भारत में ई-लर्निंग ने कोरोना के कारण तेजी पकड़ी है. सक्षम परिवार के बच्चे इस तक तो पहुंच बना लेते हैं लेकिन गरीब परिवार अपने बच्चों को ई-लर्निंग के तहत शिक्षा देने को अतरिक्त बोझ समझता है.
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कोविड महामारी ने स्कूली बच्चों की पढ़ाई तक पहुंच को काफी हद तक नुकसान पहुंचाया. कोरोना लॉकडाउन के कारण स्कूलों की पढ़ाई ऑनलाइन होने लगी और सक्षम परिवार के मुकाबले उन परिवारों को ज्यादा कठिनाई का सामना करना पड़ा जिनके पास स्मार्ट फोन या कंप्यूटर नहीं थे. इंटरनेट की सीमित पहुंच ने भी गरीब बच्चों को शिक्षा पाने में बाधा पहुंचाई. शहरों के मुकाबले गांवों में स्थिति ज्यादा खराब रही जहां पहले से ही स्कूल के बुनियादी ढांचे उतने अच्छे नहीं हैं.
शिक्षा आपातकाल पर राष्ट्रीय गठबंधन (एनसीईई) द्वारा अक्टूबर 2021 और जनवरी 2022 के बीच किए गए एक सर्वेक्षण में माता-पिता की राय के आधार पर पाया गया कि संपन्न परिवारों के बच्चों और निम्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चों के बीच सीखने की खाई चौड़ी हो गई है.
क्राइज ऑफ एंगुइश नाम की रिपोर्ट ने विभिन्न कारकों के लिए अंतर को जिम्मेदार ठहराया- ऑनलाइन कक्षाओं तक असमान पहुंच, माता-पिता की अपने बच्चों को मार्गदर्शन करने की अंतर क्षमता और निजी ट्यूशन के प्रभाव. रिपोर्ट के लिए 512 घरों का सर्वेक्षण किया गया था. कर्नाटक से 100, तेलंगाना से 212 और तमिलनाडु से 200 घर. ज्यादातर परिवार समाज के वंचित वर्गों से थे.
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डिजिटल पढ़ाई के करीब कैसे पहुंचे गरीब छात्र
दिल्ली के न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी की एक बस्ती के 15 साल के छात्र प्रवीण की भी पढ़ाई कोरोना महामारी के कारण प्रभावित हुई. वह किसी तरह से मोबाइल की मदद से पढ़ तो रहा था लेकिन स्कूल से शारीरिक दूरी और परिवार पर ट्यूशन फीस का भारी बोझ पड़ रहा था. प्रवीण को हाल में ही में एक गैर लाभकारी संगठन की मदद से मुफ्त में ऑनलाइन लर्निंग सब्सक्रिप्शन मिला है. नौवी कक्षा में पढ़ने वाला प्रवीण कहता है, "मैं पिछले तीन महीने से ऑनलाइन लर्निंग प्लेटफॉर्म की मदद से पढ़ाई कर रहा हूं. इससे काफी मदद मिल रही है. पहले ट्यूशन के लिए पैसे खर्च करने पड़ते थे अब इसकी जरूरत ही नहीं पड़ रही है."
दिल्ली में गैर लाभकारी संगठन नोबल सिटीजन फाउंडेशन ने हाल ही में कुछ ऐसे बच्चों को ऑनलाइन लर्निंग फ्री सब्सक्रिप्शन वितरित किए जो इनको खरीदने में सक्षम नहीं थे. फाउंडेशन का कहना है कि उसने जनवरी 2022 से इस कार्यक्रम के तहत 523 बच्चों को यह सुविधा दी है और इस साल के अंत तक 10 हजार बच्चों तक इसे पहुंचाने का लक्ष्य है. फिलहाल संगठन दिल्ली और बिहार में गरीब बच्चों के बीच काम कर रहा है और अगले महीने से उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में इसी तरह की योजना शुरू करने की तैयारी में है.
जर्मनी में है बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने का चलन
भारत के शहरों में ज्यादातर लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना पंसद करते हैं. लेकिन जर्मनी में ठीक इसका उल्टा है. जानिए कैसा है यहां का स्कूल सिस्टम.
