भारत में पुराने कानूनों के सहारे कामगारों का शोषण हो रहा है
८ सितम्बर २०२४भारतमें सुबह के 7:30 बजने वाले हैं और हर दिन की तरह आज भी रोहन (बदला हुआ नाम) के काम करने का समय शुरू हो रहा है. वे ब्रिटेन की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए काम करते हैं. पूरे दिन अलग-अलग टाइम जोन में रहने वाले ग्राहकों और कंपनी के शेयरधारकों के साथ फोन कॉल में जुटे रहते हैं. कॉल के बीच छोटे-छोटे ब्रेक होते हैं, लेकिन उनका काम रात के 9:30 बजे तक खत्म होता है. दूसरे शब्दों में कहें, तो वे लगातार 14 घंटे अपने काम में व्यस्त रहते हैं.
अदिति (बदला हुआ नाम) भी सुबह 7:30 में उठते ही सबसे पहले अपना ईमेल चेक करती हैं. उनका काम आधिकारिक तौर पर सुबह 9 बजे शुरू होता है और रात 11 बजे तक चलता है. यह एक दिन की बात नहीं है, बल्कि हफ्ते में लगातार पांच दिनों तक उनका यही शेड्यूल होता है. वे अमेरिका की एक बड़ी कंसल्टिंग कंपनी के लिए काम करती हैं.
अदिति कहती हैं कि सुबह से लेकर रात तक काम करने के बाद वह पूरी तरह थक जाती हैं और बेचैन हो जाती हैं. इसके बाद, वह कुछ समय निजी कामों के लिए निकालती हैं और देर रात ही सो पाती हैं. वह कहती हैं, "मैं सोच ही नहीं पाती कि लोग लंबे समय तक काम करने के साथ-साथ विवाह, बच्चे, बुजुर्गों की देखभाल कैसे करते हैं.”
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अदिति और रोहन, दोनों में एक बात समान है कि वे बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों (एमएनसी) के लिए काम करते हैं. लंबे समय तक काम करने के बावजूद, उनमें से किसी को भी अतिरिक्त घंटों यानी ओवरटाइम के लिए भुगतान नहीं किया जाता है. रोहन और अदिति के अनुभव अलग-अलग मामले नहीं हैं, बल्कि इनसे पता चलता है कि भारत में कंपनियां किस तरह अपने कर्मचारियों का शोषण कर रही हैं.
अमित कुमार ने लंदन में मुख्यालय वाली एक कंपनी में 17 साल काम किया है. फिलहाल, वे भारत और फिलीपींस दोनों जगहों पर मौजूद सदस्यों वाली एक टीम को मैनेज कर रहे हैं. वह कहते हैं, "एक ही प्रोजेक्ट पर काम करने के बावजूद, फिलीपींस के कर्मचारियों को ओवरटाइम के लिए अलग से भुगतान किया जाता है. जबकि, भारत में रहने वाले कर्मचारियों को कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं किया जाता है.”
तकनीकी आधार पर कानून को दरकिनार करती हैं बहुराष्ट्रीय कंपनियां
भारत में, निजी क्षेत्र में ऊंचे ओहदों पर काम करने वाले कई कर्मचारी कहते हैं कि वे नियमित रूप से हर दिन 12 से 14 घंटे तक काम करते हैं. फैक्ट्रीज एक्ट 1948 में ओवरटाइम से जुड़े नियमों को तय किया गया है. इसके मुताबिक, अगर कोई व्यक्ति प्रतिदिन 8-9 घंटे से ज्यादा या सप्ताह में 48 घंटे से ज्यादा काम करता है, तो वह अतिरिक्त घंटों के लिए दोगुना भुगतान पाने का हकदार है. हालांकि, इस अधिनियम की भाषा में यह स्पष्ट किया गया है कि यह सिर्फ ‘फैक्ट्री में काम करने वाले कर्मचारियों या श्रमिकों' के लिए है.
चूंकि, रोहन और अदिति कानूनी परिभाषा के अनुसार ‘फैक्ट्री में काम करने वाले कर्मचारी' नहीं हैं, इसलिए ओवरटाइम का नियम उन पर लागू नहीं होता है.
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करीब 40 साल पहले ह्यूमन रिसोर्स (एचआर) प्रोफेशनल के तौर पर काम शुरू करने वाले महेश गोडबोले ने कहा, "कार्यालय में, कंपनियां कर्मचारियों को ‘अधिकारी' या ‘कार्यकारी यानी एग्जीक्यूटिव' के रूप में नामित करके ओवरटाइम से जुड़े कानूनों को दरकिनार कर देती हैं. ‘अधिकारी' या ‘एग्जीक्यूटिव' जैसी श्रेणियों में ‘कर्मचारियों' के लिए ओवरटाइम कानून लागू नहीं होते हैं और यह कानूनी तौर पर एक अस्पष्ट क्षेत्र बन जाता है.”
