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यूपी में मुस्लिम मतदाता किस ओर जाएगा

२८ जनवरी २०२२

उत्तर प्रदेश के करीब 20 फीसदी मुसलमान मतदाताओं पर सभी पार्टियों की नजर है और मतदाताओं को भी इन पार्टियों से कुछ उम्मीदें हैं. जानकार आगामी पांच राज्यों के चुनाव को 2024 के आम चुनाव के लिए सेमीफाइनल भी बता रहे हैं.

फाइलतस्वीर: Reuters/R. De Chowdhuri

भारतीय जनता पार्टी विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में मुस्लिम वोटों के बंटवारे से चुनावी जीत को आसान बनाती आई है. कई ऐसी सीटें होती हैं जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाता है. बीते दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि राज्य में चुनाव 80 फीसदी बनाम 20 फीसदी होगा. विपक्ष ने इस बयान को ध्रुवीकरण करने वाला बयान बताया. हालांकि बीजेपी पर हमेशा से ही बहुसंख्यक की राजनीति करने के आरोप लगते आए हैं.

पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा सियासी गर्मी यूपी में ही महसूस की जा रही है. अगले कुछ दिनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. पंजाब के अलावा बाकी चार राज्यों में बीजेपी सत्ता में है.

लेकिन सभी की निगाहें देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य यूपी पर हैं. चुनाव के नतीजे बीजेपी ही नहीं बल्कि अन्य राजनीतिक दलों व धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है.

2014 में जब से केंद्र में बीजेपी की सरकार बनी है तब से देश के मुसलमानों के खिलाफ एक राजनीतिक नफरत की लहर चली है. ऐसे में मुस्लिम बुद्धिजीवियों का कहना है कि खासकर यूपी में चुनाव मुसलमानों की राजनीतिक समझ और बुद्धि की परीक्षा है. 

कौन हैं धर्मनिरपेक्ष

मुस्लिम बुद्धिजीवी इस बात से सहमत नहीं हैं कि मुस्लिम वोट अर्थहीन हो गए हैं. हालांकि उन्होंने स्वीकार किया कि मुस्लिम राजनीतिक नेताओं को हराने के लिए उनकी संख्या पर्याप्त नहीं है. वह इसके लिए बीजेपी की जगह तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को जिम्मेदार ठहराते हैं.

राजनीतिक जागरूकता में सक्रिय संगठन मुस्लिम पॉलिटिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. तस्लीम अहमद रहमानी ने कहा, ''थोड़ा सा अंतर है. हिंदू वोट खोने के डर से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां मुस्लिम उम्मीदवार चुनावी मैदान में नहीं उतारती. वो चाहती है कि मुस्लिम नेता उनके करीब ना आए."

उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "जहां तक ​​आम मतदाताओं का सवाल है, बीजेपी समेत हर राजनीतिक दल मुस्लिम वोट को महत्वपूर्ण मानता है." हालांकि दिल्ली स्थित थिंक टैंक इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडी (आईओएस) के अध्यक्ष डॉ. मोहम्मद मंजूर आलम ने कहा कि देश के इतिहास को बदलने की कोशिश करने वाली पार्टियां मुसलमान उम्मीदवारों को महत्व नहीं देती. इसकी वजह आम है. डॉ. आलम का मानना ​​है कि मुसलमानों को 'नीतिगत' दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है. डीडब्ल्यू से वे कहते हैं, "मुसलमानों को पहले यह देखना चाहिए कि किस उम्मीदवार के जीतने की सबसे अधिक संभावना है और वह भारतीय संविधान की सुरक्षा और देश के विकास को लेकर कितना ईमानदार है. हमें सही उम्मीदवार के लिए वोट करना चाहिए. और हमें ऐसे उम्मीदवारों के खिलाफ जागरूकता बनानी चाहिए जो उपयुक्त नहीं है."

मुस्लिम उम्मीदवार जीत क्यों नहीं सकते? 

