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मेधा पाटकर कैसे फंसीं मानहानि के मुकदमे में

१ जुलाई २०२४

एक्टिविस्ट मेधा पाटकर को मानहानि के 20 साल पुराने एक मामले में पांच महीने जेल और 10 लाख रुपये जुर्माना की सजा सुनाई गई है. जानिए क्या है यह मामला.

किसान आंदोलन के दौरान मंच से बोलतीं मेधा पाटकर
मेधा पाटकर को अदालत पहले ही दोषी मान चुकी थीतस्वीर: Pradeep Gaur/SOPA/ZUMA/dpa/picture alliance

दिल्ली के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट राघव शर्मा ने फैसला सुनाते हुए यह भी कहा कि फैसला 30 दिनों तक निलंबित रहेगा. उन्होंने यह भी कहा कि पाटकर की उम्र और उनका स्वास्थ्य देखते हुए एक या दो साल की जेल जैसी कड़ी सजा नहीं सुनाई गई है.

क्या है मामला

दिल्ली की इस अदालत ने इस मामले में 24 मई को ही पाटकर को दोषी ठहराया था. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक पाटकर ने अपने ताजा बयान में कहा है कि उनकी किसी को बदनाम करने की अभिलाषा नहीं है और वो इस फैसले को चुनौती देंगी.

जब नौ दिनों तक अनशन पर बैठीं मेधा पाटकर

उनके खिलाफ यह मुकदमा दिल्ली के उपराज्यपाल वी के सक्सेना ने 2001 में किया था. सक्सेना उस समय नेशनल यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज नाम की एक संस्था के अध्यक्ष थे. उन्होंने 2000 में पाटकर के नर्मदा बचाओ आंदोलन के खिलाफ एक विज्ञापन छपवाया था.

इस विज्ञापन के छपने के बाद पाटकर ने इस मामले पर एक एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी. इसी प्रेस विज्ञप्ति पर आपत्ति जताते हुए सक्सेना ने 2001 में अहमदाबाद की एक अदालत में पाटकर के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया था.

अदालत ने ठहराया दोषी

2003 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर यह मामला दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया. 24 मई, 2024 को दिए अपने फैसले में अदालत ने कहा था कि पाटकर ने उस प्रेस विज्ञप्ति में सक्सेना को बुझदिल, एक ऐसा व्यक्ति था जो देशभक्त नहीं है और जो हवाला लेनदेन में शामिल है बताया था.

मानहानि मुकदमे का राहुल गांधी पर असर

अदालत का मानना था कि यह साबित हो चुका है कि सक्सेना की मानहानि करने का पाटकर का स्पष्ट इरादा था. अदालत ने कहा था कि पाटकर का सक्सेना को बुजदिल और 'देशभक्त नहीं है' कहना "उनके व्यक्तिगत चरित्र और देश की प्रति उनकी वफादारी पर सीधा हमला" था.

कैसे बचेगी नर्मदा

04:17

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मेधा पाटकर को नर्मदा बचाओ आंदोलन के संस्थापक के रूप में जाना जाता है, जिसे सरदार सरोवर बांध परियोजना से प्रभावित लोगों के हितों के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से बनाया गया था. वो भारत के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में पीएचडी छोड़ कर दलितों, आदिवासियों और अन्य तबकों की मदद करने के लिए एक्टिविस्ट बनी थीं.

2014 में वो आम आदमी पार्टी से भी जुड़ी थीं और पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव भी लड़ा था. लेकिन वो हार गई थीं और बाद में उन्होंने पार्टी भी छोड़ दी. बीते कुछ सालों में वो किसान आंदोलन से भी जुड़ी थीं.

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