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स्कूल जाना जरूरी
जर्मनी में बच्चे छह साल की उम्र से स्कूल जाना शुरू करते हैं. उससे पहले तक वे किंडरगार्टन जा सकते हैं. 6 से 15 की उम्र तक स्कूल जाना अनिवार्य है. बच्चों को स्कूल ना भेजने पर माता पिता या अभिभावकों को सजा हो सकती है. होम स्कूलिंग यानी बिना स्कूल के घर से ही पढ़ाई करने पर मनाही है. हर राज्य के नियम थोड़े बहुत अलग हैं.
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प्राथमिक शिक्षा
स्कूल का पहला दिन बच्चों के लिए खास होता है. सभी बच्चों को टॉफी, चॉकलेट, पेन, पेंसिल और अन्य काम की चीजों से भरा एक उपहार मिलता है. अगले दिन संजीदगी से पढ़ाई शुरू होती है. अधिकतर राज्यों में बच्चे चार सालों तक प्राइमरी स्कूल में जाते हैं यानी पहली से चौथी कक्षा तक लेकिन बर्लिन में प्राथमिक शिक्षा छह साल तक चलती है.
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स्कूल का चयन
चौथी क्लास के बाद बच्चों का स्कूल बदलता है. वे किस स्कूल में जाएंगे ये इस पर निर्भर करता है कि उनके टीचर ने उनके लिए क्या तय किया है. हालांकि नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया राज्य में माता पिता टीचर की सिफारिश को नजरअंदाज कर सकते हैं. बच्चा किस तरह के स्कूल में जाता है, इससे तय होता है कि वह आगे चल कर यूनिवर्सिटी की डिग्री लेगा या फिर वोकेशनल कोर्स करेगा.
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जिमनेजियम
शब्द बिल्कुल वैसे ही लिखा जाता है लेकिन इसका कसरत करने वाले जिम से कोई लेना देना नहीं है. इस तरह के माध्यमिक स्कूल में बच्चे यूनिवर्सिटी जाने की तैयारी करते हैं. 12वीं (और कुछ मामलों में 13वीं) क्लास के बाद एक खास किस्म की परिक्षा देनी होती है, जिससे यूनिवर्सिटी में दाखिले की योग्यता तय होती है. इस स्कूल में बच्चों को विज्ञान, गणित, दर्शनशास्त्र और खेल, सब विषय पढ़ने होते हैं.
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दूसरा रास्ता
जो बच्चे जिमनेजियम (जर्मन में गिमनाजियम) में दाखिला नहीं ले पाते या नहीं लेना चाहते उनके लिए रेआलशूले का विकल्प होता है. पांचवीं से दसवीं क्लास तक ये लगभग दूसरे स्कूल वाले ही विषय पढ़ते हैं लेकिन स्तर में थोड़ा अंतर होता है. बाद में अगर ये बच्चे चाहें तो यूनिवर्सिटी में दाखिले की परिक्षा भी दे सकते हैं. इसे आबीटूयर या फिर स्कूल लीविंग एग्जाम कहा जाता है.
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तीसरा रास्ता
एक अन्य विकल्प है हाउप्टशूले. इन बच्चों को भी शुरुआत में लगभग वही विषय पढ़ाए जाते हैं लेकिन बेहद धीमी गति से. यहां से निकलने वाले बच्चे आगे चल कर वोकेशनल ट्रेनिंग करते हैं. जर्मनी में वोकेशनल ट्रेनिंग पर काफी जोर दिया जाता है. हालांकि बाद में अपना मन बदलने वाले छात्रों के लिए आबीटूयर का रास्ता यहां बंद नहीं होता है.
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चौथा विकल्प
कुछ स्कूल ऐसे होते हैं जो पहले तीनों विकल्पों को एक साथ ले कर चलते हैं. इन्हें गेजाम्टशूले कहा जाता है. 1960 और 70 के दशक में जर्मनी में इनका चलन बढ़ा. यहां छात्र चाहें तो 13वीं तक पढ़ाई करें, या फिर 9वीं या 10वीं के बाद ही किसी तरह की ट्रेनिंग ले कर नौकरी करना शुरू कर सकते हैं. इस स्कूल की मांग इतनी है कि 2018 में कोलोन शहर को एक हजार अर्जियां खारिज करनी पड़ी थीं.
