एक नई रिपोर्ट के मुताबिक भारत को 2030 तक अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बिजली उत्पादन क्षमता को तीन गुना करने के लिए 24,440 अरब रुपये चाहिए. नेट जीरो उत्सर्जन के लक्ष्य हासिल करने के लिए इससे भी ज्यादा धनराशि की आवश्यकता होगी.
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भारत में बिजली के उत्पादन के लिए कोयले का इस्तेमाल पूरी दुनिया के लिए चर्चा का विषय बना हुआ है. कोयले पर निर्भरता को घटाने के लिए अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बिजली बनाने की जरूरत है, लेकिन भारत जैसे ऊर्जा के भूखे देशों के लिए यह एक बड़ी चुनौती है.
दुबई में होने वाले संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन कॉप 28 में भारत की स्थिति पर चर्चा होगी. कुछ रिपोर्टों के मुताबिक भारत से उम्मीद की जा रही है कि वह अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बिजली बनाने की अपनी क्षमता को 2030 तक तीन गुना बढ़ाने की घोषणा करे.
भारत की स्थिति
लेकिन ब्रिटेन स्थित एक निजी संस्था 'एम्बर' की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत के लिए सिर्फ इतना कर पाना भी बहुत बड़ी चुनौती है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अक्षय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करने के लिए भारत को करीब 24,440 रुपयों के निवेश की जरूरत होगी. लेकिन सिर्फ इतना करना भी शायद काफी ना हो.
अपनी बिजली खुद बनाते भारत के गांव
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अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) ने अक्टूबर, 2023 में अपनी नेट जीरो रोडमैप रिपोर्ट जारी की थी जिसमें नेट जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के तरीके की बात की गई थी. इस रिपोर्ट ने सुझाव दिया था कि तीन गुना के लक्ष्य में भारत का सही योगदान तब ही होगा जब उसकी करीब 32 प्रतिशत बिजली सौर ऊर्जा से बनेगी और 10 प्रतिशत पवन ऊर्जा से.
इस लक्ष्य को 2030 तक हासिल करना होगा. लेकिन 'एम्बर' की रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2023 में भारत में बनी कुल बिजली में सौर ऊर्जा की हिस्सेदारी सिर्फ छह प्रतिशत थी. पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी करीब चार प्रतिशत थी. यानी मौजूदा स्थिति और लक्ष्य में काफी फासला है.
निवेश की चुनौती
भारत की राष्ट्रीय बिजली नीति 2014 (एनईपी14) में भी अक्षय ऊर्जा के कुछ लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, लेकिन ये आईए के नेट जीरो लक्ष्यों के मुकाबले कम हैं. 'एम्बर' की रिपोर्ट के मुताबिक आईईए के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए भारत को सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के उत्पादन को पांच गुना बढ़ाना होगा.
इतना ही नहीं, उसे यह काम 2027 तक कर लेना होगा. इसमें मुख्य चुनौती निवेश की है. 'एम्बर' के मुताबिक सिर्फ एनईपी14 के ही लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत को 2023 से 2030 के बीच 24,440 अरब रुपयों के निवेश की जरूरत होगी.
लेकिन आईईए के लक्ष्य को हासिल करने के लिए 8,413 अरब रुपयों की अतिरिक्त फंडिंग की जरूरत होगी. इसमें उत्पादन क्षमता बढ़ाने के साथ साथ भंडारण क्षमता और वितरण को भी बढ़ाने का खर्च शामिल है.
अब ऐसे में भारत के सामने चुनौती यह होगी कि वह इस निवेश को कहां से लाएगा. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत को अंतरराष्ट्रीय फंडिंग की जरूरत पड़ेगी. देखना होगा कि कॉप 28 में इस तरह के किसी निवेश की घोषणा होती है या नहीं.
खेतों में सौर ऊर्जा से हो रहा दोगुना मुनाफा
पूरी दुनिया में सौर ऊर्जा की मदद से किसान दोगुना कमा रहे हैं. खेतों के ऊपर सौर ऊर्जा के पैनल लगा देने से नीचे फसलें उगती हैं और ऊपर बिजली पैदा होती है. पैनलों की छांव से पानी बचाने में मदद मिलती है और पैदावार भी बढ़ती है.
तस्वीर: picture alliance/blickwinkel/R. Linke
फल भी उगाइए, बिजली भी बनाइए
फाबियान कार्टहाउस जर्मनी में फोटोवोल्टिक पैनलों के नीचे रसबेरी और ब्लूबेरी उगाने वाले पहले किसानों में से हैं. उत्तर-पश्चिमी जर्मनी के शहर पैडरबॉर्न में स्थित उनका सौर खेत करीब एक एकड़ में फैला है, लेकिन वो उसे 10 एकड़ का बनाना चाहते हैं. ऐसे करने से वो इतनी बिजली बना पाएंगे जो करीब 4,000 घरों के काम आएगी. इसके अलावा उन्हें बाजार में बेचने के लिए बेरियां भी मिल जाएंगी.
