आतंकवाद और घुसपैठ-रोधी अभियानों में 'राइफल महिला' का दम
२५ मार्च २०२१
अपनी प्रतिभा का परचम लहराते हुए महिलाएं अब बड़ी संख्या में अर्धसैनिक और सशस्त्र बलों में शामिल हो रही हैं. पाकिस्तान और म्यांमार के साथ सटी सीमाओं पर वे आतंकवाद और घुसपैठ-रोधी अभियान में भाग ले रही हैं.
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करीब 200 महिलाएं असम राइफल्स में 'राइफल महिला' के रूप में शामिल हुई हैं. असम राइफल्स भारतीय सेना का अर्धसैनिक बल है जो म्यांमार से सटी सीमा की रखवाली करता है और उत्तर-पूर्व क्षेत्र में उपद्रव-रोधी अभियानों को अंजाम देता है. यह बल अपना 136वां स्थापना दिवस मना रहा है. उनकी उपस्थिति ने संवेदनशील स्थानों में सुरक्षा बलों के कामकाज को सुचारू कर दिया है क्योंकि वे स्थानीय महिलाओं की आबादी से प्रभावी ढंग से निपट चुके हैं.
बल को सीमावर्ती क्षेत्रों में महिला यात्रियों को ले जाने वाले वाहनों की तलाश में भारी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था. अब, यह प्रभावी रूप से राइफल महिलाओं द्वारा निपटा जा रहा है. 'राइफल महिला' ड्रग्स, नशीले पदार्थों, हथियारों और गोला-बारूद की तलाश करती हैं. वर्तमान में मिजोरम में तीन असम राइफल्स के साथ तैनात 'राइफल वुमन' जागृति भारत-म्यांमार सीमा पर गश्त करती हैं जहां चीन से समर्थन प्राप्त उपद्रवी समूहों द्वारा ड्रग्स और हथियार भेजा जा रहा है. जागृति गुजरात के अरावली जिले से हैं और उन्होंने चार साल की सेवा पूरी की है. जागृति के मुताबिक, "इससे पहले, मुझे नागालैंड और जम्मू-कश्मीर में तैनात किया गया था और मैंने उपद्रव-रोधी अभियानों में भाग लिया."
म्यांमार सीमा के पास दुर्गम इलाके में गश्त करते हुए उन्होंने कहा, "मैंने बचपन से अपने चाचा को वर्दी में देखा था. तब से मेरे मन में फोर्स में शामिल होने की इच्छा जागी. अब इस फोर्स का हिस्सा होने पर मैं गर्व महसूस करती हूं."
वह बल में 'राइफल पुरुषों' के साथ-साथ समान व्यवहार पर बेहद उत्साहित हैं. उनकी बटालियन में 16 महिलाएं हैं जो उन्हें सौंपे गए सभी कर्तव्यों को पूरा करती हैं. वह ऐसे समय में सीमा की रखवाली कर रही हैं जब म्यांमार में तख्तापलट के बाद लोगों के सीमा पार से देश में आने की आशंका प्रबल है.
2017 में चुनी गई एक अन्य राइफल महिला लुसी रामथरमावी ने कहा कि वह जब भी जरूरत पड़ती है तो अग्रिम ठिकानों पर गश्त के लिए जाती हैं. वह मणिपुर के चुराचंदपुर जिले की रहने वाली हैं.अपने पैतृक स्थान के पास रहने वाले लोगों को जब वह वर्दी में देखती थीं तो उनके भी मन में भारतीय सशस्त्र बलों में शामिल होने की इच्छा हुई. वे कहती हैं, "मैं मोबाइल व्हीकल चेक पोस्ट पर भी तैनात हूं और मादक पदार्थो की तस्करी में शामिल संदिग्ध स्थानीय महिलाओं पर नजर रखती हूं."
इसी तरह मिजोरम की सोफी वनलालमंगही को इन दिनों जम्मू और कश्मीर के अग्रिम ठिकानों पर तैनात किया गया है. वह जम्मू-कश्मीर में नशीले पदार्थों, नकली मुद्रा और हथियारों की तस्करी की जांच में लगी हुई हैं.
आईएएनएस
जांबाज महिला सैनिकों का सफर
सेना में भर्ती होने के लिए महिलाओं को लंबा संघर्ष करना पड़ा है. लेकिन तीन देश भी ऐसे हैं जहां महिलाओं के लिए भी सैन्य सेवा अनिवार्य है. एक नजर इस्राएल की महिला सैनिकों की जिंदगी पर.
