जमीन के अधिकारों के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ता 2006 के वन अधिकार कानून के पास होने पर उत्साहित थे लेकिन अब उनका उत्साह चिंता में बदल रहा है. इस कानून के तहत जंगल पर जंगलवासियों का हक स्वीकार किया गया था और आदिवासियों को अधिकार दिया गया था.
राइट्स एंड रिसॉर्सेज इनिशिएटिव नामक संस्था का अध्ययन बताता है कि कानून के तहत कम से कम 15 करोड़ लोगों को देश की कम से कम 4 करोड़ हेक्टेयर वन भूमि पर अधिकार मिलना है. लेकिन आरआरआई के मुताबिक बीते एक दशक में सिर्फ 1.2 फीसदी क्षेत्र को ही दर्ज किया जा सका है. आरआरआई के कार्यकारी निदेशक अरविंद खरे बताते हैं, "राजनीतिक वर्ग में यह भ्रम है कि अगर आप अधिकार देते हैं तो यह विकास के विरुद्ध होगा." खरे बताते हैं कि इस कानून को विकास विरोधी माना जा रहा है. वह कहते हैं, "राज्यों के बीच इन्फ्रास्ट्रक्चर और खनन में निवेश को लेकर तगड़ी प्रतिस्पर्धा है. ऐसे में इस कानून को निवेश में बाधा के तौर पर लिया जाता है."
देखिए, सिंगूर में क्या हुआ
सिंगूर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद किसानों को जमीन वापस होगी. ममता बनर्जी की राजनीतिक जीत में यह मुद्दा एक अहम पड़ाव रहा है. कब क्या हुआ सिंगूर में.
तस्वीर: UNI2008 में भारत की कार निर्माता कंपनी टाटा ने लखटकिया कार नैनो बाजार में उतारने का ऐलान किया. ये खबर दुनिया भर में सुर्खी बनी. नैनो को बनाने के लिए कंपनी ने पश्चिम बंगाल के सिगूंर में फैक्ट्री लगाने की योजना बनाई.
तस्वीर: UNIइसके लिए पश्चिम बंगाल की तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार ने खेती की एक हजार एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया और उसे टाटा को सौंप दिया गया.
तस्वीर: DWलेकिन जल्द ही आरोप लगने लगे कि सरकार ने जबरदस्ती किसानों की जमीन ली है जबकि सरकार का कहना था कि राज्य की बदहाल अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने के लिए निवेश और उद्योगों को बढ़ावा देने की जरूरत है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Chowdhuryये मामला उपजाऊ जमीन लेकर उसे प्राइवेट कंपनी को दिए जाने का था. इसलिए जल्द ही इस मुद्दे पर राजनीति शुरू हो गई है और ये एक बड़ा मुद्दा बन गया. आखिरकार टाटा को अपनी फैक्ट्री गुजरात के साणंद ले जानी पड़ी.
तस्वीर: UNIसिंगूर लोगों को उनकी जमीन वापस दिलाने के वादे ने ममता बनर्जी को नई राजनीतिक ताकत दी. 2011 के राज्य विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने वो कर दिखाया जो अब तक कोई नहीं कर पाया. उन्होंने पश्चिम बंगाल में 1977 से राज कर रहे वाममोर्चा को सत्ता से बाहर कर दिया.
तस्वीर: UNIइसी साल हुए राज्य विधानसभा चुनाव में फिर शानदार जीत दर्ज की. अब ममता बनर्जी कह रही है लेकिन लोगों को जमीन लौटाने का काम शुरू कर उन्होंने अपना वादा निभाया है. लेकिन साथ ही उन्होंने टाटा और बीएमडब्ल्यू जैसी कंपनी को भी राज्य में आने का न्यौता दिया है.
