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भारत में पड़ रही भयंकर गर्मी से कैसे बचा जा सकता है

मुरली कृष्णन
११ जून २०२५

बाढ़, लू और चक्रवात जैसी चरम मौसमी घटनाएं अब भारत में पहले से कहीं ज्यादा हो रही हैं. जिसका नकारात्मक प्रभाव लोगों के स्वास्थ्य, देश के विकास और अर्थव्यवस्था पर सीधे पड़ रहा है.

पानी पीता एक दमकल कर्मचारी और कारों के कबाड़खाने में लगी आग से उठता धुआं
दिल्ली और आसपास के इलाकों में इन दिनों गर्मी चरम पर हैतस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS

पिछले हफ्ते, दिल्ली के रिसर्च इस्टिट्यूट, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने भारत के पर्यावरण पर अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी की. जिसमें दिखाया गया है कि चरम मौसमी घटनाएं देश की बड़ी आबादी को किस तरह प्रभावित कर रही हैं.

रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल भारत में चरम मौसम संबंधी घटनाओं के कारण लगभग 3,000 लोगों की मौत, 20 लाख हेक्टेयर फसल बर्बाद और 80,000 से अधिक घर तबाह हो गए. यह भी सामने आया कि 2024 के 88 फीसदी दिनों में भारत के किसी ना किसी हिस्से में चरम मौसमी घटनाएं घट रही थीं. वर्तमान में पूरा उत्तर भारत भीषण गर्मी से जूझ रहा है और ऐसी गर्मी के दिन आने वाले सालों में और बढ़ने की आशंकाएं हैं. 

सीएसई की निदेशक, सुनीता नारायण ने डीडब्ल्यू को बताया कि यह रिपोर्ट भारत में नीति बनाने वालों के लिए एक चेतावनी है. उन्होंने कहा, "यह रिपोर्ट बेहद अहम है क्योंकि यह दिखाती है कि हमें अब पर्यावरण के लिए और सजग प्रशासन, बेहतर स्वास्थ्य सेवा और जलवायु नीतियों की जरूरत है, ताकि इन समस्याओं का डट कर सामना किया जा सके.” कुछ शहरों ने गर्मी से बचने के लिए कदम उठाए हैं लेकिन गर्मी की तीव्रता को देखते हुए इन्हें पर्याप्त नहीं कहा जा सकता. 

वायु प्रदूषण, गर्मी और बाढ़

दुनिया में सबसे खराब वायु गुणवत्ता स्तर अक्सर भारत के शहरों में ही दर्ज किए जाते हैं. रिपोर्ट के अनुसार, 2021 से अब तक दिल्ली समेत भारत के 13 शहरों में हर तीन में से एक दिन लोगों को प्रदूषित और असुरक्षित हवा में सांस लेना पड़ता है. विभिन्न अध्ययनों में पाया गया है कि वायु प्रदूषण के कारण दिल्लीवासियों का जीवन औसतन लगभग आठ साल घट जाता है.

हालांकि भारत में अप्रैल से लेकर जून तक का महीना पारंपरिक रूप से गर्म ही होता है, लेकिन पिछले एक दशक में गर्मी की तीव्रता खतरनाक तरीके से बढ़ी है. इसके साथ-साथ बारिश और बाढ़ की तीव्रता भी साफ तौर पर बढ़ी हैं.

पूरे देश में चरम मौसमी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं तस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS

सीएसई की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की लगभग 80 फीसदी आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है, जो हीटवेव या गंभीर बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील हैं. जिसका मतलब हुआ कि देश की एक बड़ी आबादी लगातार जलवायु खतरों की चपेट में रहती है.

अंतरराष्ट्रीय विकास संगठन, आईपीई ग्लोबल के जलवायु परिवर्तन और सस्टेनेबिलिटी विभाग के प्रमुख, अबिनाश मोहंती ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह रिपोर्ट एक असहज सच्चाई को उजागर करती है. भारत इस समय एक तूफान के केंद्र में है. जहां जलवायु अराजकता, स्वास्थ्य संकट और विकास की कमी एक साथ भारत पर हावी हो रहे हैं.”

