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एपीईसी जैसे समूह या द्विपक्षीय समझौते, किसमें है भारत का हित

मुरली कृष्णन (नई दिल्ली से)
३१ अक्टूबर २०२५

भारत ने अतीत में बहुपक्षीय समूहों में शामिल होने की इच्छा दिखाई है. लेकिन, राष्ट्रपति ट्रंप की लेन-देन पर आधारित शैली के हावी होने के कारण, भारत के लिए द्विपक्षीय समझौते करना ज्यादा बेहतर हो सकता है.

फरवरी 2025 में वाइट हाउस के ओवल ऑफिस में डॉनल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी बात करते हुए
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आसियान शिखर सम्मेलन में व्यक्तिगत रूप से शामिल न होने का फैसला किया. अटकलें लगाई गईं कि वो ट्रंप के साथ आमने-सामने की मुलाकात से बचना चाहते हैंतस्वीर: Ron Sachs/MPI/Capital Pictures/picture alliance

एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपीईसी) शिखर सम्मेलन के लिए दुनिया के अलग-अलग देशों के नेता दक्षिण कोरिया के क्योंगजू में इकट्ठा हुए हैं. यह एक ऐसा समूह है, जो एशिया-प्रशांत क्षेत्र की अर्थव्यवस्थाओं के बीच व्यापार, निवेश और आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देता है.

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शुक्रवार 31 अक्टूबर को मुख्य कार्यक्रम शुरू हो रहा है. शुरुआत से पहले ही, ट्रंप और शी जिनपिंग की मुलाकात इस साल के शिखर सम्मेलन की चर्चा का केंद्र बन गई. इसमें दोनों नेताओं के बीच फिलहाल व्यापार तनाव कम करने पर सहमति बनी.

इस बैठक के साथ ही डॉनल्ड ट्रंप की पांच दिवसीय एशिया यात्रा का समापन हुआ. ट्रंप ने अपनी यात्रा कुआलालंपुर में दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ (आसियान) शिखर सम्मेलन से शुरू की थी.

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आसियान शिखर सम्मेलन में व्यक्तिगत रूप से शामिल न होने का फैसला किया. इससे यह अटकलें लगाई जाने लगीं कि रूसी तेल खरीद को लेकर बढ़ते अमेरिका-भारत तनाव के बीच वह ट्रंप के साथ आमने-सामने की मुलाकात से बचना चाहते थे.

भारत कई वर्षों से एपीईसी में शामिल होने की कोशिश कर रहा है. देश के बढ़ते आर्थिक प्रभाव और अमेरिका तथा दक्षिण कोरिया जैसे कुछ सदस्य देशों के सक्रिय समर्थन के बावजूद, एपीईसी की सदस्यता हासिल करने में भारत को लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.

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इस हफ्ते शिखर सम्मेलनों में एशियाई साझेदारों के साथ ट्रंप की बातचीत, भारत-अमेरिका संबंधों में आई नरमी के दौर के बीच हो रही है.

अनिल वाधवा, रिटायर्ड भारतीय राजनयिक हैं. उनके पास दक्षिण-पूर्व एशिया और व्यापक हिंद-प्रशांत क्षेत्र से जुड़े मामलों के बारे में काफी अनुभव है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "अतीत में, अमेरिका भारत का समर्थन करता रहा है. और, वहां की अलग-अलग सरकारों ने भी सिलसिलेवार तरीके से एपीईसी सदस्यता के हमारे दावे का समर्थन किया है."

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अनिल वाधवा ने बताया कि ट्रंप सरकार के दूसरे कार्यकाल के तहत "भारत या किसी अन्य नए देश को शामिल करने के लिए कोई सक्रिय पहल नहीं हो रही है. यही कारण है कि सदस्यता हासिल करने के प्रयासों में पूरी तरह से ठहराव आ गया है."

विश्लेषकों के मुताबिक, एपीईसी जैसे कई देशों के समूह का हिस्सा बनने की जगह भारत द्विपक्षीय समझौतों को ज्यादा तरजीह देना चाहता हैतस्वीर: Kevin Lamarque/REUTERS

क्या भारत अब भी एपीईसी में शामिल होना चाहता है?

जब भारत ने पहली बार इस समूह में शामिल होने की इच्छा जताई थी, तो उसकी कथित संरक्षणवादी नीतियों को एक बड़ी बाधा माना गया था. हालांकि, अनिल वाधवा इस धारणा को खारिज करते हैं कि एपीईसी से जुड़े कई देश अब भी भारत को व्यापार के प्रति अत्यधिक रक्षात्मक और राजनीतिक रूप से सतर्क मानते हैं. यह धारणा उस मंच के संदर्भ में कही जा रही है, जो खुले बाजारों और सभी की सहमति पर चलता है.