इस स्टोरी के लिए डीडब्ल्यू ने मेटा, एप्पल, अमेजॉन, गूगल, ओला कंज्यूमर, केपीएमजी सहित अन्य कंपनियों से भारत में ओवरटाइम से जुड़ी उनकी नीतियों के बारे में पूछा, लेकिन उनमें से किसी ने भी सवालों का जवाब नहीं दिया.
समय के हिसाब से नहीं हैं कानून
भारत में रिमोट वर्क का भी चलन शुरू हो चुका है. सामान्य शब्दों में कहें, तो कर्मचारियों के लिए ऑफिस जाना अनिवार्य नहीं है. वे कहीं से भी काम कर सकते हैं. इस चलन के बाद कामकाजी और निजी समय के बीच की जो सीमाएं थीं, वे धुंधली हो गई हैं. इससे एमएनसी कर्मचारियों के लिए काम से अलग होना मुश्किल हो गया है.
ईशा (बदला हुआ नाम) पिछले पांच वर्षों से भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए काम कर रही हैं. उनका कहना है, "उनके काम के घंटे कभी खत्म नहीं होते. कंपनियों के लिए, वर्क-लाइफ बैलेंस का विचार सिर्फ अपनी मार्केटिंग करने का एक तिकड़म है.”
वह आगे कहती हैं, "हम अब महामारी के बाद की दुनिया में रह रहे हैं. अगर आप घर से काम कर रहे हैं, तो आपके मैनेजर आपसे हर समय उपलब्ध रहने की उम्मीद करते हैं.”
यह इस बात का एक और उदाहरण है कि भारतीय श्रमिकों के अधिकारों के लिए 76 साल पहले बनाए गए कानून, मौजूदा कर्मचारियों की समस्याओं को हल करने में किस तरह विफल हो रहे हैं. साथ ही, सरकारें भी इस समस्या को हल करने में किसी तरह की दिलचस्पी नहीं दिखा रही हैं.
क्या कानूनों को चुनौती दी जा सकती है?
क्या एमएनसी कर्मचारी ओवरटाइम वेतन के लिए अदालत में याचिका दायर कर सकते हैं? इस सवाल के जवाब में वकील और श्रम कानून के प्रोफेसर सुरेश चंद्र श्रीवास्तव कहते हैं कि इस मामले से जुड़ा कोई प्रत्यक्ष उदाहरण नहीं है. उन्होंने एक ऐसे मामले का उल्लेख किया जिसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले साल यह निर्णय दिया था कि सरकारी कर्मचारी फैक्ट्री अधिनियम के तहत डबल ओवरटाइम भत्ते का दावा करने के हकदार नहीं हैं.
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह अधिनियम विशेष रूप से कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों पर लागू होता है, ना कि सरकारी कर्मचारियों पर. सरकारी कर्मचारियों पर अलग नियम और कानून लागू होते हैं. इस वजह से, सरकारी कर्मचारियों को डबल ओवरटाइम भत्ता दिए जाने की मांग को अस्वीकार कर दिया गया.
सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला मौजूदा श्रम कानून की सीमाओं को दिखाता है. अस्पष्ट कानून होने की वजह से, एमएनसी के कर्मचारियों को भी उसी बाधा का सामना करना पड़ेगा जो सरकारी कर्मचारियों को करना पड़ा.
हालांकि, दिल्ली में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में कानून की एसोसिएट प्रोफेसर और सेंटर फॉर लेबर लॉ रिसर्च एंड एडवोकेसी की निदेशक सोफी केजे ने चेन्नई में श्रम न्यायालय के 2022 में दिए गए एक फैसले का हवाला दिया.
न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि एक आईटी एनालिस्ट को इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट के तहत ‘कर्मचारी' के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है. साथ ही, एक भारतीय सॉफ्टवेयर एमएनसी के इस दावे को खारिज कर दिया कि कर्मचारी सुपरवाइजर की अपनी भूमिका के कारण योग्य नहीं है.
सोफी ने कहा, "अगर हम न्यायशास्त्र के उस सिद्धांत का अनुसरण करते हैं जहां वेतन के बजाय इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि काम किस तरह का है, तो सॉफ्टवेयर इंजीनियर (मैनेजर और सुपरवाइजर वाली भूमिका को छोड़कर) इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट के तहत इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट के मामले दायर कर सकते हैं, जिसमें काम के घंटे और भत्ते से संबंधित मुद्दे शामिल हैं.”
