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आधार और वोटर कार्ड जोड़ने के कानून पर विपक्ष क्यों असहमत है?

२३ दिसम्बर २०२१

विपक्ष और सिविल सोसाइटी का कहना है कि आधार कार्ड को वोटर कार्ड से जोड़ने का संशोधित कानून लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए सेहतमंद नहीं है. इसे मतदाता की निजता पर हमला हो सकता है.

तस्वीर: R S Iyer/AP Photo/picture alliance

आधार कार्ड को वोटर कार्ड से जोड़ने संबंधी निर्वाचन विधि (संशोधन) विधेयक 2021, इस हफ्ते राज्य सभा से पास हो गया. अब राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद ये बिल कानून की शक्ल ले लेगा. इस बिल के बाद भारत की चुनावी प्रक्रिया के लिए तय लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (1950 और 1951) में कुछ नए प्रावधान जुड़ जाएंगे.

भारत के निचले सदन लोक सभा से ये बिल 20 दिसंबर को विपक्ष के भारी हंगामे के बीच पास हुआ था. 21 दिसंबर को बिल राज्य सभा में पेश किया गया. यहां भी खूब हंगामा हुआ और विपक्ष के वॉकआउट के बीच ध्वनिमत से बिल पास हो गया. विपक्ष को इस बिल के कुछ प्रावधानों से ऐतराज था. सबसे बड़ा ऐतराज है- आधार कार्ड को वोटिंग कार्ड से लिंक करने पर. उस पर बात करने से पहले जानिए नए प्रावधान क्या हैं.

चार नए प्रावधान

1. आधार कार्ड और वोटर कार्ड को जोड़ना- मौजूदा कानून के हिसाब से आवेदक को वोटर कार्ड बनवाने के लिए निर्वाचन अधिकारी के पास जाना होता है. अगर निर्वाचन अधिकारी दी गई जानकारी से संतुष्ट हो तो वोटर कार्ड बन जाता है. नए प्रावधान के तहत निर्वाचन अधिकारी इस प्रक्रिया में आधार कार्ड की मांग कर सकते हैं. हालांकि, इसे ऐच्छिक प्रावधान बनाया गया है. यानी आवेदक चाहे तो आधार कार्ड देने से इनकार भी कर सकता है. इस संशोधन में वोटर कार्ड बनाने या वोटर लिस्ट से नाम हटाने के लिए आधार कार्ड अनिवार्य नहीं किया गया है.

2. निर्वाचन सूची में नाम शामिल करने की तारीख- 1950 के कानून के तहत नई निर्वाचन सूची में नाम दाखिल करवाने के लिए कट-ऑफ तारीख 1 जनवरी होती थी. फिर अगले साल सूची संशोधित की जाती है. नए प्रावधान में साल में चार बार- 1 जनवरी, 1 अप्रैल, 1 जुलाई, 1 अक्टूबर- को सूची अपडेट की जाएगी.

3. निर्वाचन प्रक्रिया के लिए जगह- चुनावी प्रक्रिया जैसे ईवीएम मशीन, मतदान सामग्री रखने और सुरक्षा बलों के रहने के लिए इस्तेमाल होने वाली जगहें सुनिश्चित करने के लिए तय प्रक्रिया का दायरा बड़ा किया गया.

4. जेंडर-न्यूट्रल शब्दावली- 1950 के कानून के तहत सशस्त्र बलों के जवान या विदेशों में तैनात भारतीय कर्मचारियों की पत्नियों को देश के आम नागरिक की तरह माना जाता था. सशस्त्र बल के जवान या कर्मचारी को मतदान की इजाजत ना होने के बावजूद उनकी पत्नियों को मतदान केंद्र पर या फिर पोस्टल बैलट की मदद से वोट करने की इजाजत है. नए प्रावधान में पत्नी शब्द की जगह ‘पति या पत्नी' शब्द लिखा गया है.

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केंद्रीय विधि मंत्री किरण रिजिजू के मुताबिक, इस बिल से किसी का पता जानने और फर्जी मतदान रोकने में मदद मिलेगी. सरकार ने इस विधेयक से आधार और निर्वाचन सूची को जोड़कर "बहु-नामांकन की बुराई” को नियंत्रित करना उद्देश्य बताया है. यही ऐसा बिंदु है, जिस पर विपक्ष समेत सिविल सोसाइटी को आपत्ति है?

क्या आपत्तियां हैं?

विपक्ष और सिविल सोसाइटी का मानना है कि आधार प्रणाली खुद खामियों से भरी है. विपक्ष ने इस बिल को संसद की स्थायी समिति के पास भेजे जाने की वकालत की थी. लोकसभा में कांग्रेस दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि इस जल्दबाजी से सरकार के इरादे ठीक नहीं लगते. साथ ही आरोप लगाया कि उत्तर प्रदेश चुनाव में इस बिल का गलत इस्तेमाल किया जाएगा.

