मिजोरम में फर्जी शिक्षकों के कारण खतरे में बच्चों का भविष्य
प्रभाकर मणि तिवारी
२५ जून २०२४
पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम में हाल में हुई जांच से पता चला कि राज्य के विभिन्न सरकारी विभागों में करीब साढ़े तीन हजार ऐसे लोग काम करते हैं जो सरकारी कर्मचारी हैं ही नहीं. इनमें से एक हजार के करीब तो केवल फर्जी शिक्षक हैं.
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पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम में फर्जी सरकारी शिक्षकों के कारण हजारों बच्चों का भविष्य खतरे में है. दरअसल, राज्य विभिन्न सरकारी विभागों में करीब साढ़े तीन हजार ऐसे लोग काम करते हैं जो सरकारी कर्मचारी हैं ही नहीं. इन पदों पर काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों ने अपनी जगह दूसरे लोगों का काम पर रखा है. इनमें से एक हजार से ज्यादा अकेले शिक्षा विभाग में हैं. राज्य में करीब 50 हजार सरकारी कर्मचारी हैं.
मिजोरम के मुख्यमंत्री लालदूहोमा डीडब्ल्यू को बताते हैं कि सरकार इस मुद्दे पर गंभीर है. ऐसे कर्मचारियों को बर्खास्त या निलंबित भी किया जा सकता है. कुछ मामलों में दोषी कर्मचारियों से वेतन भी वापस लिया जा सकता है.
यह मामला सामने आने के बाद सरकार ने इसकी जांच के आदेश दिए गए थे. करीब तीन महीने तक चली जांच के दौरान ऐसे कर्मचारियों की शिनाख्त के बाद अब उन सबको 30 दिनों के भीतर अपनी ड्यूटी पर पहुंचने को कहा गया है. ऐसा नहीं करने की सूरत में उनके खिलाफ अनिवार्य सेवानिवृत्ति समेत दूसरी अनुशासनात्मक व कानूनी कार्रवाई की जाएगी.
नियत समय पर ड्यूटी पर नहीं पहुंचने वाले कर्मचारियों के खिलाफ इस कार्यकाल को अवैध अनुपस्थिति मानते हुए अनिवार्य सेवानिवृत्ति दी जा सकती है और पेंशन से भी वंचित किया जा सकता है. इसके अलावा उनको कानूनी कार्रवाई का भी सामना करना होगा.
जांच रिपोर्ट मंत्रिमंडल की पिछली बैठक में पेश करने पर इस पर विचार के बाद सरकार ने इसे गंभीर मामला मानते हुए इसके आधार पर फौरन कार्रवाई का आदेश दिया. सरकार का कहना है कि अपनी जगह किसी और से काम कराना और सरकार से पूरा वेतन लेना सेवा शर्तों का उल्लंघन है. सरकार ने तमाम विभाग प्रमुखों को 45 दिनों के भीतर इस आदेश के लागू होने की रिपोर्ट देने को कहा है. अगर वो ऐसा नहीं करते तो उनको भी विभागीय कार्रवाई का सामना करना होगा.
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लंबे समय से चल रहा था खेल
ऐसी खबरें लंबे समय से आ रही थीं लेकिन पहले की सरकारों ने इसकी कभी कोई जांच नहीं कराई थी. बीते साल दिसंबर में विधानसभा चुनाव के बाद निजाम बदला और लालदूहोमा के नेतृत्व वाली जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) सरकार सत्ता में आई. मुख्यमंत्री लालदूहोमा ने कुर्सी संभालते ही इस मामले की जांच के आदेश दिए थे. अब उसकी रिपोर्ट सामने आई है. राज्य सरकार के कर्मचारियों की तादाद करीब 50 हजार है. इसे ध्यान रखते हुए साढ़े तीन हजार की तादाद अच्छी-खासी है.
जर्मनी में है बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने का चलन
भारत के शहरों में ज्यादातर लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना पंसद करते हैं. लेकिन जर्मनी में ठीक इसका उल्टा है. जानिए कैसा है यहां का स्कूल सिस्टम.
