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कालाजार बीमारी को खत्म करने की कगार पर है भारत

शकील सोभन
२ फ़रवरी २०२४

कालाजार या काला अजार को ब्लैक फीवर भी कहा जाता है. मलेरिया के बाद ये परजीवी से होने वाली दूसरी सबसे घातक बीमारी है. दर्जनों देशों में करीब 20 करोड़ लोग इस बीमारी से प्रभावित हैं.

कालाजार एक घातक बीमारी है.
इससे पहले भारत 2010, 2015, 2017 और 2023 में तय समयसीमा के भीतर कालाजार के खात्मे का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाया था. तस्वीर: Science Photo Library/imago images

साल 2008 में जब शिशु कुमारी ने ग्रामीण स्वास्थ्य कर्मी के रूप में काम शुरू किया, उस समय भारत में कालाजार के 33 हजार मामले थे. दो साल बाद इस घातक संक्रमण को खत्म करने की पहली समयसीमा में भारत सफल नहीं हो पाया. भविष्य धुंधला नजर आ रहा था.

लेकिन फिर भारत ने बीमारी पर नियंत्रण पाने में तेजी दिखाई. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पिछले साल सिर्फ 520 मामले रह गए थे. 30 जनवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का उपेक्षित ऊष्णकटिबंधीय रोग दिवस मनाया जाता है. इस मौके पर भारत कालाजार बीमारी खत्म करने के करीब पहुंच चुका है.

भारतीय चिकित्सा शोध परिषद् (आईसीएमआर) के पूर्व महानिदेशक डॉ निर्मल कुमार गांगुली ने इसे एक "महत्वपूर्ण उपलब्धि" बताया. ड्रग्स फॉर नेगलेक्टेड डिजीजेज इनीशिएटिव (डीएनडीआई) में दक्षिण एशिया की निदेशक डॉ कविता सिंह कहती हैं, "यह उपलब्धि भविष्य के सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियानों की प्रतिबद्धता को मजबूत बनाएगी और दूसरी वेक्टर जनित बीमारियों से लड़ने के लिए और ज्यादा समर्थन, सहायता और संसाधन आकर्षित करेगी."

कालाजार क्या है?

कालाजार को ब्लैक फीवर या विसरल लीश्मनायसिस भी कहा जाता है. ये वेक्टर जनित बीमारी लीश्मनायसिस का एक गंभीर रूप है और प्रोटोजोआ परजीवियों से होती है. संक्रमित मादा सैंडफ्लाई के काटने से यह बीमारी मनुष्यों में फैलती है.

मेडिसिन्स सान्स फ्रंटियर्स (एमएसएफ) के मुताबिक, मलेरिया के बाद कालाजार परवीजी से होने वाली दूसरी सबसे जानलेवा बीमारी है. 76 देशों में 20 करोड़ लोग इस बीमारी से प्रभावित हैं. कालाजार से पीड़ित मरीज में एनीमिया, बुखार, वजन कम होना, जिगर और तिल्ली का आकार बढ़ना जैसे लक्षण दिखने लगते हैं. इसका उपचार उपलब्ध है, लेकिन समय पर इलाज न मिला तो कालाजार से जान भी जा सकती है.

दक्षिण एशिया में भारत, बांग्लादेश और नेपाल इस बीमारी के गढ़ माने जाते थे. भारत में कालाजार के मामले मुख्यतः चार राज्यों में मिलते हैं- बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल. भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश ने अपने यहां 2023 में कालाजार बीमारी के उन्मूलन की घोषणा कर दी थी.

कालाजार की पहचान मुश्किल क्यों?

कालाजार के प्रसार का एक मुख्य कारण है, बीमारी की पहचान में देरी. एक हल्की, धीमी गति के साथ बीमारी फैलती जाती है. ग्रामीण स्वास्थ्यकर्मी शिशु कुमारी का कहना है, "मरीज अक्सर सामान्य बुखार कहकर इसकी अनदेखी करते हैं और इलाज नहीं करवाते हैं. कई बार इलाज के बिना एक महीना या उससे ज्यादा समय भी बीत जाता है."

शिशु कुमारी एक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) हैं. फील्ड में शिशु कुमारी और अन्य आशा कार्यकर्ताओं के पास अक्सर ऐसे लोग आ जाते थे, जिन्हें 15 दिन से ज्यादा समय तक बुखार बना रहता था.

आशा कार्यकर्ताओं ने भारत के सुदूर और दुर्गम ग्रामीण इलाकों में बीमारी के उपचार और उसके बारे में लोगों को जागरूक करने में बड़ी भूमिका निभाई है. लेकिन उनका काम काफी चुनौतियों से भरा है. अक्सर जब वे ऐसे किसी गांव में पहुंचती हैं, जहां सैंडफ्लाई को मारने के लिए कीटनाशक छिड़काव किया जाना है, तो गांववाले इनकार कर देते हैं. उन्हें लगता है उनके घरों को नुकसान पहुंचेगा.

