार का लक्ष्य रखा था. इस लिहाज से देखें तो इसे कामयाबी कहा जा सकता है. लेकिन भारत ने संयुक्त राष्ट्र के साथ मिल कर 2015 मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स के तहत इस मृत्युदर को घटा कर 27 फीसदी करने का जो लक्ष्य तय किया था उससे यह तादाद 10 ज्यादा है. केंद्र ने वर्ष 2012 के लिए इस आंकड़े को घटा कर 30 प्रति हजार करने का जो लक्ष्य तय किया था उसे हासिल करने में भी अब तक कामयाबी नहीं मिल सकी है.

कम और मध्य आयवर्ग वाले देशों में वर्ष 2015 के दौरान नवजातों की मृत्युदर औसतन 35 रही जबकि उत्तर अमेरिकी देशों और यूरोपीय जोन के 39 देशों में यह क्रमशः पांच और तीन रही. इससे नवजातों की मृत्युदर के मामले में भारत की स्थिति का पता चलता है. किसी देश के राष्ट्रीय स्वास्थ्य का पैमाने मानी जाने वाली नवजात मृत्युदर के मामले में भारत के कई राज्यों के आंकड़ों में भारी अंतर भी सामने आया है. छोटे या साक्षर राज्यों में यह औसत कई बड़े व धनी देशों से बेहतर रहा जबकि गरीब राज्यों में यह औसत कई गरीब व पिछड़े देशों के मुकाबले ज्यादा रहा. इससे देश के विभिन्न हिस्सों में उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं में बड़े पैमाने पर व्याप्त असमानता का पता चलता है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते 25 सालों में नवजातों की मृत्युदर में आने वाली गिरावट की कई वजह हैं. इनमें सरकार की ओर से की गई विभिन्न योजनाओं के अलावा स्वास्थ्य केंद्रों में बढ़ते प्रसव, गर्भवती महिलाओं को आयरन व फोलिक एसिड के टेबलेट मुहैया कराना और वर्ष 1991 में शुरू आर्थिक उदारीकरण के दौर के बाद लोगों की आय में वृद्धि और रहन-सहन बेहतर होना शामिल है.

गोवा और मणिपुर बेहतर

देश के 36 राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में से नवजातों की मृत्यु के मामले में गोवा व मणिपुर जैसे छोटे राज्यों का प्रदर्शन बेहतर रहा है. वहां प्रति एक हजार शिशुओं में नौ की मौत हुई. विश्व बैंक की ओर से जारी आंकड़ों में कहा गया है कि इन दोनों राज्यों में नवजातों की मृत्युदर का औसत चीन, बुल्गारिया और कोस्टा रिका के बराबर रहा. इसके उलट मध्यप्रदेश में यह दर 50 प्रति एक हजार रही जो इथियोपिया और घाना जैसी अफ्रीकी देशों से भी बदतर है. दूसरी ओर, उत्तराखंड देश के ऐसे राज्य के तौर पर उभरा है जहां इस दर में मामूली ही सही लेकिन वृद्धि दर्ज की गई है. वर्ष 2014 के दौरान राज्य में यह दर 33 प्रति हजार थी जो वर्ष 2015 में बढ़ कर 34 हो गई. जहां तक मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स का लक्ष्य हासिल करने का सवाल है तो इस मामले में तमिलनाडु का प्रदर्शन सबसे बेहतर रहा है. उसे वर्ष 2015 में नवजातों की मृत्युदर घटा कर 19 प्रति हजार करने में कामयाबी मिल गई. केरल में यह दर पहले से ही कम रही है. वर्ष 2015 में वहां प्रति एक हजार में महज 12 नवजातों की मौत हुई थी. वैसे, वर्ष 1990 में राज्य में यह दर महज 17 प्रति हजार थी.

लड़कियों की मृत्युदर ज्यादा

आकड़ों से साफ है कि देश में मरने वाले नवजात शिशुओं में लड़कों के मुकाबले लड़कियों की तादाद ज्यादा है और समय के साथ इन दोनों के आंकड़ों में कोई खास अंतर नहीं आया है. नवजात लड़कों की मृत्युदर जहां 35 प्रति एक हजार है वहीं लड़कियों के मामले में यह आंकड़ा 39 है. विशेषज्ञों ने इसकी प्रमुख वजह गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और खासकर ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी बताया है.

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि गरीब परिवारों में जन्मे बच्चों की मौत की दर धनी परिवारों के नवजातों के मुकाबले ज्यादा है. इसकी सबसे बड़ी वजह स्वास्थ्य सुविधाओं तक गरीब तबके की पहुंच नहीं होना है. इस तबके की महिलाओं के गर्भवती रहने के दौरान और प्रसव के बाद उनकी सही देखभाल नहीं हो पाती. इससे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की खामियों का पता चलता है. वर्ष 2005 में शुरू राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ने वर्ष 2012 तक नवजातों की मृत्युदर घटा कर 30 प्रति एक हजार करने का लक्ष्य रखा था. लेकिन तय समयसीमा के पांच साल बाद भी वह लक्ष्य हासिल नहीं हो सका है. एक विशेषज्ञ डॉ. रमेश कोठारी कहते हैं, "देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का आधारभूत ढांचा मजबूत किए बिना नवजातों की मृत्युदर कम करने में कोई सहायता नहीं मिलेगी. वैसी स्थिति में वर्ष 2020 तक सबके लिए स्वास्थ्य का नारा बेमानी ही साबित होगा."

 

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