मोहंती ने बताया कि यह रिपोर्ट आईपीई ग्लोबल की 2024 की स्टडी के निष्कर्षों की भी पुष्टि करता है. जिसमें पता चला था कि भारत के 80 फीसदी जिले चरम मौसमी घटनाओं के प्रति संवेदनशील हैं.

उन्होंने कहा, "यह केवल एक आंकड़ा नहीं है बल्कि वास्तविक संकट है, जो हमारे सामने खड़ा है.” उन्होंने बताया कि अगर भारत को इस संकट का सामना करना है, तो विकास मॉडल को दोबारा नए ढंग से बनाने और लागू करने की जरूरत होगी ताकि बढ़ते तापमान, जैव विविधता में आ रही गिरावट और पानी के संकट से निपटा जा सके.

उन्होंने यह भी कहा, "अगर आज हमने कोई ठोस कदम नहीं उठाया, तो कल को इस संकट को टालना नामुमकिन हो जाएगा.”

भारत सरकार को इससे निपटने के लिए क्या कदम उठाने होंगे?

सुनिता नारायण का मानना है कि भारत सरकार को अनुकूल रणनीतियों पर ज्यादा निवेश करना चाहिए, खासतौर पर विश्वसनीय आंकड़े जुटाने में और उसका विश्लेषण करने में.

उन्होंने कहा, "यह रिपोर्ट यह नहीं कहती कि भारत ने कोई प्रगति नहीं की है बल्कि यह हमें एक आईना दिखाती है कि अभी हमें ठहरकर मौजूदा हालातों को समझना चाहिए और सुधार की दिशा में जरूरी कदम उठाने चाहिए.”

उनका कहना है कि जब तक हमारे पास सटीक आंकड़ा नहीं होगा, तब तक कोई भी नीति या समाधान निकालना संभव नहीं है. इसलिए हमें ज्यादा से ज्यादा आंकड़ों और पारदर्शिता की जरूरत है.

यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के जलवायु वैज्ञानिक, अक्षय देवरस ने डीडब्ल्यू को बताया कि यह रिपोर्ट नीति-निर्माताओं, उद्योगों और नागरिकों को जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरूक करन सकती है. 

उन्होंने कहा, "जलवायु के प्रति सहजता अब कोई विकल्प नहीं है, बल्कि अस्तित्व का सवाल बन गया है.”

उनका मानना है कि भारत को अब रिएक्टिव राहत से आगे बढ़कर पूर्व नियोजित तैयारी की ओर बढ़ना होगा. केवल भाषणों तक सीमित जलवायु नीतियों से आगे बढ़कर उन्हें जमीनी हकीकत से जोड़ना होगा और बड़े स्तर पर योजनाओं को लागू करना होगा. जलवायु के संकटों के प्रति चेतना रखने वाले संस्थानों की स्थापना करनी होगी ताकि जोखिमों की निगरानी और पूर्व चेतावनी संभव हो सके.

उन्होंने कहा, "समय तेजी से निकल रहा है और इस बार कोई दूसरी मौका नहीं मिलेगा.” उन्होंने यह भी कहा कि हर साल इतने अधिक दिनों तक चलने वाली चरम मौसमी घटनाएं केवल एक संयोग नहीं है. बल्कि यह दिखाती हैं कि हमारे पर्यावरण का सामान्य स्तर अब बदल गया है.

इसकी वजह से फसलों को होने वाला नुकसान, लोगों का विस्थापन और जैव विविधता पर दबाव और तेजी से बढ़ेगा.

देवरस ने कहा, "अगर अभी हम अनुकूलन, समय से पहले चेतावनी देने वाली प्रणाली और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने वाले संसाधनों में निवेश नहीं करते हैं, तो हम एक अस्थिर जलवायु वाले भविष्य की ओर बढ़ रहे होंगे, खासकर आने वाली पीढ़ियों के लिए.

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