डॉलर के मुकाबले रुपया अभी तक के सबसे निचले स्तर तक गिर कर 77.56 पर आ गया. जानकार इसके लिए अमेरिका में कड़ी होती मौद्रिक नीति और विदेशी निवेशकों द्वारा भारतीय स्टॉक्स को बेचने को जिम्मेदार मान रहे हैं.
विज्ञापन
तेल के उत्पादों के बढ़ते दाम और मजबूत होता अमेरिकी डॉलर रुपये पर हावी रहे हैं. रिजर्व बैंक ने पिछले ही सप्ताह ब्याज दरें भी बढ़ाई थीं, लेकिन निवेशकों का भारत से पैसे बाहर निकालना जारी रहा.
रूपया इससे पहले मार्च में डॉलर के मुकाबले 76.98 के ऐतिहासिक रूप से निचले स्थान पर पहुंचा था. सोमवार नौ मई को यह और लुढ़क कर 77.56 पर पहुंच गया. रुपये के लुढ़कने के साथ ही सेंसेक्स और निफ्टी50 पर भारतीय स्टॉक्स लगातार चौथे दिन घाटे में रहे.
सोमवार को एक एक भारतीय स्टॉक शुरू में तो एक प्रतिशत से ज्यादा गिरे, लेकिन बाद में स्थिति में कुछ सुधार आया. बैंक, धातु और तेल और गैस के स्टॉको में सबसे ज्यादा गिरावट देखने को मिली. रिलायंस जैसी वजनदार कंपनी के स्टॉक के मूल्य में तीन प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट आई.
स्टॉक एक्सचेंज के आंकड़े दिखाते हैं कि इस साल अभी तक विदेशी निवेशकों ने कुल 1,340 अरब रुपये भारतीय शेयरों से निकाल लिए हैं.
यूक्रेन युद्ध और चीन में कोविड-19 प्रतिबंधों की वापसी से विदेशी निवेशक अपना जोखिम कम कर रहे हैं और भारत जैसे उभरते बाजारों में से पूंजी निकाल रहे हैं. उसके ऊपर से महंगाई ने भी भारत में निवेश की भावना पर असर डाला है. भारत पेट्रोल की अपनी 80 प्रतिशत से भी ज्यादा जरूरतों को आयात करता है.
मार्च में खुदरा महंगाई 6.95 प्रतिशत पर पहुंच गई थी, जो 17 महीनों में सबसे ऊंचा स्तर है. अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि इसी सप्ताह जो ताजा आंकड़े जारी किए जाएंगे उनमें पता चल सकता है कि अप्रैल में महंगाई सात प्रतिशत को भी पार गई.
महंगाई की चुनौती
पिछले सप्ताह अमेरिका के फेडरल रिजर्व ने देश की मुख्य ब्याज दरों में आधा प्रतिशत अंकों की बढ़ोतरी की थी, लेकिन और ज्यादा आक्रामक कदमों को उठाना टाल दिया था.
विदेशी मुद्रा कंपनी ओआंडा के जेफ्री हेली ने एक नोट में बताया, "भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अचानक ब्याज दरें बढ़ाने के बाद अगर भारत में महंगाई सात प्रतिशत से ज्यादा चली जाती है...तो आरबीआई पर फिर से कदम उठाने का दबाव रहेगा. इससे रुपये को कुछ मजबूती तो मिल सकती है लेकिन स्थानीय शेयरों के लिए यह शायद ही अच्छा हो."
भारत के विदेशी मुद्रा के खजाने में लगातार आठवें हफ्ते में गिरावट देखने को मिली. रुपये को स्थिर करने के लिए रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा को बेच लेकिन इसके बाद अप्रैल 29 को खत्म होने वाले सप्ताह में विदेशी मुद्रा का खजाना 600 अरब डॉलर से भी नीचे चला गया.
सीके/एए (एएफपी)
डॉलर के मुकाबले 1 से 72 तक ऐसे पहुंचा रुपया
अमेरिकी डॉलर के मुकाबले आज भारतीय रुपया जिस स्तर पर खड़ा है, उसे देखते हुए क्या कोई यकीन करेगा कि आजादी के समय रुपया और डॉलर बराबर थे? फिर डॉलर के मुकाबले रुपया 72 तक कैसे पहुंचा, जानिए.
तस्वीर: Imago/Zumapress/I. Chowdhury
1947
भारत को 15 अगस्त 1947 को जब आजादी मिली तो अमेरिकी डॉलर और भारतीय रुपये के बीच एक्सचेंज रेट बराबर था. यानी एक डॉलर एक रुपये के बराबर था. दरअसल देश नया नया आजाद हुआ था और उस पर कोई बाहरी कर्ज नहीं था.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo
1948
अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद देश की आर्थिक हालत खस्ता थी. गरीबी से निपटने के साथ साथ देश के पुनर्निर्माण की चुनौती थी. यहीं से भारतीय रुपये के कमजोर होने का सिलसिला शुरु हुआ. फिर भी 1948 में एक डॉलर की कीमत चार रुपये से भी कम थी.
