लोकतंत्र सूचकांक में भारत 10 नंबर गिरकर 165 देशों की सूची में 51वें स्थान पर पहुंच गया है. जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाना, एनआरसी और सीएए के चलते भारत की लोकतंत्र सूचकांक में रैकिंग गिरी है.
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इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (ईआईयू) की तरफ से जारी वैश्विक रैंकिंग के मुताबिक शून्य से 10 के पैमाने पर भारत का कुल स्कोर 2018 के 7.23 के मुकाबले में 2019 में 6.90 रह गया. 2006 में लोकतंत्र सूचकांक की शुरुआत के बाद भारत का यह अब तक सबसे खराब स्कोर है.
इस सूचकांक के मुताबिक 2019 में नॉर्वे 9.87 स्कोर के साथ पहले पायदान पर रहा. यह वैश्विक सूची 165 स्वतंत्र देशों और दो क्षेत्रों में लोकतंत्र की मौजूदा स्थिति का हाल बताती है. ईआईयू की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की रैकिंग में गिरावट का मुख्य कारण देश में नागरिक स्वतंत्रता में कटौती है. ईआईयू ने भारत को कम स्कोर देने का कारण बताया, "भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर से दो महत्वपूर्ण अनुच्छेद हटाकर उससे विशेष राज्य का दर्जा छीना और उसे केंद्र शासित प्रदेश बना दिया. इस फैसले के पहले सरकार ने वहां सेना की भारी तैनाती की, कई पाबंदियां लगाईं और स्थानीय नेताओं को नजरबंद किया गया. वहां इंटरनेट पर रोक लगाई गई."
साथ ही रिपोर्ट ने विवादित नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) पर कहा, "असम में एनआरसी लागू होने से करीब 19 लाख लोग अंतिम सूची से बाहर हो गए जिनमें बड़ी संख्या में मुसलमान शामिल हैं. नागरिकता संशोधन कानून से देश में बड़ी संख्या में मुसलमान नाराज हैं. सांप्रदायिक तनाव बढ़ा है और कई बड़े शहरों में इस कानून के खिलाफ विरोध हो रहे हैं."
इस सूचकांक पर तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने डीडब्ल्यू से कहा, "प्रधानमंत्री और गृह मंत्री देश में जहर फैला रहे हैं. वे संसद जैसी प्रतिष्ठित संस्था को खत्म करने की धुन में हैं. असहमति के सभी रूपों का गला घोंटा जा रहा है. सरकार छात्रों की आवाज दबा रही है. भारत के विचार को खत्म किया जा रहा है. देश के छात्र और युवा गुस्से में हैं और जब यह होता है तो आपको पता होना चाहिए कि सरकार गंभीर संकट में है."
बीजेपी कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए के हटाने का बचाव करती आई है और कहती है कि 370 हटने से कश्मीर का विकास होगा. बीजेपी नेता सायंतन बसु कहते हैं, "कुछ पश्चिमी संगठन इस तरह की समीक्षा करते रहते हैं. उसकी पारदर्शिता और मान्यता को लेकर सवाल उठ सकते हैं. इस रिपोर्ट में हमने पाया कि स्कोर कम देने का कारण कश्मीर को बताया गया है लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि कश्मीर में 45 हजार लोग आतंकवाद के शिकार हो चुके हैं. सरकार ने वहां माहौल को सामान्य करने के लिए कई कदम उठाए हैं. रिपोर्ट में कश्मीर का मुद्दा उठाना शर्मनाक बात है. कश्मीर में माहौल सामान्य हो, इसलिए सरकार यह कदम उठा रही है. कश्मीर में एक महीने के लिए सख्त कदम उठाए गए थे और उससे स्थिति सामान्य हुई है और लगातार हालात ठीक हो रहे हैं. अगर सरकार देश में किसी भी जगह लोकतांत्रिक आंदोलनों का दमन कर रही है तो आप इसका उदाहरण दीजिए."
