भारत बनाम अमेरिका: कारोबारी विवाद किसे पड़ेगा ज्यादा भारी?
४ सितम्बर २०२५
जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून 2023 में अमेरिका का राजकीय दौरा किया था, तो उनका भव्य स्वागत किया गया था. यह देखकर साफ तौर पर पता चल रहा था कि अमेरिका भारत के साथ अपने रिश्ते को कितना महत्व देता है और वह दोनों देशों के मजबूत संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए कितना उत्सुक था. तत्कालीन राष्ट्रपति जो बाइडेन ने नरेंद्र मोदी का स्वागत करते हुए कहा था, "मेरा लंबे समय से मानना रहा है कि अमेरिका और भारत के बीच संबंध 21वीं सदी के सबसे निर्णायक संबंधों में से एक होंगे.”
लेकिन जब प्रधानमंत्री मोदी इस साल की शुरुआत में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से मिलने व्हाइट हाउस पहुंचे, तो पिछली बार जैसी भव्यता तो नहीं थी, फिर भी दोनों नेताओं ने गर्मजोशी से मुलाकात की और कई समझौतों पर बातचीत की. छह महीने बाद, स्थिति नाटकीय रूप से बदल गई है. 27 अगस्त से, अमेरिकी बाजार में जाने वाले ज्यादातर भारतीय सामानों पर 50 फीसदी शुल्क लग रहा है, जो दुनिया में सबसे ज्यादा दरों में से एक है.
ट्रंप के साये में भारत और जर्मनी, एक-दूसरे को कितनी राहत दे पाएंगे?
दरअसल, अप्रैल में ट्रंप ने अपने व्यापारिक साझेदारों पर शुल्क लगाने की बड़ी घोषणा की थी. इसके बाद, व्यापार वार्ता के दौरान अमेरिका और भारत के बीच कोई समझौता न हो पाने के बाद तनाव तेजी से बढ़ गया. हालात तब और बिगड़ गए जब ट्रंप ने रूसी तेल की खरीद को लेकर भारत पर 25 फीसदी अतिरिक्त शुल्क लगाने की घोषणा की.
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के एक प्रमुख रणनीतिक साझेदार के साथ बिगड़ते संबंधों ने वाशिंगटन में उन लोगों को चिंतित कर दिया है जो भारत के साथ संबंधों को क्षेत्रीय स्थिरता और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं. इस बीच, भारत में भी इस बात को लेकर काफी ज्यादा चिंता है कि ये शुल्क देश की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था पर किस तरह असर डालेंगे.
हालात इतने क्यों बिगड़ गए?
वाशिंगटन स्थित सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज (सीएसआईएस) में ‘चेयर ऑन इंडिया एंड इमर्जिंग एशिया इकोनॉमिक्स' के प्रमुख रिक रॉसो ने डीडब्ल्यू को बताया कि उनका मानना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से भारत के ‘संरक्षणवाद' पर सवाल उठाना सही था. हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि इन मुद्दों से निपटने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हथकंडे और बयानबाजी ‘कठोर' हैं और मोदी को राजनीतिक नुकसान पहुंचा रहे हैं.
कई लोगों का कहना है कि भारत ने रूसी तेल खरीदना बंद करने से इनकार कर दिया. इस वजह से अमेरिका के साथ चल रही उसकी बातचीत सफल नहीं हुई. जबकि, येल विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई अध्ययन के व्याख्याता सुशांत सिंह का मानना है कि यह इस साल मई में हुए भारत-पाकिस्तान संघर्ष और युद्धविराम वार्ता में ट्रंप की भूमिका से जुड़ा है.
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "ट्रंप और उनके अधिकारी दावा करते हैं कि यह युद्धविराम उनकी वजह से हुआ. जबकि, मोदी अपने देश में यह दिखाना चाहते हैं कि युद्धविराम इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने पाकिस्तान पर जोरदार प्रहार किया और पाकिस्तान घुटनों के बल आकर युद्धविराम की भीख मांग रहा था.”
सुशांत सिंह आगे बताते हैं, "मुझे लगता है कि यह एक ऐसा मामला है जहां मोदी ट्रंप के आगे झुकने का जोखिम नहीं उठा सकते. अगर वे ऐसा करते हैं तो देश में दिया गया उनका राजनीतिक तर्क बेअसर हो जाएगा.”
भारत पर इसका क्या असर होगा?
भारतीय अर्थव्यवस्था अमेरिकी शुल्क की वजह से काफी ज्यादा दबाव में है. अमेरिका इसका सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. भारत ने 2024 में अमेरिका को लगभग 87 अरब डॉलर मूल्य की वस्तुओं का निर्यात किया. नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक ‘ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव' का अनुमान है कि 2026 में यह आंकड़ा 40 फीसदी से ज्यादा घटकर करीब 50 अरब डॉलर पर पहुंच जाएगा.