उत्तर प्रदेश के 403 विधानसभा क्षेत्रों में से लगभग 140 निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाता 20 से 70 प्रतिशत हैं. लेकिन उनमें से अधिकांश में बीजेपी उम्मीदवार सफल होते हैं. डॉ. रहमानी का कहना है कि जिम्मेदारी मुस्लिम वोटरों की नहीं बल्कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की है. डॉ. रहमानी कहते हैं, "हर कोई जानता है कि एक समुदाय के पास किस सीट पर कितने वोट हैं, इसलिए जहां मुस्लिम वोट 30 प्रतिशत से अधिक है, वहां भी सभी धर्मनिरपेक्ष दल अपने-अपने उम्मीदवार खड़े करते हैं. इसलिए वोट बंट जाते हैं और बीजेपी आसानी से जीत जाती है."

उन्होंने कहा कि यूपी में पहले चरण के तहत जहां 10 फरवरी को 58 सीटों पर मतदान होना है, दूसरे दलों ने 13 सीटों पर तीन मुस्लिम उम्मीदवार और छह सीटों पर दो मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं. उनका कहना है कि इस तरह से बीजेपी विरोधी पार्टियों ने 19 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों की जीत की संभावना कम कर दी है.

2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में प्रमुख धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों ने 172 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, लेकिन मुस्लिम उम्मीदवारों के बीच प्रतिस्पर्धा के कारण केवल 24 ही जीत सके. मुस्लिम उम्मीदवार 84 सीटों पर दूसरे और 64 सीटों पर तीसरे स्थान पर रहे. इससे पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में रिकॉर्ड 67 मुस्लिम उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी.

मुसलमानों की रणनीति

डॉ. रहमानी ने सुझाव दिया है कि राज्य स्तर पर किसी एक राजनीतिक दल को समर्थन नहीं दिया जाना चाहिए बल्कि धर्मनिरपेक्ष दलों के उम्मीदवारों को उनकी जीतने की क्षमता के आधार पर समर्थन दिया जाना चाहिए. और गैर सरकारी संगठनों और दबाव समूहों को ऐसे उम्मीदवारों के लिए प्रचार करना चाहिए. उनका कहना है अकेले यूपी में ऐसी 140 सीटों पर ऐसा अभियान चलाया जा सकता है.

डॉ. आलम ने इस मुद्दे के एक अन्य पहलू की ओर इशारा करते हुए कहा, "मुसलमानों की एक बड़ी कमजोरी यह है कि वे एक अच्छे उम्मीदवार के लिए कड़ी मेहनत तो करते हैं, लेकिन उसके जीत जाने के बाद उससे कोई नाता नहीं रखते हैं और वे यह सोचते हैं कि जीता हुआ उम्मीदवार उनके पास आएगा."

आम धारणा के उलट मुस्लिम बुद्धिजीवियों का कहना है कि यह पूरी तरह सच नहीं है कि भारत में मुस्लिम नेतृत्व की कमी है. उनका कहना है कि नेतृत्व का मुद्दा दोतरफा है.

डॉ. आलम नेतृत्व के मुद्दे को एक उदाहरण के माध्यम से समझाने की कोशिश करते हुए कहते हैं, "अगर एक घर में आग लग जाती है और लोग डर के मारे घर से भाग रहे होते हैं, तो वे पीछे मुड़कर भी नहीं देखते. जो आग लगी थी वह अभी भी जल रही है या बुझ गई है. भारतीय मुसलमानों का भी यही हाल है. कुछ अच्छे मुसलमान नेता भी हैं जो अच्छा काम कर रहे हैं."

थिंक टैंक आईओएस के अध्यक्ष डॉ. आलम ने कहा, "यह मुसलमानों पर निर्भर है कि वे किस तरह का नेतृत्व चाहते हैं. देश में मुसलमानों को जज्बाती नहीं होना चाहिए बल्कि उनके अंदर जज्बा होना चाहिए."

रिपोर्ट: जावेद अख्तर, आमिर अंसारी

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