पिछले साल कुछ भारतीयों के फोन पेगासस स्पाइवेयर के जरिए टैप होने का मामला भी सामने आया था और कई लोगों ने टैपिंग को लेकर गंभीर सवाल खड़े किए थे. इस मामले और वैश्विक सूचकांक में भारत की खराब स्थिति पर पत्रकार और पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रैटिक राइट्स के आशीष गुप्ता कहते हैं, "सरकार ने मेरा फोन भी टैप किया था. कनाडा की संस्था ने इस मुद्दे पर मुझसे संपर्क भी किया था, फोन टैप करने वालों की सूची में मेरा नाम भी था. मुझे भी इस बात की जानकारी थी. आंदोलनों पर सरकार पहले भी दमन करती थी, कई बार लाठी और गोली भी चलती थी और कुछ मांगें मान ली जाती थी, कभी-कभी सरकार अपना फैसला भी रद्द कर देती थी लेकिन मौजूदा सरकार कोई भी फैसला नहीं बदलती है, तो इसलिए जितने भी आंदोलन हो रहे हैं उन्हें वह दबाना चाहती है और मांग पूरी नहीं करना चाहती. हमें डर है कि आने वाले सालों में इस सूचकांक में भारत की स्थिति और भी खराब होगी."
यह सूचकांक पांच श्रेणियों पर आधारित है चुनाव प्रक्रिया और बहुलतावाद, सरकार का कामकाज, राजनीतिक भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति और नागरिक स्वतंत्रता. इनके कुल अंकों के आधार पर देशों को चार प्रकार के शासन में वर्गीकृत किया जाता है. पूर्ण लोकतंत्र 8 से ज्यादा अंक हासिल करने वाले, त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र 6 से ज्यादा लेकिन 8 या 8 से कम अंक वाले, संकर शासन 4 से ज्यादा लेकिन 6 या 6 से कम अंक हासिल करने वाले और निरंकुश शासन 4 या उससे कम अंक वाले. भारत को "त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र" में शामिल किया गया है.
वहीं पाकिस्तान की इस सूचकांक में 4.25 स्कोर के साथ 108वें स्थान पर है. चीन 2.26 स्कोर के साथ 153वें स्थान पर है जबकि बांग्लादेश 80वें और नेपाल 92वें स्थान पर है. उत्तर कोरिया 167वें स्थान के साथ सबसे नीचे पायदान पर है.
2019 : विरोध प्रदर्शनों का साल
दुनिया के अलग अलग हिस्सों में 2019 के दौरान करोड़ों लोग सड़कों पर उतरे. कहीं उन्होंने लोकतंत्र के लिए नारे बुलंद किए तो कहीं धार्मिक आधार पर भेदभाव का विरोध किया. कोई अपनी सरकार से नाखुश था तो किसी को भविष्य की चिंता थी.
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हांगकांग की स्थिरता को झटका
हांगकांग के प्रदर्शनों ने इस साल चीन की नाक में खूब दम किया. इनकी शुरुआत उस बिल से हुई जिसके जरिए हांगकांग से भगोड़े लोगों को चीन की मुख्य भूमि पर प्रत्यर्पित किया जा सकेगा. बिल तो वापस ले लिया गया है लेकिन लोकतंत्र के समर्थन में वहां प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है. प्रदर्शनों में बल प्रयोग को लेकर दुनिया भर में चीन की आलोचना भी हुई.
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पर्यावरण के लिए
स्वीडन की संसद के सामने एक लड़की के प्रदर्शन ने 2019 में एक बड़े आंदोलन को जन्म दिया. ग्रेटा थुनबर्ग से प्रेरणा लेकर दुनिया भर के स्कूली बच्चों ने पर्यावरण की रक्षा के लिए 'फ्राइडे फॉर फ्यूचर' मार्च निकाले. जर्मनी समेत लगभग 150 देशों में साढ़े चार हजार से ज्यादा प्रदर्शन हुए. ग्रेटा की मुहिम को देखते हुए कई सरकारों ने जलवायु संकट की घोषणा भी की.
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धार्मिक भेदभाव के खिलाफ प्रदर्शन
भारत में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ कई हिस्सों में बड़े विरोध प्रदर्शन हुए. यह कानून पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले गैर मुस्लिम लोगों को भारत में आने पर नागरिकता देने की वकालत करता है. आलोचकों का कहना है कि यह कानून धर्म के आधार भेदभाव करता है जिसकी संविधान में इजाजत नहीं है. प्रदर्शनों के दौरान कई लोग मारे गए.