भारत अमेरिका को मुख्य रूप से कपड़ा, आभूषण और रत्न जैसे सामान निर्यात करता है. ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव का मानना है कि अगले 12 महीनों में इनमें से कुछ क्षेत्रों के निर्यात में भारी गिरावट आ सकती है. इससे लाखों लोगों की नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं.
वहीं, रॉसो का मानना है कि चूंकि शुल्क में सिर्फ वस्तुओं और विनिर्माण क्षेत्र को ही टारगेट किया गया है, इसलिए ‘वास्तविक अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव सीमित रहेगा.' इसकी वजह यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था में इन क्षेत्रों की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम यानी करीब 14 फीसदी ही है. हालांकि, उन्होंने यह भी बताया कि मोदी विनिर्माण क्षेत्र और 'मेक इन इंडिया' नीतियों को प्राथमिकता दे रहे हैं. उन्होंने कहा, "सबसे बड़े निर्यात बाजार तक पहुंच कम होने से अर्थव्यवस्था का यह हिस्सा नाजुक मोड़ पर प्रभावित हो सकता है.”
अमेरिका पर क्या असर होगा?
अमेरिका ने 2024 में भारत को लगभग 42 अरब डॉलर मूल्य का सामान निर्यात किया, जो भारत के निर्यात के आधे से भी कम है. सुशांत सिंह कहते हैं, "अगर आप बैलेंस शीट देखें, तो नुकसान मुख्य रूप से भारत को हुआ है. ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद, अमेरिका अब चीन, भारत और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के साथ अलग तरह से व्यवहार कर रहा है. इसका मतलब है कि भारत अब अमेरिका से अपनी शर्तों पर बात नहीं कर पाएगा.” रॉसो कहते हैं कि अमेरिका की तुलना में भारत को आर्थिक रूप से ज्यादा नुकसान होगा, लेकिन अमेरिका को भी इसकी कीमत चुकानी होगी. खास तौर पर, अमेरिकी विश्वविद्यालयों में आने वाले भारतीय छात्रों की संख्या में भारी कमी हो सकती है.
अमेरिकी अदालत ने ट्रंप के टैरिफ अधिकारों पर लगाई रोक
पीटरसन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल इकोनॉमिक्स के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विशेषज्ञ गैरी हफबाउर ने कहा कि एक आर्थिक पहलू यह है कि चीन से कुछ मैन्युफैक्चरिंग यूनिट को भारत स्थानांतरित करने की अमेरिका की पिछली योजना अब खतरे में पड़ गई है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "कुछ समय तक ऐसा लग रहा था कि चीन में बने बहुत से सामानों के लिए भारत वैकल्पिक मैन्युफैक्चरिंग हब बनेगा, लेकिन अब ऐसा होना काफी मुश्किल लग रहा है.”
सिंह ने इस तथ्य की ओर इशारा किया कि ट्रंप की आव्रजन नीति के तहत कुछ भारतीय कामगारों को अमेरिका छोड़ने के लिए मजबूर किया गया. इसके बावजूद, भारतीय-अमेरिकी तकनीक जगत के प्रभावशाली लोगों ने अमेरिकी राष्ट्रपति के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया है. सिंह कहते हैं, "उनमें से कोई भी ट्रंप का सामना नहीं करने वाले हैं, क्योंकि वे भी डरे हुए हैं.”
टैरिफ के बाद भी भारत के लिए क्यों जरूरी है अमेरिका
हालांकि, उन्होंने स्वीकार किया कि ट्रंप के लिए बड़ा जोखिम आर्थिक नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक है. सिंह कहते हैं, "ऐसी स्थिति बन सकती है जहां चीन एक बड़ी एशियाई शक्ति के रूप में उभरे. भारत थोड़ी कम भूमिका स्वीकार करने को तैयार हो और ये दोनों देश भू-राजनीतिक रूप से एक-दूसरे के साथ आ जाएं. यह स्थिति अमेरिका के लिए नुकसानदायक होगी.”
क्या अब भी किसी समझौते की गुंजाइश है?
भारत और अमेरिका अभी भी एक व्यापार समझौता कर सकते हैं. सुशांत सिंह का मानना है कि नई दिल्ली इसे करने के लिए बेताब है. उन्होंने कहा, "वे एक समझौता करना चाहते हैं. वे ट्रंप को जीतने देना चाहते हैं. ट्रंप प्रशासन के व्यवहार को देखते हुए, यह किसी भी समय, किसी भी हफ्ते या किसी भी महीने हो सकता है.”
रॉसो का मानना है कि तनाव कम होना दोनों पक्षों के हित में है. उन्होंने कहा, "भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की कगार पर है. चीन की सैन्य और आर्थिक प्रगति को लेकर हमारी साझा चिंताओं के साथ, क्षेत्रीय सुरक्षा और साझा विकास के लिए एक मजबूत साझेदारी बेहद जरूरी होगी.”
वहीं, सुशांत सिंह का मानना है कि यह पूरा घटनाक्रम घरेलू स्तर पर मोदी के लिए एक गंभीर खतरा है. यह ऐसा कुछ है जो उन्हें बातचीत के लिए मजबूर कर सकता है.