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जर्मनी, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में महिलाएं सेना में बतौर लड़ाकू सैनिक भर्ती हो सकती है. भारत में 2015 में इसका एलान हुआ. लेकिन इस्राएल इस मामले में अपवाद है.
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इस्राएली सेना में महिलाओं की आधिकारिक भर्ती सितंबर 1949 से शुरू हुई. 2014 में नॉर्वे में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए इसकी शुरुआत की गई. वहां 2016 की गर्मियों से महिलाओं के लिए सेना के दरवाजे खुले.
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इस्राएल की स्थापना से पहले भी करीब 4,000 यहूदी महिलाओं ने ब्रिटेन के नेतृत्व में फलीस्तीनी अरबों के खिलाफ लड़ाई में हिस्सा लिया. 26 मई 1948 को इस्राएल की स्थापना के साल भर बाद संसद ने सेना में महिलाओं को आधिकारिक रूप से प्रवेश दिया.
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सेना को हमेशा सपोर्टिंग, टेक्निकल और मेडिकल स्टाफ की जरूरत होती है. शुरुआत में इस्राएली सेना में महिलाओं को इन क्षेत्रों में बड़ी जिम्मेदारियां दी गईं.
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इस्राएल में युवक और युवतियों के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा की अवधि 21 महीने से तीन साल तक है. शादीशुदा महिलाओं, मांओं और इस्राएली अरब महिलाओं को छूट है. 20 साल से बड़े युवक युवतियों को इस्राएल आने पर अनिवार्य सैन्य सेवा से छूट मिलती है.
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लंबे समय तक यूनिट की महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य, टेलिकम्युनिकेशंस और ऑफिस वर्क दिया जाता था. उन्हें लड़ने की इजाजत नहीं थी. 1967 में छह दिन के अरब-इस्राएल युद्ध में एक महिला अफसर ने इस नियम को तोड़ा और वह मोर्चे पर चली गईं. बाद में उन्हें चार हफ्ते की सजा हुई.
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महिला सैनिकों से भेदभाव की शिकायतें भी समय समय पर सामने आती रहीं. 1994 में पायलट बनने की ख्वाहिश रखने वाली महिला को ट्रेनिंग नहीं दी गई. मामला अदालत में गया और महिला की जीत हुई. 1995 से इस्राएल में महिलाओं को फाइटर पायलट की ट्रेनिंग दी जाने लगी.
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भेदभाव की शिकायतों के बीच अदालत ने एक अहम फैसला सुनाया. उसके तहत सरकार और इस्राएली संसद को सन 2000 में सैन्य नियम बदलने पड़े. बदलावों के जरिये सेना में महिलाओं और पुरुषों को पूरी समानता का अधिकार दिया गया.
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उस आदेश के बाद से महिलाओं और पुरुषों की अलग अलग यूनिटें आपस में मिला दी गईं. अब आर्म्ड यूनिट्स, इंफैट्री और आर्टिलरी में महिलाएं और पुरुष साथ साथ होते हैं. महिलाएं सीमा पर निगरानी का काम भी करती हैं.
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2006 में दूसरे लेबनान युद्ध के दौरान महिलाओं ने पहली बार लड़ाई में हिस्सा लिया. 1948 के बाद यह पहला मौका था जब महिलाएं मोर्चे पर गईं.
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2006 के युद्ध में हेलिकॉप्टर फ्लाइट इंजीनियर क्रेन टंडलर की मौत हुई. वह युद्ध में जान गंवाने वाली इस्राएल की पहली महिला सैनिक थीं.
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2008 में एक समिति ने महिलाओं के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा की अवधि कम करने की सिफारिश की. सहमति के बाद इस प्रस्ताव को अगले एक दशक में लागू किया जाना है.
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यहूदी धार्मिक नेता रब्बाई सेना में महिलाओं की भर्ती को पंसद नहीं करते. हालांकि रुढ़िवादी स्कूलों में पढ़ने वाले पुरुषों को अनिवार्य सैन्य सेवा से छूट मिली है.
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तमाम नियम कायदों के बावजूद महिला सैनिकों की जिंदगी आसान नहीं. कड़ी मेहनत के अलावा करीब हर दिन यौन उत्पीड़न की शिकायतें सामने आती हैं. सेना में काम करने वाली 20 फीसदी महिलाएं यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं.
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कई युद्ध लड़ चुके और आए दिन हिंसा का शिकार बनने वाली इस्राएली सेना में फिलहाल एक तिहाई महिलाएं हैं. 51 फीसदी अफसर हैं, 15 फीसदी तकनीकी क्षेत्र में हैं और सिर्फ तीन फीसदी ऑपरेशनल यूनिट्स में तैनात हैं.