अनिल वाधवा ने कहा, "भारत की नीति संरक्षणवाद की नहीं है. इसके विपरीत, वह खुले और भरोसेमंद मुक्त व्यापार समझौतों को बढ़ावा देना चाहता है. वह एशिया-प्रशांत क्षेत्र के एक बड़े व्यापार समझौते, 'रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकॉनमिक पार्टनरशिप' (आरसीईपी) में शामिल नहीं हुआ. उसे डर था कि चीन मूल नियमों का दुरुपयोग करके भारत में सस्ते माल की बाढ़ ला देगा, जिससे उसका व्यापार घाटा और बढ़ जाएगा."

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उन्होंने आगे कहा, "वर्तमान में, भारत आसियान के साथ अपने मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के प्रावधानों की समीक्षा चाहता है और एपीईसी में शामिल होना चाहता है."

विदेश नीति विशेषज्ञ सी राजा मोहन इस बात से सहमत नहीं हैं. वह ध्यान दिलाते हैं कि भारत, कई पक्षों के बीच आपसी सहयोग की व्यवस्था के मुकाबले अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता और रणनीतिक स्वायत्तता को प्राथमिकता देता है.

उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "अभी भारत की रणनीति अमेरिका, यूरोपीय संघ और कनाडा के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौता करने पर केंद्रित है. यह एपीईसी जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं में शामिल होने के बजाय अपनी मूल शक्तियों और क्षेत्रीय प्रभुत्व का लाभ उठाने की प्राथमिकता को दिखाता है. भारत पहले ही ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के साथ व्यापार समझौता कर चुका है."

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सी राजा मोहन बताते हैं कि भारत के नजरिये पर मौजूदा भू-राजनीतिक माहौल का गहरा असर है. डॉनल्ड ट्रंपकी नीतियां, जियोपॉलिटिक्स और वैश्विक घटनाक्रम को आकार दे रही हैं. ट्रंप सरकार की विदेश नीति का रुख द्विपक्षीय और लेन-देन पर आधारित है.

सी राजा मोहन ने कहा, "नतीजतन, एपीईसी या 'कॉम्प्रिहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप' (सीपीटीपीपी) जैसे बहुपक्षीय मंचों को इस संदर्भ में भारत के लिए कम प्रासंगिक या प्रतिस्पर्धी महत्व वाला माना जाता है."

सीपीटीपीपी, हिंद-प्रशांत क्षेत्र के 12 देशों के बीच एक मुक्त व्यापार समझौता है. इसमें ऑस्ट्रेलिया, ब्रुनेई, कनाडा, चिली, जापान, मलेशिया, मेक्सिको, न्यूजीलैंड, पेरू, सिंगापुर, ब्रिटेन और वियतनाम शामिल हैं.

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दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के यूरोपीय अध्ययन केंद्र के गुलशन सचदेवा ने कहा कि एक तरफ ट्रंप प्रशासन की व्यापार नीति मौजूदा वैश्विक व्यापार नियमों को बुरी तरह प्रभावित कर रही है. साथ ही, यह भारत समेत सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की आर्थिक योजनाओं को अस्थिर कर रही है. इन सबके बावजूद, क्षेत्रीय मंचों के साथ काम करने में भारत की अपनी हिचकिचाहट भी एक कारक है.

गुलशन सचदेवा ने डीडब्ल्यू से बातचीत में बताया, "उभरती एशियाई आर्थिक संरचना में शामिल होने पर भारत का संकोची रवैया, भविष्य में उसे एशिया-प्रशांत क्षेत्र की उत्पादन एवं आपूर्ति शृंखलाओं में पूरी तरह से जुड़ने से रोक सकता है. खासकर, आरसीईपी जैसे बड़े समझौते से अंतिम समय में बाहर हो जाने का फैसला."

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एपीईसी में भारत के शामिल होने की प्रक्रिया ठहर गई है

हर्ष पंत, नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक 'ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन' (ओआरएफ) में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के प्रमुख हैं. उनके मुताबिक, जब तक एपीईसी अपने सदस्यों की संख्या बढ़ाने का फैसला नहीं करता, तब तक भारत को शामिल करने की बात एक सैद्धांतिक चर्चा ही बनी रहेगी.

उनके अनुसार, भारत लंबे समय से एपीईसी की सदस्यता चाहता रहा है, लेकिन समूह के भीतर आंतरिक मतभेदों ने इस प्रक्रिया को काफी समय तक रोके रखा. गुलशन सचदेवा भी इस बात से सहमत हैं. वह एपीईसी की आंतरिक निर्णय प्रक्रिया के साथ-साथ "आर्थिक उदारीकरण के प्रति भारत के सतर्क दृष्टिकोण" को अहम रुकावटों में गिनते हैं.

भारत एपीईसी का हिस्सा नहीं है. फिर भी, इसके कई सदस्यों के साथ उसके घनिष्ठ राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक संबंध हैं. जैसा कि हर्ष पंत बताते हैं, "आसियान देशों, ऑस्ट्रेलिया और जापान सहित कई हिंद-प्रशांत अर्थव्यवस्थाएं भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत कर रही हैं. भारत को कभी संरक्षणवादी माना जाता था, लेकिन अब वह समान विचारधारा वाले देशों के साथ द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते करने की ओर बढ़ रहा है."

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