शिशु कुमारी बताती हैं, "हमें फिर लोगों को समझाना पड़ता है कि कालाजार अगर किसी एक व्यक्ति को भी हुआ, तो गांव के और लोग भी बीमारी की चपेट में आ जाएंगे.”

भारत के दूर-दराज के इलाकों में रहने वालों पर इस संक्रमण का जोखिम ज्यादा है. तस्वीर: Payel Samanta/DW

किन बाधाओं को पार करना पड़ा

डॉ निर्मल कुमार गांगुली के मुताबिक, कई कारणों से कालाजार के खिलाफ लड़ाई इतने लंबे समय तक खिंच गई. वह कहते हैं, "शुरुआत में तो सारी दवाएं विषैली थीं." गांगुली का कहना है कि बीमारी के बने रहने की दूसरी वजह यह थी कि देश के सबसे गरीब लोगों पर ही इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ी. उपचार उपलब्ध था फिर भी, "जानकारी की कमी के कारण संक्रमित लोग नहीं जानते थे कि जाएं तो जाएं कहां." डॉ गांगुली के मुताबिक, "इसके अलावा बीमारी की वेक्टर इन मक्खियों से निजात पाना भी मुश्किल है."

डॉ कविता सिंह भी मानती हैं कि मरीजों की गरीबी भी बीमारी के खात्मे में देरी का एक बड़ा कारण रही है. उनका सामाजिक  और आर्थिक दर्जा, मुनाफे से संचालित बड़ी दवा कंपनियों के सामने कहीं नहीं ठहरता. डीएनडीआई से जुड़ी डॉक्टर सिंह के मुताबिक "यही कारण है कि इन बीमारियों का सुरक्षित और असरदार इलाज खोजने की प्रक्रिया धीमी रही है."

2014 में डीएनडीआई उन संगठनों में से एक था, जिसने भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय के कालाजार उन्मूलन अभियान के तहत एकल खुराक वाली दवा लाइपोसोमाल एम्फोटेरिसिन बी (एलएएमबी-लैंब) के इस्तेमाल पर जोर दिया था. लैंब ने कालाजार के मामले कम करने में बड़ी भूमिका निभाई.

मलेरिया के बाद कालाजार, परवीजी से होने वाली दूसरी सबसे जानलेवा बीमारी है.तस्वीर: Helga Lade Fotoagentur GmbH/picture-alliance

कालाजार के खिलाफ आगे की लड़ाई

विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों के मुताबिक, कालाजार के उन्मूलन की स्थिति को बनाए रखने के लिए भारत में 10 हजार लोगों की आबादी में एक से भी कम मामला होना चाहिए. स्वास्थ्य अधिकारियों को अगले तीन साल ऐसी स्थिति बनाए रखनी होगी. इससे पहले भारत 2010, 2015, 2017 और 2023 में कालाजार उन्मूलन की डेडलाइन पूरी नहीं कर पाया था.

जानकार कहते हैं कि भारत को अब पोस्ट कालाजार डर्मल लीश्मनायसिस (पीकेडीएल) पर ध्यान देना चाहिए. इस बीमारी में, कालाजार से ठीक होने वाले कुछ मरीजों की त्वचा पर चकत्ते उभर आते हैं और फिर वही लोग संक्रमण के वाहक भी बन जाते हैं. फिलहाल इस बीमारी के लिए बहुत असरदार और सुरक्षित दवाएं नहीं हैं. उपचार की प्रक्रिया लंबी है, लिहाजा अनुपालन भी कम है.

पिछले 10 साल में कालाजार के मामलों में भले ही कमी आई है, लेकिन पीकेडीएल के मामलों की संख्या उस गति से नहीं गिरी है. डॉ गांगुली कहते हैं, "पीकेडीएल मामलों की संख्या कम तो हुई है, लेकिन वे अभी भी हैं क्योंकि फिलहाल उसका अच्छा इलाज उपलब्ध नहीं है."

जब तक पीकेडीएल मामलों का उपचार नहीं हो जाता, कालाजार के फिर से उभर आने का खतरा हमेशा बना रहेगा. उससे जुड़ी सामाजिक शर्म और संकोच के चलते मरीज सामने आने से हिचकते हैं और इलाज से बचते हैं. पीकेडीएल मामलों की शिनाख्त के लिए विभिन्न एनजीओ और डीएनडीआई जैसे संगठन, आशा कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर काम कर रहे हैं.

डीएनडीआई के मुताबिक, कालाजार से सफलतापूर्वक लड़ने के बाद लिम्फैटिक फिलेरियासिस, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी गर्म, शुष्क और नम इलाकों वाली बीमारियां भारत के रडार पर हैं.

तैयार हो रहे हैं ना काटने वाले मच्छर

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