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भारत: एक-तिहाई सजा काटने वाले कैदियों को मिलेगी जमानत

२१ नवम्बर २०२४

भारत ने जेलों की भीड़ कम करने के लिए एक बड़े कदम का एलान किया है. सरकार ने ऐसे कैदियों को रिहा करने की घोषणा की है, जो अपनी संभावित सजा का एक तिहाई हिस्सा काट चुके हैं.

राजस्थान के सांगानेर में खुली जेल
जेलों में भीड़ कम करने की दिशा में कदमतस्वीर: Rebecca Conway/Getty Images

गृह मंत्री अमित शाह ने भारत की धीमी न्याय प्रक्रिया से निपटने के लिए नई पहल की घोषणा की है. उन्होंने कहा कि छोटे अपराधों के आरोप में जेल में बंद ऐसे कैदियों को जमानत दी जाएगी, जिन्होंने अपनी संभावित सजा का एक-तिहाई हिस्सा काट लिया है.

भारत की अदालतों में लाखों मामले लंबित हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2024 की शुरुआत तक 1,34,799 लोग सुनवाई के इंतजार में जेल में बंद थे, जिनमें से 11,448 पांच साल से अधिक समय से बिना सजा के जेल में हैं.

गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि उनका लक्ष्य एक "वैज्ञानिक और तेज" आपराधिक न्याय प्रणाली स्थापित करना है. उन्होंने पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक में कहा, "हमारी कोशिश है कि संविधान दिवस (26 नवंबर) से पहले देश की जेलों में ऐसा कोई कैदी न रहे, जिसने अपनी सजा का एक-तिहाई हिस्सा काट लिया हो और उसे अभी तक न्याय न मिला हो."

हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि यह योजना केवल गैर-गंभीर अपराधों के लिए होगी. गंभीर अपराधों या कठोर कानून, जैसे ‘अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार लोगों को इसका लाभ नहीं मिलेगा.

संविधान दिवस और न्याय का मुद्दा

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पिछले वर्ष संविधान दिवस पर अपने भाषण में जेलों में बढ़ती भीड़ की ओर ध्यान दिलाया था. उन्होंने कहा था, "जेलों में बंद ये लोग कौन हैं? ये वे लोग हैं, जो मौलिक अधिकारों, संविधान की प्रस्तावना और मौलिक कर्तव्यों के बारे में कुछ नहीं जानते." उन्होंने न्याय की ऊंची लागत को समस्या बताया और तीनों शाखाओं – कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका – से सुलझा हुआ समाधान खोजने की अपील की थी.

विशेषज्ञों का मानना है कि पुलिस और जेल सुधारों के बिना यह समस्या हल नहीं हो सकती. न्यायपालिका में जजों की भारी कमी, जिला विधिक सेवा प्राधिकरण को मजबूत करने और जमानत के मौजूदा धन-आधारित मॉडल का विकल्प लाने की सख्त जरूरत है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में जेलों में भीड़ पिछले 10 वर्षों में सबसे अधिक थी. 2021 की जेल सांख्यिकी रिपोर्ट बताती है कि 2016 से 2021 के बीच कैदियों की संख्या 9.5 फीसदी घटी, लेकिन विचाराधीन कैदियों की संख्या 45.8 प्रतिशत बढ़ गई.

टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के प्रोफेसर विजय राघवन ने हाल ही में फ्रंटलाइन पत्रिका को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि आंकड़े साबित करते हैं कि हर कैदी को जेल में रखने की जरूरत नहीं होती और अगर प्रभावी कानूनी मदद और जमानत की पहुंच हो, तो जेलों में भीड़ घट सकती है. उन्होंने बताया कि 85-90 फीसदी कैदी अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और मुस्लिम समुदाय से हैं. इनमें से अधिकांश की पारिवारिक आय 10,000 रुपये प्रति माह से कम है.

आदिवासी और अन्य कमजोर वर्ग

आदिवासी प्रथाओं को अक्सर बिना समझे अपराध घोषित कर दिया जाता है. उदाहरण के लिए, तमिलनाडु के नीलगिरि जिले में आदिवासी युवकों को अक्सर पॉक्सो एक्ट के तहत गिरफ्तार किया जाता है, जबकि वे अपनी परंपराओं के अनुसार 18 साल से कम उम्र की लड़कियों के साथ सहमति से रहते हैं. इसी तरह, पारधी जैसे विमुक्त जनजातियों के लोगों को छोटे अपराधों के लिए हमेशा संदेह की नजर से देखा जाता है. 

सुप्रीम कोर्ट ने 1,382 जेलों की अमानवीय स्थिति पर दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जिनमें क्रिमिनल प्रोसीजर कोड (सीआरपीसी) की धारा 436 और 436ए का प्रभावी उपयोग शामिल है. राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण ने यूटीआरसी (अंडरट्रायल रिव्यू कमेटी) की तिमाही बैठकें आयोजित करने के लिए ढांचा बनाया है. इसके तहत 2023 में 48 फीसदी विचाराधीन कैदियों को रिहा किया गया, जबकि 16 फीसदी दोषियों को रिहाई मिली.

आगे की राह

हालांकि न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने यूटीआरसी की सिफारिशों के बावजूद रिहाई की दर में कमी पर चिंता जताई. इसी महीने सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी एक रिपोर्ट में उन्होंने कहा कि कई बार एक से अधिक एफआईआर, गंभीर अपराध, या विदेशी नागरिकता जैसे कारणों से कैदियों को रिहाई नहीं मिलती.

कराची जेल के कलाकार

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सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ ने इस रिपोर्ट की भूमिका में कहा था, "कैदियों के साथ हमारा व्यवहार हमारे मानवाधिकारों और सामाजिक मूल्यों को दर्शाता है. सम्मानजनक जेलें सिर्फ आकांक्षा नहीं, बल्कि संवैधानिक दायित्व हैं." उन्होंने पुनर्वास के लिए बेहतर माहौल बनाने पर जोर दिया. 

गृह मंत्री अमित शाह की यह पहल जेलों और अदालतों के बीच की खाई को पाटने का एक कदम है. विशेषज्ञ मानते हैं कि यह न्याय व्यवस्था में स्थायी बदलाव लाने का मौका हो सकता है.

रिपोर्टः विवेक कुमार (एएफपी)

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