तस्वीर: Gero Rueter/DW
प्लास्टिक की छत की जगह शीशे का पैनल
अभी तक कई किसान नाजुक फलों और सब्जियों को प्लास्टिक के पर्दों के नीचे उगाते थे. लेकिन प्लास्टिक के ये पर्दे सिर्फ कुछ ही साल चलते हैं, महंगे होते हैं और इनसे काफी प्लास्टिक कचरा भी उत्पन्न होता है. निदरलैंड में कई किसान फलों, सब्जियों को शीशे के पैनलों के नीचे उगा रहे हैं. ग्रोनलेवेन में ये पैनल फसल को तो बचाते हैं ही, ये 30 सालों तक चलते हैं. बिजली बेचने से अतिरिक्त कमाई होती है.
तस्वीर: BayWa r.e.
चीन बढ़ावा दे रहा है एग्रीवोल्टिक को
चीन बड़े पैमाने पर फोटोवोल्टिक का विस्तार कर रहा है और पिछले कुछ सालों से कृषि संबंधित फोटोवोल्टिक या एग्रीवोल्टिक पर भी निर्भर कर रहा है. उत्तरी चीन के हेबेई में स्थित यह प्लांट 24 एकड़ से भी ज्यादा इलाके में फैला है. नीचे अनाज उगाया जाता है. सौर मॉड्यूल पास ही में बनाए जाते हैं. इससे रोजगार के अवसर भी पैदा होते हैं और गरीबी कम करने में भी मदद मिलती है.
दुनिया के सबसे बड़े सौर पार्कों में से कुछ चीन के गोबी रेगिस्तान में हैं, जहां जगह की कोई कमी नहीं है. कुछ स्थानों पर मॉड्यूलों की छांव में फसलें उगाई जाती हैं. इससे मरुस्थलीकरण रुकता है और मिट्टी को फिर से खेती के योग्य बनने में मदद मिलती है.
तस्वीर: TPG/ZUMA/picture alliance
सूखे से मुकाबला
चिली के सैंतिआगो में स्थित यह छोटी से सौर छत दक्षिणी अमेरिका के सबसे पहले एग्रीवोल्टिक प्रणालियों में से है. शोधकर्ता यहां ब्रोकोली और गोभी का इस्तेमाल कर यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि प्रणाली को चलाने का सबसे अच्छा तरीका क्या होगा. इस इलाके में कड़ी धूप होती है और यह कम होती बारिश और बढ़ते सूखे से भी जूझ रहा है. सौर छांव के साथ शुरुआती तजुर्बा सकारात्मक रहा है.
तस्वीर: Fraunhofer Chile
सौर ऊर्जा से पानी
रवांडा की ये किसान सौर ऊर्जा से चलने वाले एक चलते फिरते जल पंप से अपनी जीविका चलाती हैं. एक छोटे से शुल्क के बदले वो अपने पंप को दूसरे किसानों के खेतों तक ले जाती हैं और आस पास के पानी के स्रोतों से उनकी सिंचाई करती हैं. पूरे अफ्रीका में कृषि में सौर ऊर्जा के उपयोग की संभावनाएं हैं.
तस्वीर: Ennos
सौर ऊर्जा के साथ मछली पालन
यह अनोखा इंतजाम पूर्वी चीन में शंघाई से 150 किलोमीटर दक्षिण की तरफ स्थित है. इस तालाब में पीपे के पुलों पर सौर पैनल तैरते हैं और उनके नीचे मछली पालन होता है. पैनलों को इस तरह सजाया गया है कि मछलियों को भी पर्याप्त रोशनी मिले. लगभग 740 एकड़ में फैले ये पैनल 1,00,000 परिवारों के लिए बिजली बनाते हैं.
एक वैकल्पिक दृष्टिकोण
सौर पैनलों को खेतों में लंबवत रखने से उन्हें दोनों तरफ से रोशनी मिलती है. जर्मनी में इस तरह के ढांचे छतों पर लगे पैनलों के जितनी ही बिजली बना सकते हैं. साथ ही साथ ये एक तरह से बाड़ का भी काम करते हैं और हवा से बचाते हैं. खेती के दूसरे उपकरणों को रखने के लिए काफी जगह भी बच जाती है.
तस्वीर: Next2Sun GmbH
जमीन को खाली रखना
बायोगैस और बायो ईंधन के लिए मक्का, गेहूं और गन्ने उगाने में पूरी दुनिया की कृषि योग्य भूमि का चार प्रतिशत इस्तेमाल में लग जाता है. इस ऊर्जा को सौर स्रोतों से बनाना कहीं ज्यादा सस्ता होगा और इसके लिए अभी जितनी जमीन की जरूरत है उसके सिर्फ दसवें भाग की जरूरत होगी. (गेरो रूटर)