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कोई गारंटी नहीं
पांचवीं और छठी क्लास बच्चों के लिए एक टेस्ट जैसी होती है. इन दो सालों में वे जैसा प्रदर्शन करते हैं, उस पर निर्भर करता है कि उनके टीचर उन्हें उसी स्कूल में रहने देते हैं या फिर स्कूल बदलने की सिफारिश करते हैं. ऐसे में होनहार बच्चों को जिमनेजियम का मौका मिल सकता है. लेकिन इसका मतलब यह भी है कि डट कर पढ़ाई ना करने पर रेआलशूले जाना पड़ सकता है.
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वोकेशनल स्कूल
इन्हें बेरूफ्सशूले कहा जाता है यानी वह स्कूल जहां कोई पेशा सीखा जा सके. अकसर ये स्कूल इंडस्ट्री या ट्रेड यूनियन के साथ मिल कर काम करते हैं. ऐसे में बच्चे रेआलशूले या हाउप्टशूले से निकलने के बाद पेशेवर ट्रेनिंग ले सकते हैं. वे किसी फैक्ट्री में काम करना सीख सकते हैं या फिर हेयर ड्रेसर या मेक अप आर्टिस्ट भी बन सकते हैं.
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विकलांग बच्चों के लिए
विशेष जरूरतों वाले बच्चों के लिए अलग से स्कूल होते हैं और अगर वे चाहें तो सामान्य स्कूल में भी दाखिला ले सकते हैं. नेत्रहीन या व्हीलचेयर का इस्तेमाल करने वाले बच्चे अकसर फोर्डरशूले या फिर जौंडरशूले में जाते हैं. हालांकि कुछ आलोचकों का मानना है कि इससे भेदभाव बढ़ता है लेकिन दूसरी ओर इन विशेष स्कूलों में उनकी जरूरतों का ख्याल भी बेहतर रूप से रखा जा सकता है.
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नामों का झोल
हर राज्य में कुछ ना कुछ अलग होता है. इन सब विकल्पों के अलावा भी कुछ विकल्प हैं. कहीं हाउप्टशूले और रेआलशूले का मिलाजुला रूप ओबरशूले के रूप में मौजूद है, तो कहीं मिटलशूले और गेमाइनशाफ्ट्सशूले भी हैं. जर्मन शब्द शूले का मतलब होता है स्कूल. इतने तरह के स्कूल हैं कि कई बार यहां रहने वाले लोगों के लिए भी ये उलझन का सबब बन जाते हैं.
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वक्त भी तय नहीं
किसी स्कूल की 12 बजे ही छुट्टी हो जाती है, तो कोई 4 बजे तक खुला रहता है. किसी में डे बोर्डिंग का विकल्प होता है, तो किसी में नहीं होता. ऐसे में कामकाजी माता पिता के लिए दिक्क्तें बढ़ जाती हैं. डे बोर्डिंग में बच्चों को खाना भी मिल जाता है और वे वहीं बैठ कर अपना होमवर्क भी पूरा कर सकते हैं. इसके लिए अतिरिक्त शुल्क लगता है. अधिकतर स्कूलों की फीस ना के बराबर होती है.
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तरह तरह के स्कूल
ये था सरकारी स्कूलों का ढांचा. अधिकतर लोग इन्हीं को चुनते हैं. लेकिन इनके अलावा प्राइवेट स्कूल भी हैं. कुछ लोग मॉन्टेसरी को पसंद करते हैं, तो कुछ वॉल्डोर्फ को. साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्कूल भी होते हैं, जहां ज्यादातर पढ़ाई अंग्रेजी में होती है. कुछ लोग अपने बच्चों को बोर्डिंग में दूसरे शहर भी भेजते हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि ये बेहद महंगे होते हैं.
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आसान होती पढ़ाई
कार्यक्रम के बारे में बताते हुए फाउंडेशन के निदेशक साहिल कौसर कहते हैं, "हम भारत के अग्रणी ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म की मुफ्त सदस्यता देते हैं और इसमें कक्षा 6 से लेकर 10 तक के बच्चों को सीबीएसई, आईसीएसई और राज्य बोर्ड के मुताबिक पढ़ने का अवसर मिलता है. अंग्रेजी, हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा हासिल करने की सुविधा दी जाती है."
13 साल के हमजा यूसुफ को भी इस कार्यक्रम के तहत मुफ्त सब्सक्रिप्शन मिला है. यूसुफ कहता है, "ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म पर जो वीडियो होते हैं वह अच्छी क्वालिटी के होते हैं, जिससे पढ़ाई अच्छी होती है. एनीमेशन वाले वीडियो से विषय जल्दी से समझ आ जाता है."
