सिर्फ ऑस्ट्रेलिया के कारण बाकी दुनिया को सालाना 22.8 अरब अमेरिकी डॉलर की बचत हो रही है. पत्रिका नेचर में छपा एक अध्ययन बताता है कि दुनिया को जलवायु परिवर्तन कितना महंगा पड़ रहा है.
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जर्मन सेंटर फॉर इंटीग्रेटिव बायोडाइर्सिटी ने एक अध्ययन कर पता लगाया है कि दुनिया भर के मैनग्रोव, नमकीन मार्शलैंड और मीडोज के कारण समुद्र तटों पर बना ‘ब्लू कार्बन' पारिस्थितिकी तंत्र जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने में मदद कर रहा है.
नेचर पत्रिका में छपे इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने इस पारिस्थितिकी तंत्र के कार्बन सोख लेने के कारण दुनिया को होने वाले लाभ की वित्तीय गणना की है. शोधकर्ता कहते हैं कि उन्होंने जलवायु परिवर्तन की कीमत को नई तरह से समझने की कोशिश की है और उसकी हर देश के आधार पर गणना की. वे कहते हैं कि यह गणना "हमें हर देश से अंशदान की गणना करने और इस कारण ब्लू कार्बन वेल्थ का पुनर्वितरण करने” की क्षमता देती है.
इस गणना के मुताबिक तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों ने दुनिया में जितनी वित्तीय अंशदान किया है, उसकी कीमत 160 अरब डॉलर से 220 अरब डॉलर के बीच हो सकती है. शोधककर्ताओं ने कहा है कि औसत बचत 190.67 अरब अमेरिकी डॉलर यानी 106 खरब भारतीय रुपये हो सकती है.
भारत को फायदा
वैज्ञानिकों का कहना है कि सिर्फ तीन देशों ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और अमेरिका के तटीय पारिस्थितिकी तंत्र का योगदान कुल-मिलाकर सबसे ज्यादा है. इनमें से ऑस्ट्रेलिया का योगदान सबसे ज्यादा औसतन 22.8 अरब डॉलर है. यानी ऑस्ट्रेलिया के तटीय जंगल जितनी कार्बन सोख रहे हैं, उससे बाकी दुनिया को एक साल में 22.8 अरब डॉलर की बचत हो रही है.
तस्वीरों मेंः इतना तापमान कि छूट जाएंगे पसीने
ये तापमान देखकर छूट जाएंगे पसीने
कनाडा का लैपलैंड हो या भारत, दुनिया के कई हिस्सों में इस साल गर्मी का रिकॉर्ड टूट गया है. दक्षिणी गोलार्ध में जहां सर्दियां होती हैं, वहां भी तापमान नई ऊंचाई छू रहा है. देखिए, कहां कहां टूट गया रिकॉर्ड.
तस्वीर: kavram/Zoonar/picture alliance
लिटन, कनाडा
कनाडा के शहर लिटन में 2 जुलाई को गर्मी सारी हदें तोड़ गईं जब तापमान लगभग 50 डिग्री सेल्सियस हो गया. कुछ ही दिन बाद यह शहर जंगल की आग में जल रहा था.
तस्वीर: JENNIFER GAUTHIER/REUTERS
लैपलैंड, फिनलैंड
1914 के बाद फिनलैंड की यह अब तक की सबसे तेज गर्मी है. उत्तरी फिनलैंड में 33.6 डिग्री सेल्सियस तापमान दर्ज किया गया. स्कैंडेनेविया के कई हिस्सों में तापमान औसत से 10-15 डिग्री तक ज्यादा दर्ज हुआ है. वैज्ञानिकों ने उत्तरी यूरोप में गर्मी को उत्तरी अमेरिका के ऊपर बने डोम से संबंधित बताया है.
तस्वीर: Otto Ponto/Lehtikuva/AFP/Getty Images
नई दिल्ली, भारत
भारत की राजधानी में जुलाई की शुरुआत में ही 43 डिग्री सेल्सियस तापमान पहुंच गया था, जो नौ साल में सबसे अधिक है. मॉनसून दो हफ्ते की देरी से चल रहा है. गर्मी से भारत में पिछले 11 साल में 6,500 जानें गई हैं.
तस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS
निजन्याया पेशा, रूस
साइबेरिया भी इस बार कड़ी गर्मी झेली है. मई में तापमान 30 डिग्री के ऊपर था जो यूरोप के कई हिस्सों से ज्यादा था. सूखे और तेज गर्मी ने उत्तरी रूस के जंगलों को आग में झोंक दिया है और भारी मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड वातावरण में जा रही है.
तस्वीर: Thomas Opel
न्यूजीलैंड
जब बाकी दुनिया में गर्मी होती है, दक्षिणी गोलार्ध के देशों जैसे ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में सर्दी का मौसम होता है. लेकिन न्यूजीलैंड में इस बार सर्दी पहले से कहीं ज्यादा गर्म है. पिछले महीने तापमान 22 डिग्री पहुंच गया, जिस कारण 110 साल में सबसे गर्म जून रहा. सर्दी में इतनी गर्मी का असर खेती पर भी हो रहा है.
तस्वीर: kavram/Zoonar/picture alliance
मेक्सिको
इस साल जून में मेक्सिको में 51.4 डिग्री तापमान दर्ज हुआ है जो इतिहास में अब तक सबसे ज्यादा है. देश पिछले 30 सालों के सबसे बुरे सूखे से गुजर रहा है. बाजा कैलिफोर्निया में हालात इतने बुरे हैं कि कॉलराडो नदी वहां सूख चुकी है.