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सद्दाम का दौर ही बेहतर था
अक्टूबर के महीने में इराक में लोग बड़ी संख्या में सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरे. इस दौरान हिंसा में 460 लोग मारे गए जबकि 25 हजार से ज्यादा घायल हुए. भ्रष्टाचार, बरोजगारी और देश की सरकार पर ईरान के प्रभाव से नाराज लोगों के रोष को देखते हुए प्रधानमंत्री अदिल अब्दुल माहिल ने इस्तीफा दे दिया. कई लोग आज इराकी तानाशाह सद्दाम के दौर को बेहतर बता रहे हैं.
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बेरुत में भी बवाल
लेबनान में सरकार के खिलाफ अक्टूबर में बड़े प्रदर्शन हुए. लोग गैसोलीन, तंबाकू और यहां तक कि व्हाट्सऐप फोन कॉल पर भी टैक्स बढ़ाने जाने से नाराज थे. बाद में प्रदर्शनों ने सरकारी भ्रष्टाचार और घटते जीवनस्तर के खिलाफ रोष का रूप ले दिया. प्रधानमंत्री साद हरीरी के इस्तीफे के बावजूद प्रदर्शनकारियों ने अंतरिम प्रधानमंत्री से मिलने से इनकार कर दिया. वे बड़े स्तर पर बदलावों की मांग कर रहे हैं.
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ईरान रहा हफ्तों तक ठप
ईरान में नवंबर के महीने में जब गैसोलीन के दामों में जब 50 प्रतिशत की वृद्धि कर दी गई तो कई शहरों में लोगों ने जमकर विरोध किया. कई शहरों में लगभग दो लाख लोग सड़कों पर उतरे. सरकार ने बलपूर्वक विरोध को दबाने की कोशिश की. अमेरिका का कहना है कि इस दौरान एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए और यह 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद से देश में सबसे बड़ी हिंसा है.
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सूडान में क्रांति किस काम की
अफ्रीकी देश सूडान में महीनों तक चले विरोध प्रदर्शनों के बाद दशकों से सत्ता में जमे ओमर अल बशीर को अप्रैल में सत्ता छोड़नी पड़ी. इसके बाद देश में सत्ता संघर्ष शुरू हो गया. सेना और लोकतंत्र समर्थक पार्टियां, दोनों सत्ता पर कब्जा करने में जुटी हैं. इस दौरान देश में फैली अशांति में दर्जनों लोग मारे गए हैं. अगस्त में दोनों पक्षों ने अंतरिम सरकार बनाने के लिए एक संवैधानिक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए.
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लातिन अमेरिका में असंतोष
चिली में लगभग दो महीने पहले प्रदर्शन हुए. देश के राजनीतिक और आर्थिक सिस्टम से मायूस लोगों ने सड़कों पर उतरने का फैसला किया. प्रदर्शनकारी स्वास्थ्य, पेंशन और शिक्षा के क्षेत्र में बड़े बदलावों की मांग कर रहे हैं. 2019 में बोलिविया, होंडुरास और वेनेजुएला जैसे कई लातिन अमेरिकी देशों में भी प्रदर्शन हुए. मई में वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलस मादुरो को हटाने की कोशिश भी हुई.
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फ्रांस में सब कुछ ठप
फ्रांस में येलो वेस्ट प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों के लिए खूब सिरदर्द बने. 2018 की आखिरी दिनों में प्रस्तावित टैक्स वृद्धि के विरोध में इन प्रदर्शनों की शुरुआत हुई. बाद में सरकार की नीतियों से नाराज अन्य लोग भी इनका हिस्सा बन गए. लेकिन दिसंबर आते आते फ्रांस के लोग फिर सड़कों पर दिखे, इस बार माक्रों के पेंशन सुधारों के खिलाफ.
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आजादी की आस
स्पेन की सुप्रीम कोर्ट ने जब नौ कैटेलान नेताओं को कैद की सजा सुनाई तो प्रांतीय राजधानी बार्सिलोना में नए सिरे से प्रदर्शन शुरू हो गए. एक समय इनमें हिस्सा लेने वाले लोगों की तादाद पांच लाख तक पहुंच गई. इस दौरान लगातार छह रातों तक हिंसा की घटनाएं देखने को मिलीं. इस दौरान आम हड़ताल भी हुई, जिससे यातायात, कार उत्पादन और फुटबॉल मैच तक को रोकना पड़ा.