तस्वीर: UNI जंगल में रहने वालों की समस्या यह है कि वे पीढ़ियों से उस जमीन पर रहते आ रहे हैं लेकिन उनके पास किसी तरह का दस्तावेज नहीं है. सिर्फ 5 फीसदी आदिवासियों के पास उस जमीन के कागज हैं जिस पर वे रह रहे हैं. वन अधिकार कानून ऐसे आदिवासियों को जंगल की जमीन और उसके संसाधनों पर हक दे सकता है. इस कानून से वन प्रशासन का तरीका भी बदल सकता है और ग्रामीण जिंदगियों में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकते हैं. आरआरआई का कहना है कि ऐसा हो पाए तो यह भारत का सबसे बड़ा भूमि सुधार बन सकता है.
लेकिन बहुत कम राज्यों ने इस कानून को पूरी तरह लागू करने की कोशिश की है. आदिवासी मामलों के मंत्रालय के मुताबिक जमीन पर अधिकार के आधे से ज्यादा दावे खारिज किए जा चुके हैं. बीते साल में 29 राज्यों में से 11 ने तो एक भी व्यक्ति को जमीन का अधिकार नहीं दिया है.
इस कानून के तहत पंचायतों को अपने जंगल की जमीन पर विकास परियोजनाओं को पास करने का अधिकार भी मिलता है. लेकिन खरे इस बात को लेकर भी चिंतित हैं. वह कहते हैं, "लोगों में कानून के बारे में जागरूकता बहुत कम है. ज्यादातर दावे तो बहुत छोटी छोटी बातों को आधार बनाकर खारिज कर दिए जाते हैं."
देखिए, गटर में रहने वाले बच्चे
रोमानिया की राजधानी बुखारेस्ट में कई अनाथ और गरीब बच्चे शहर के मैन होल में, यानि जमीन के नीचे बिछाए गए पाइपों में रहते हैं. कैसा है उनका जीवन, देखते हैं तस्वीरों में.
तस्वीर: Jodi Hilton19 साल की क्रिस्टीना नशीली दवा ऑरोलैक का नशा करती है और उसका कोई घर नहीं. बुखारेस्ट में उसकी तरह 1,000 से 6,000 अनाथ बच्चे हैं. जिनके सिर पर छत नहीं. वो कहती है, "यहां हमारे पास पानी, कपड़े कुछ नहीं हैं और कभी कभी खाने को भी कुछ नहीं मिलता."
तस्वीर: Jodi Hiltonकई किशोरों ने जमीन के नीचे अपना ड्रॉइंगरूम बसा लिया है. कारिना यहां बुखारेस्ट के बड़े से हीटिंग और जलनिकासी प्रणाली की संरचना में रहते हैं. रोशनी के लिए मोमबत्ती जलाते हैं. कई अनाथ बच्चे अनाथश्रमों में रहे और बड़े होने के बाद वहां से भाग कर यहां पहुंच गए.
तस्वीर: Jodi Hiltonरोमेनियाई क्रांति के 25 साल बाद अनाथ, ड्रग्स की लत में पड़े बच्चों की एक नई पीढ़ी शहर के मैन होल में सुरक्षा ढूंढ रही है. छोटा, दुखी और परेशानियों से भरा जीवन. 19 साल की मोना दूसरी बार गर्भवती है और अपने जीवनसाथी और बेटी के साथ गटर में रहती है.
तस्वीर: Jodi Hiltonरेमुस 20 साल के हैं और शहर नीचे एक कोने में घर बनाए हैं. चूंकि उत्तरी स्टेशन के पास की नालियों में बहुत लोग रहते हैं इसलिए वो यहां पियाटा विक्टोरी के नीचे रहते हैं. शहर के हीटिंग सिस्टम के पास होने से यहां सर्दियों में थोड़ा गर्म रहता है और जगह भी काफी है.
