अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रहेगा
८ नवम्बर २०२४भारत की सर्वोच्च अदालत ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर अपना फैसला सुना दिया है. इस मामले पर सुनवाई के लिए सात जजों की संविधान पीठ गठित हुई थी. इस पीठ ने 4:3 के बहुमत से फैसला दिया कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान बना रहेगा.
इस मामले पर चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा ने एकमत में फैसला दिया, जबकि जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस सतीश चंद्र मिश्रा का फैसला अलग था.
फैसले के मुख्य पक्ष क्या हैं?
इसी साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने इस मामले पर आठ दिनों तक सुनवाई की थी. तब बेंच ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. अब 8 नवंबर को आए फैसले में कहा गया है कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान है.
साथ ही, कोर्ट ने 4:3 के बहुमत के साथ 1967 के उस फैसले को भी खारिज कर दिया, जो एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इनकार करने का आधार बना था. 1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत सरकार के केस में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है.
सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा संविधान के अनुच्छेद 30(1) का मूल उद्देश्य अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित किसी अल्पसंख्यक संस्थान के प्रशासन पर विशेष अधिकार प्रदान करना है. बहुमत के फैसले में कहा गया, "अनुच्छेद 30(1) में इस्तेमाल किए गए शब्द स्थापित को संकीर्ण और कानूनी अर्थ में नहीं समझा जा सकता और न ही समझा जाना चाहिए. अनुच्छेद 30 के खंड 1 में इस्तेमाल किए गए शब्दों की व्याख्या अनुच्छेद के उद्देश्य तथा इसके द्वारा दी गई गारंटी और सुरक्षा को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए."
'एस अजीज बाशा बनाम भारत सरकार' फैसले का संदर्भ
एमएमयू के अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे का विवाद काफी पुराना है. साल 1967 में अजीज बाशा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी कि इसे अल्पसंख्यक संस्थान ना माना जाए. सुप्रीम कोर्ट ने इसपर फैसला सुनाया और एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान मानने से इनकार कर दिया.
1967 के फैसले में कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम 1920 का संदर्भ दिया था. कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला था कि यूनिवर्सिटी की स्थापना या प्रशासन मुसलमान समुदाय द्वारा नहीं किया गया था, जो कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के रूप में वर्गीकृत किए जाने वाले संस्थानों के लिए जरूरी है.
उस समय कोर्ट के फैसले का अहम पक्ष यह था कि एएमयू की स्थापना एक केंद्रीय अधिनियम के तहत हुई है, ताकि इसकी डिग्री की सरकारी मान्यता सुनिश्चित की जा सके. संविधान का अनुच्छेद 30(1) कहता है कि धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनके प्रशासन का अधिकार है.
नई बेंच तय करेगी एएमयू का दर्जा
'अजीज बाशा बनाम भारत सरकार' केस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के एक दशक से भी ज्यादा समय बाद साल 1981 में केंद्र सरकार ने फिर से कानून में संशोधन किए और यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्जा बहाल कर दिया.
यह मामला आगे चलकर इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचा. साल 2006 में हाईकोर्ट ने भी अपने फैसले में एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना. इस निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई. इस याचिका पर सुनवाई के दौरान साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने यह मामला सात जजों की बेंच भेज दिया था.
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान यह सवाल उठा कि क्या कोई यूनिवर्सिटी, जिसका प्रशासन सरकार द्वारा किया जा रहा है, अल्पसंख्यक संस्थान होने का दावा कर सकती है? अब अपने ताजा फैसले में कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि कानून द्वारा बनाए गए संस्थान को भी अल्पसंख्यक का दर्जा मिल सकता है.
हालांकि, अब तीन जजों की बेंच नए सिरे से सुनवाई करेगी और वही तय करेगी कि एएमयू का दर्जा क्या होगा. सीजेआई ने यह भी कहा कि अदालत को देखना होगा कि संस्थान का जन्म कैसे हुआ, संस्थान की स्थापना के पीछे कौन था, जमीन के लिए किससे धन मिला और क्या अल्पसंख्यक समुदाय ने संस्थान को खड़ा करने में मदद की थी?
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कैसे हुई थी एएमयू की स्थापना?
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना 1875 में हुई थी. 17वीं शताब्दी के समाज सुधारक सर सैयद अहमद खान ने आधुनिक शिक्षा की जरूरत को महसूस करते हुए साल 1875 में एक स्कूल शुरू किया, जो बाद में 'मोहम्डन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज' बना.
1 दिसंबर 1920 को इसी कॉलेज ने 'अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी' का रूप लिया. उसी साल 17 दिसंबर को एएमयू का औपचारिक रुप से एक यूनिवर्सिटी के रूप में उद्घाटन किया गया था. भारत के तमाम राज्यों के अलावा अफ्रीका, पश्चिमी एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया, सार्क और कई अन्य देशों के भी छात्र यहां पढ़ने आते हैं.