आर्थिक उदारीकरण से लेकर अब तक
भारत में 1991 में आर्थिक उदारीकरण हुआ. विशेषज्ञ इसके बाद के वर्षों को देखते हैं, जब निजी क्षेत्र तेजी से बढ़ा और लोगों को वहां रोजगार मिला. हालांकि, इस दौरान सरकार ने इस क्षेत्र की निगरानी पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे निजी कंपनियों को पुराने कानूनों में खामियों का फायदा उठाने की अनुमति मिल गई.
सोफी ने बताया कि ऐतिहासिक रूप से ट्रेड यूनियनों ने श्रमिकों को शोषण से बचाने में बड़ी भूमिका निभाई, लेकिन उदारीकरण के बाद "कॉन्ट्रैक्ट पर आधारित नौकरी और आउटसोर्सिंग जैसे तरीके हावी हो गए."
कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले कर्मचारी ना तो यूनियन बना सकते हैं और ना ही उसमें शामिल हो सकते हैं, क्योंकि इससे उनकी नौकरी जाने का खतरा रहता है. जबकि, स्थायी कर्मचारियों के मामले में ऐसा नहीं है. सोफी बताती हैं, "इस बदलाव के कारण 1990 के दशक में ट्रेड यूनियन बनने कम हो गए.”
वह आगे कहती हैं, "कुछ जगहों पर निजी क्षेत्र में छोटे और स्वतंत्र यूनियन उभरे हैं, लेकिन बड़े और स्थापित यूनियन का समर्थन नहीं होने की वजह से इन छोटे यूनियन को नौकरी देने वाली कंपनियां अक्सर खरीद लेती हैं और अप्रभावी बना देती हैं.”
यह एक बड़ी वजह है जिससे श्रमिकों के अधिकारों में कमी आई है. इसका असर निजी क्षेत्र में ऊंचे ओहदों पर काम करने वाले लोगों पर भी पड़ रहा है, जिनका यूनियन में लगभग कोई प्रतिनिधित्व नहीं है.
उद्योग जगत का क्या कहना है?
प्रशील पारधे 25 साल के अनुभव वाले सीनियर एचआर प्रोफेशनल हैं. फिलहाल, वह आईटी सेक्टर में काम कर रहे हैं. वह कहते हैं, "भारत में कंपनियां कोई ओवरटाइम भत्ता नहीं देती है, क्योंकि ये कंपनियां ‘मार्केट-कंपीटिटिव कंपनसेशन' यानी बाजार में अन्य नियोक्ताओं के बराबर वेतन देती हैं.
उन्होंने कहा, "आईटी सेक्टर में अच्छे और कुशल कामगारों को बनाए रखने के लिए, भारत में कंपनियां बाजार में अन्य नियोक्ताओं के बराबर वेतन देती हैं.” इसके अलावा, कर्मचारियों को अतिरिक्त घंटे के लिए कॉम्प ऑफ भी देती हैं. यह ओवरटाइम या छुट्टी के दिन काम करने के बदले में दी जाने वाली अतिरिक्त छुट्टियां होती हैं. साथ ही, बेहतर परफॉर्म करने पर उन्हें बोनस भी दिया जाता है.
पारधे ने इस विषय पर भी बात की कि कैसे बहुत से भारतीय कर्मचारी कहते हैं कि उन्हें भारत में काम करते समय ओवरटाइम के लिए पैसे नहीं मिले, लेकिन विदेश जाने के बाद उन्हें मिला. उन्होंने जर्मनी और अमेरिका के कुछ राज्यों का उदाहरण दिया, जहां सभी कर्मचारियों पर श्रम नीतियां लागू होती हैं.
पारधे ने कहा, "वहां वेतन देने से जुड़ी संरचनाएं कम प्रतिस्पर्धी हैं और वे कानूनी-मानकों के हिसाब से तय होती हैं. इसलिए, इस तरह की स्थितियों में, सरकार एक ऐसा नियम बना सकती है जिससे ओवरटाइम के लिए भुगतान करना कंपनियों के लिए अनिवार्य हो जाए. ”
कर्मचारियों के पास क्या उपाय है?
इन तमाम बातों से यही निष्कर्ष निकलता है कि भारत में कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा के लिए मजबूत नियम नहीं हैं. ऐसे में रोहन, अदिति और ईशा जैसे लोग काम और निजी जिंदगी के बीच संतुलन बनाने के लिए संघर्ष करते रहते हैं.
ईशा कहती हैं कि लोग बिना किसी शिकायत के थकाऊ काम के शेड्यूल को इस उम्मीद के साथ स्वीकार करते हैं कि उनके काम को लेकर उन्हें पहचान मिलेगी या भविष्य में इसका कोई फायदा मिलेगा.
वह कहती हैं, "आखिरकार जब इनमें से कुछ भी नहीं होता है, तो वे नौकरी बदल लेते हैं और फिर से मेहनत में लग जाते हैं, इस उम्मीद के साथ कि शायद इस बार कुछ बेहतर हो जाए.”