तस्वीर: Jodi Hiltonरोमानिया का अनाथाश्रम सिस्टम तानाशाह निकोलाई चाउषेस्कू के दौर में शुरू किया गया क्योंकि उन्होंने गर्भपात पर रोक लगा दी थी. 1990 के दशक में इनकी हालत खराब हो गई क्योंकि देश में ही खाने पीने के सामान की भारी कमी थी. कई बच्चे इन अनाथाश्रमों से भाग गए.
तस्वीर: Jodi Hiltonबुखारेस्ट के उत्तरी स्टेशन के पास पार्क से अंडरग्राउंड में थैली पहुंचाता एक व्यक्ति. ये पार्क ड्रग तस्करों और इनका सेवन करने वालों का अड्डा है. यहां बच्चों ने सबसे पहले शहर के नीचे जलनिकास प्रणाली में ठिकाना बनाया था.
तस्वीर: Jodi Hiltonबुखारेस्ट के मध्यम वर्गीय इलाके में एक ड्रग डीलर के यहां रह रहा जोड़ा. रोमानिया की राजधानी में करीब 6000 लोग बेघर हैं. इनमें से अधिकतर सर्दियों में जमीन के नीचे आसरा ढूंढते हैं.
तस्वीर: Jodi Hiltonचार साल की पेपिटा नाश्ता खा रही है जबकि उसकी बहन क्रिस्टीना प्लास्टिक की थैली से ऑरोलैक स्प्रिट सूंघ रही है, जिससे उसे नशा होता है. वह कहती है, "नालियों में रहना आसान नहीं. कभी कभी यहां इतने लोग होते हैं कि यहां सो ही नहीं सकते. मेरी इच्छा है कि मैं कभी किंडरगार्टन में जाऊं."
तस्वीर: Jodi Hiltonसभी बेघर जमीन के नीचे नहीं रहते. 32 साल की गर्भवती निकोलेटा अपने जीवनसाथी और दो बच्चों के साथ स्टेशन के पास रहती हैं. उनके पहले दो बच्चे सरकारी संरक्षण में रह रहे हैं लेकिन उन्हें उम्मीद है कि तीसरे बच्चे को खुद पाल पाएंगी.
तस्वीर: Jodi Hilton24 साल के सेरजियू अनाथाश्रम में बड़े हुए. वहां से भाग गए और नशा करने लगे. वो बताते हैं, "मैं नालियों में भी रहा. मैं नशा छोड़ना चाहता था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं तो मैं पुल के नीचे आकर रहने लगा."
तस्वीर: Jodi Hilton इसका नतीजा एक बड़ी लड़ाई के रूप में सामने आ सकता है. खरे बताते हैं कि वन्य जमीन पर अधिकारों का यह मसला सुलझाए बिना उद्योगों को जमीन देने का दांव उलटा पड़ सकता है. भारत में हाल के बरसों में जमीन को लेकर विवाद बढ़ा है. उद्योगों और विकास परियोजनाओं के लिए जमीन चाहिए. लेकिन जब जमीन ली जाती है तो उस पर रहने वाले लोग तीखा विरोध करते हैं. यूं भी वन देश के सबसे पिछड़े इलाकों में ही हैं. और यही इलाके हिंसा से भी ग्रस्त हैं. पिछले हफ्ते झारखंड में ऐसे ही एक जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन में शामिल लोगों पर पुलिस ने गोली चलाई. इस गोलीबारी में चार लोगों की जान गई.
खरे कहते हैं कि सरकारें इस बात को नजरअंदाज कर रही हैं कि स्थानीय लोग वनों का इस्तेमाल करेंगे तो इससे खाद्य सुरक्षा बढ़ेगी. वनों की जमीन पर अधिकार आदिवासी इलाकों के विकास में अहम भूमिका निभा सकता है. ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में यह बात दिख भी रही है, जहां करीब 50 लाख हेक्टेयर जमीन लोगों को दी गई है. लेकिन जब तक यह काम पूरा नहीं हो जाता, विवाद और विरोध जारी रहेगा.
वीके/एके (रॉयटर्स)