यूसुफ का कहना है कि इस कार्यक्रम के जरिए उसकी अंग्रेजी में सुधार हुआ है और वो कहता है उससे आगे पढ़ने में और मदद मिलेगी.
साहिल का कहना है कि सबसे बड़ी समस्या गरीब परिवारों की यह कि उनके पास एक ही स्मार्ट फोन है और ऐसे परिवार के बच्चे उसका इस्तेमाल तब ही कर पाते हैं जब उनके माता-पिता काम से वापस घर लौटते हैं. इसी कारण ऐसे से बच्चे एनजीओ की पहल का बहुत कम लाभ उठा पाते हैं.
ई-लर्निंग के तहत ऐसी डिजिटल ऑडियो और वीडियो सामग्री तैयार की जा रही है, जिससे पढ़ाना और पढ़ना दोनों सहज और मजेदार बने. भारत में कोरोना लॉकडाउन के बाद ई-लर्निंग का चलन बढ़ा है और अब तो ई-लर्निंग सेवा देने वाले अपने कार्यक्रम को विस्तार भी दे रहे हैं और बच्चे स्कूल के बाद भी इन प्लेटफॉर्म की मदद से अपनी समझ को बढ़ा रहे हैं.
नोबल सिटीजन फाउंडेशन के अध्यक्ष जेस्टिन एंथनी कहते हैं, "कोविड-19 ने विशेष रूप से हाशिए पर खड़े समुदायों के बच्चों की शिक्षा पर असर डाला है. एक संगठन के रूप में हम इस अंतर को पाटने के लिए प्रतिबद्ध हैं. ऑनलाइन शिक्षा के बढ़ते चलन के साथ हम उम्मीद करते हैं कि हर बच्चा जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमसे जुड़ा है, उसे शिक्षा का अधिकार हासिल हो."
ई-लर्निंग का एक और फायदा यह कि यह शिक्षा की लागत को बहुत कम करता है और इसे उन छात्रों के लिए किफायती बनाता है जो आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों से संबंधित हैं. इसके साथ बच्चे देश के किसी भी कोने से ई-लर्निंग कार्यक्रम से महज मोबाइल के साथ जुड़ सकते हैं.
असली जिंदगी का नायकः सड़क को बनाया स्कूल
दीप नारायण नायक पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव जोबा अट्टापाड़ा गांव में स्कूल टीचर हैं. वह नाम से ही नहीं, जज्बे से भी नायक हैं.
लॉकडाउन के कारण स्कूल बंद हो गए तो दीप नायारण नायक को अपने छात्रों के पीछे छूट जाने की चिंता हुई. उन्होंने बच्चों तक पहुंचने का तरीका निकाला. उन्होंने गलियों की दीवारों को रंगकर बोर्ड बना दिया और वहीं क्लास लेने लगे.
तस्वीर: Rupak De Chowdhuri/REUTERS
पढ़ाई भी, सिखाई भी
पिछले कई महीनों से नायक इसी तरह अपने छात्रों को पढ़ा रहे हैं ताकि उनके बच्चे लॉकडाउन के कारण शिक्षा से महरूम न रह जाएं. वह लोक गीतों से लेकर हाथ धोने की जरूरत तक बच्चों को हर तरह का ज्ञान देते हैं.
तस्वीर: Rupak De Chowdhuri/REUTERS
कोई बच्चा छूटे नहीं
नायक बताते हैं कि उनकी क्लास में ज्यादातर बच्चे ऐसे हैं जिनके परिवार से पहली बार कोई स्कूल आया. तो वह उन्हें पीछे नहीं छूटने देना चाहते.
तस्वीर: Rupak De Chowdhuri/REUTERS
माता पिता भी खुश
बच्चों के माता पिता भी उनकी इस कोशिश से खुश हैं. एक बच्चे के पिता ने बताया कि पहले तो बच्चे यूं ही गलियों में भटकते रहते थे, नायक की इस कोशिश ने उन्हें फिर से पढ़ाई में लगा दिया है.
तस्वीर: Rupak De Chowdhuri/REUTERS
गांव नहीं पहुंची ऑनलाइन पढ़ाई
हाल ही में आए एक सर्वे के मुताबिक भारत के गांवों में सिर्फ 8 प्रतिशत बच्चे ही लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई कर पाए और 37 फीसदी तो बिल्कुल नहीं पढ़ पाए.