तस्वीर: picture alliance/dpa/AP Photo/M. Desfor
1951
देश के विकास की खातिर 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना तैयार की गई, जिसके लिए सरकार ने विदेशों से कर्ज लेना शुरू किया. भारत ने आजादी के समय फिक्स्ड रेट करंसी व्यवस्था को चुना. इसीलिए लंबे समय तक रुपया डॉलर के मुकाबले 4.79 रहा.
तस्वीर: picture alliance/Fritz Fischer
1966
चीन के साथ 1962 में और पाकिस्तान के साथ 1965 की लड़ाई के कारण भारत को बड़ा बजट घाटा उठाना पड़ा. इसके अलावा उन दिनों पड़े सूखे से महंगाई बहुत बढ़ गई थी. ऐसे में, सरकार को 1966 में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत को घटाकर 7.57 करना पड़ा.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo
1971
भारतीय रुपये को 1971 में सीधे अमेरिकी डॉलर से जोड़ दिया गया जबकि अब तक वह ब्रिटिश पाउंड के साथ जुड़ा था. इस दौरान राजनीतिक अस्थिरता, घोटालों के कारण सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय कारणों से भारत का व्यापार घाटा बढ़ता गया.
तस्वीर: imago/ZUMA/Keystone
1975
भारतीय रुपये को लेकर 1975 में बड़ा कदम उठाया गया. उसे दुनिया की तीन मुद्राओं के साथ जोड़ा गया, जिसमें अमेरिकी डॉलर के अलावा जापानी येन और जर्मन डॉएच मार्क शामिल थे. इस दौरान एक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की कीमत 8.39 थी.
तस्वीर: imago/Birgit Koch
1985
1985 आते आते भारतीय रुपया में उस समय तक की रिकॉर्ड गिरावट दर्ज की गई और डॉलर के मुकाबले उसका दाम 12.34 जा पहुंचा. सियासी उथल पुथल और तंग आर्थिक हालात के बीच भारतीय रुपया कमजोर हो रहा था.
तस्वीर: Imago/Teutopress
1991
खाड़ी युद्ध और सोवियत संघ के विघटन के कारण भारत बड़े आर्थिक संकट में घिर गया और अपनी देनदारियां चुकाना उसके लिए मुश्किल हो गया. विदेशी मुद्रा भंडार में सिर्फ 11 करोड़ डॉलर बचे, जिससे सिर्फ तीन हफ्ते का आयात हो सकता था. ऐसे में रुपया प्रति डॉलर 26 को छूने लगा.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/J. Maps
1993
अब भारतीय मुद्रा में उतार चढ़ाव बाजार से तय होने लगा. हालांकि ज्यादा उथल पुथल की स्थिति में रिजर्व बैंक को हस्तेक्षप करने का अधिकार दिया गया. 1993 में एक अमेरिकी डॉलर खरीदने के लिए 31.37 रुपये देने पड़ते थे.
तस्वीर: Reuters/Danish Siddiqui
2002-2003
1993 के बाद लगभग एक दशक तक रुपये के मूल्य में सालाना औसतन पांच प्रतिशत की गिरावट आती रही. इसी का नतीजा रहा कि 2002-03 में भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले गिर कर 48.40 के स्तर पर पहुंच गया.
तस्वीर: AP
2007
भारत में नई ऊंचाइयों को छूते शेयर बाजार और फलते फूलते आईटी और बीपीओ सेक्टर की वजह से भारत में बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आने लगा. इसी का नतीजा था कि 2007 में भारतीय रुपये ने डॉलर के मुकाबले 39 के स्तर को छुआ.
तस्वीर: AP
2008
2008 के वैश्विक आर्थिक संकट ने अमेरिका और दुनिया की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका दिया है. इसके चलते डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में भी कुछ ठहराव आया. लेकिन साल 2008 खत्म होते रुपया गिरावट का नया रिकॉर्ड बनाते हुए 51 के स्तर पर जा पहुंचा.
तस्वीर: AFP/Getty Images
2012
यह वह समय था जब ग्रीस और स्पेन गंभीर आर्थिक संकट में घिरे थे. एक नई मंदी की आशंकाओं के बीच भारत की अर्थव्यवस्था पर भी इसका कुछ असर दिखने लगा. नतीजतन रुपया और गिर गया और डॉलर के मुकाबले उसकी कीमत 56 तक जा पहुंची.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/N. Seliverstova
2013
भारतीय रुपये ने अगस्त 2013 में रिकॉर्ड गिरावट देखी और एक अमेरिकी डॉलर 61.80 रुपये के बराबर हो गया. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विपक्ष ने रुपये के मूल्य में गिरावट के लिए यूपीए सरकार की आर्थिक नीतियों को जिम्मेदार ठहराया जबकि सरकार बाहरी कारणों का हवाला देती रही.
तस्वीर: Getty Images
2018
पीएम मोदी ने सत्ता संभालते ही भारत को मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाने के लिए 'मेक इन इंडिया' का एलान किया. लेकिन चार साल में उम्मीद के मुताबिक ना नौकरियां बढ़ी और ना अर्थव्यवस्था की रफ्तार. रुपया भी डॉलर के मुकाबले 72 को पार कर गया. अब मोदी सरकार बाहरी कारणों का हवाला दे रही है.