तस्वीर: Fernando Llano/AP/picture alliance
गडामेस, लीबिया
अरब प्रायद्वीप और उत्तरी अफ्रीका में भी यह साल औसत से ज्यादा गर्म रहा है. सहारा रेगिस्तान में पिछले महीने तापमान 50 डिग्री सेल्यिसस दर्ज किया गया. इस बीच पश्चिमी लीबिया में जून सामान्य से 10 डिग्री ज्यादा गर्म रहा. गडामेस में रिकॉर्ड 46 डिग्री तापमान दर्ज हुआ और राजधानी त्रिपोली में 43 डिग्री.
तस्वीर: DW/Valerie Stocker
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भारत दुनिया में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले देशों में शामिल है. वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और क्यूबा के तटीय जंगल ना होते तो यह स्थिति बदतर होती. शोधकर्ता कहते हैं कि इन तीन देशों के जंगलों की वजह से भारत को सालाना 24 अरब डॉलर का फायदा हो रहा है.
2018 में आए एक अध्ययन में बताया गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण भारत की अर्थव्यवस्था को 210 अरब डॉलर का नुकसान होता है. यानी ऑस्ट्रेलिया, क्यूबा और इंडोनेशिया के जंगल ना होते तो यह कीमत करीब 10 फीसदी ज्यादा होती.
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छोटे देश ही कर रहे हैं बचत
वैज्ञानिकों ने ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और क्यूबा के तटों से होने वाले बचत को तो बताया है लेकिन अमेरिका और इन तीनों देशों के उद्योगों से होने वाले कार्बन उत्सर्जन की कीमत को उसमें शामिल नहीं किया है. यदि उसको भी जोड़ लिया जाए तो सिर्फ छोटे देश जैसे मैडागास्कर, सिएरा लियोन, वनातू आदि हैं जिनके तटीय जंगल लगभग उतनी कार्बन सोख लेते हैं, जितनी ये देश पैदा करते हैं.
दूसरे शब्दों में, यही देश हैं जो अपना हिसाब बराबर रख रहे हैं और बाकी देशों, खासकर बड़े देशों में जंगल जितनी कार्बन सोखते हैं, उत्सर्जन उससे कहीं ज्यादा है. शोध कहता है, "किसी देश का ब्लू वेल्थ में योगदान उसके तट की लंबाई पर निर्भर करता है. ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और अमेरिका का योगदान कुल मिलाकर सबसे ज्यादा है तो इनके तटों की कुल लंबाई भी सबसे ज्यादा है.”
बताइएः क्या यह मेंढक डरावना है
क्या यह मेंढक डरावना है?
जिसने इसे जोंबी नाम दिया, उसने क्या इसका रूप देखकर ऐसा सोचा? यह मेंढक हाल ही में खोजा गया है. क्या आपको यह मेंढक डरावना लगा? कुछ और तस्वीरें देखकर तय कीजिए...
तस्वीर: Antoine Fouquet
क्यों रखा यह नाम?
जर्मनी के प्राणीविज्ञानी राफाएल एर्न्स्ट उस टीम का हिस्सा थे जिसने मेंढकों की यह नई प्रजाति खोजी है. वह बताते हैं कि यह नाम इसलिए चुना क्योंकि जिन शोधकर्ताओं ने इस मेंढक को जमीन के नीचे से निकाला, वे उस वक्त जोंबी जैसे दिख रहे थे.
तस्वीर: Antoine Fouquet
कैसे मिला यह मेंढक?
राफाएल एर्न्स्ट ने अमेजन के जंगलों में लगभग दो साल करीब-करीब अकेले गुजारे हैं. वह अपनी पीएचडी के लिए रिसर्च कर रहे थे. उनका मकसद उभयचरों की विलुप्ति के कारण खोजना था. उसी दौरान उन्होंने यह मेंढक खोज लिया.
तस्वीर: Raffael Ernst
दिखते ही नहीं
राफाएल एर्न्स्ट बताते हैं कि इन मेंढकों को खोजना आसान नहीं था क्योंकि ये बहुत कम समय के लिए सक्रिय रहते हैं.
तस्वीर: Antoine Fouquet
विलुप्ति का खतरा
राफाएल एर्न्स्ट कहते हैं कि जब जब वे लोग कोई नई प्रजाति खोजते हैं, तो उन्हें उनकी विलुप्ति का खतरा सताने लगता है. जैसे जोंबी मेंढक अभी खोजा गया है. लेकिन यह एक लुप्तप्राय प्रजाति हो सकती है.
तस्वीर: Antoine Fouquet
ऐसे और भी हैं
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस इलाके में ऐसी प्रजातियां छह गुना ज्यादा हो सकती हैं, जिन्हें अभी तक खोजा नहीं गया है.
तस्वीर: Monique Hölting
अमेजन पर खतरा
शोधकर्ता अमेजन जंगलों में रहने वाले प्राणियों को लेकर चिंतित हैं. राफाएल एर्न्स्ट कहते हैं कि इन जंगलों पर दबाव बढ़ रहा है और इंसानों की अवैध गतिविधियां भी.
तस्वीर: Raffael Ernst
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यही कारण है कि यूरोपीय देशो का योगदान सबसे कम है. फ्रांस और ब्रिटेन के अलावा बाकी यूरोपीय देश इस सूची में सबसे निचले पायदान पर हैं. दुनिया में ब्लू कार्बन वेल्थ में सबसे बड़ा योगदान ऑस्ट्रेलिया का है, जो 25 अरब अमेरिकी डॉलर का अंशदान करता है. इनके बाद इंडोनेशिया, क्यूबा, रूस और पापुआ न्यू गिनी का नंबर आता है.