सिविल सोसाइटी के कई संगठन आधार प्रणाली का यूपीए के दौर से ही विरोध करते आए हैं. एमनेस्टी, एडीआर, पीपल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज जैसे 500 से ज्यादा संगठनों ने आधार-वोटर कार्ड जोड़ने पर कुछ आपत्तियां उठाई हैं.

1. आधार कार्ड नागरिकता का नहीं, पहचान का प्रमाण है. ऐसे में किसी का नाम निर्वाचन सूची में जोड़ने या हटाने के लिए इसे आधार नहीं बनाया जा सकता. आधार कार्ड देश के निवासियों को जारी किया जाता है. जरूरी नहीं है कि हर वयस्क निवासी भारतीय गणराज्य का नागरिक या मतदाता हो. हालांकि, नए प्रावधानों के मुताबिक, आधार कार्ड से वोटिंग कार्ड जोड़ना ऐच्छिक है, कोई बाध्यता नहीं.

2. बीते सालों में कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जहां आधार का इस्तेमाल सत्यापन के लिए किया गया हो. जैसे- राशन वितरण या मनरेगा योजना. मीडिया रिपोर्ट्स से सामने आया है कि किस तरह गलत आधार कार्ड व्यवस्था की वजह से राशन मिलने और मनरेगा का पैसा मिलने में लोगों को दिक्कतें पेश आई हैं.

3. साल 2015 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में निर्वाचन सूची के "शुद्धिकरण" के लिए इसका मिलान आधार कार्ड से किया गया था. जिसकी वजह से बहुत बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम सूची से हट गए थे.

4. संस्थाएं शक जताती हैं कि मतदाता डेटाबेस को आधार डेटाबेस से जोड़ना मतदाताओं की निजता से खिलवाड़ है. इसे मतदाता के बारे में जानकारियां जुटाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. किस वोटर ने किसे और कहां वोट दिया, ऐसी जानकारी पैटर्न खोजने में मदद करेगी और किसी खास इलाके के नागरिकों पर कड़ी निगरानी का सबब बन सकती है.

5. जब आधार प्रणाली शुरू की गई थी, तब अनिवार्यता की कोई शर्त नहीं थी. लेकिन धीरे-धीरे इसे हर जगह अनिवार्य कर दिया गया. पैन कार्ड हो या बैंक खाता, हर जगह आधार कार्ड मांगा जाता है. इसी तरीके से निर्वाचन सूची में नाम शामिल करने के लिए आधार कार्ड का होना चाहे कानून ना बने, लेकिन रिवायत बन जाने की आशंका है.

6. निर्वाचन सूची की शुचिता बनाए रखने के लिए रिवायत है कि हर साल घर-घर जाकर सूची में उपलब्ध जानकारी की दोबारा पुष्टि की जाती है. आधार प्रणाली में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. किस नागरिक को वोट डालने का अधिकार हो, किसे नहीं, ये निम्न स्तर की सत्यापन प्रक्रिया पर नहीं छोड़ा जा सकता.

असंवैधानिक है कानून?

इस संशोधन की संवैधानिकता पर एक सिरा सुप्रीम कोर्ट की ‘निजता का अधिकार जजमेंट' से भी आता है. नागरिकों से जुटे डेटा का इस्तेमाल करने से पहले सरकार को एक वाजिब चाहिए. सिविल सोसाइटी के मुताबिक, निर्वाचन सूचियों में कितना दोहराव है, इसके आंकड़े सरकार के पास नहीं हैं. आधार कार्ड से लिंक किए जाने से खामियां खत्म हो जाने का कोई सबूत भी सरकार के पास नहीं है. कुछ कार्यकर्ता कहते हैं कि ऐसे में सरकार का लाया बिल असंवैधानिक है.

केंद्र सरकार कई मौकों पर आधार प्रणाली को सुरक्षित बताती रही है. आम लोगों के बीच भी और सुप्रीम कोर्ट जैसी संवैधानिक संस्थाओं में भी. पुरानी रणनीति पर आगे बढ़ते हुए सरकार ने विपक्ष और सिविल सोसाइटी के विरोध के बावजूद दोनों सदनों से ये विधेयक पास करवा लिया.

राज्य सभा से बिल पास होने के बाद अगले ही दिन दोनों सदनों की कार्रवाई तय समय से एक दिन पहले ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गई. बहुत संभावना है कि विपक्ष और सिविल सोसाइटी से जुड़े लोग जल्द ही सुप्रीम कोर्ट में इस संशोधन के खिलाफ याचिका दायर करें. 

रिपोर्ट: रजत शर्मा

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