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स्कूल जाना जरूरी
जर्मनी में बच्चे छह साल की उम्र से स्कूल जाना शुरू करते हैं. उससे पहले तक वे किंडरगार्टन जा सकते हैं. 6 से 15 की उम्र तक स्कूल जाना अनिवार्य है. बच्चों को स्कूल ना भेजने पर माता पिता या अभिभावकों को सजा हो सकती है. होम स्कूलिंग यानी बिना स्कूल के घर से ही पढ़ाई करने पर मनाही है. हर राज्य के नियम थोड़े बहुत अलग हैं.
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प्राथमिक शिक्षा
स्कूल का पहला दिन बच्चों के लिए खास होता है. सभी बच्चों को टॉफी, चॉकलेट, पेन, पेंसिल और अन्य काम की चीजों से भरा एक उपहार मिलता है. अगले दिन संजीदगी से पढ़ाई शुरू होती है. अधिकतर राज्यों में बच्चे चार सालों तक प्राइमरी स्कूल में जाते हैं यानी पहली से चौथी कक्षा तक लेकिन बर्लिन में प्राथमिक शिक्षा छह साल तक चलती है.
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स्कूल का चयन
चौथी क्लास के बाद बच्चों का स्कूल बदलता है. वे किस स्कूल में जाएंगे ये इस पर निर्भर करता है कि उनके टीचर ने उनके लिए क्या तय किया है. हालांकि नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया राज्य में माता पिता टीचर की सिफारिश को नजरअंदाज कर सकते हैं. बच्चा किस तरह के स्कूल में जाता है, इससे तय होता है कि वह आगे चल कर यूनिवर्सिटी की डिग्री लेगा या फिर वोकेशनल कोर्स करेगा.
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जिमनेजियम
शब्द बिल्कुल वैसे ही लिखा जाता है लेकिन इसका कसरत करने वाले जिम से कोई लेना देना नहीं है. इस तरह के माध्यमिक स्कूल में बच्चे यूनिवर्सिटी जाने की तैयारी करते हैं. 12वीं (और कुछ मामलों में 13वीं) क्लास के बाद एक खास किस्म की परिक्षा देनी होती है, जिससे यूनिवर्सिटी में दाखिले की योग्यता तय होती है. इस स्कूल में बच्चों को विज्ञान, गणित, दर्शनशास्त्र और खेल, सब विषय पढ़ने होते हैं.
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दूसरा रास्ता
जो बच्चे जिमनेजियम (जर्मन में गिमनाजियम) में दाखिला नहीं ले पाते या नहीं लेना चाहते उनके लिए रेआलशूले का विकल्प होता है. पांचवीं से दसवीं क्लास तक ये लगभग दूसरे स्कूल वाले ही विषय पढ़ते हैं लेकिन स्तर में थोड़ा अंतर होता है. बाद में अगर ये बच्चे चाहें तो यूनिवर्सिटी में दाखिले की परिक्षा भी दे सकते हैं. इसे आबीटूयर या फिर स्कूल लीविंग एग्जाम कहा जाता है.
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तीसरा रास्ता
एक अन्य विकल्प है हाउप्टशूले. इन बच्चों को भी शुरुआत में लगभग वही विषय पढ़ाए जाते हैं लेकिन बेहद धीमी गति से. यहां से निकलने वाले बच्चे आगे चल कर वोकेशनल ट्रेनिंग करते हैं. जर्मनी में वोकेशनल ट्रेनिंग पर काफी जोर दिया जाता है. हालांकि बाद में अपना मन बदलने वाले छात्रों के लिए आबीटूयर का रास्ता यहां बंद नहीं होता है.
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चौथा विकल्प
कुछ स्कूल ऐसे होते हैं जो पहले तीनों विकल्पों को एक साथ ले कर चलते हैं. इन्हें गेजाम्टशूले कहा जाता है. 1960 और 70 के दशक में जर्मनी में इनका चलन बढ़ा. यहां छात्र चाहें तो 13वीं तक पढ़ाई करें, या फिर 9वीं या 10वीं के बाद ही किसी तरह की ट्रेनिंग ले कर नौकरी करना शुरू कर सकते हैं. इस स्कूल की मांग इतनी है कि 2018 में कोलोन शहर को एक हजार अर्जियां खारिज करनी पड़ी थीं.
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कोई गारंटी नहीं
पांचवीं और छठी क्लास बच्चों के लिए एक टेस्ट जैसी होती है. इन दो सालों में वे जैसा प्रदर्शन करते हैं, उस पर निर्भर करता है कि उनके टीचर उन्हें उसी स्कूल में रहने देते हैं या फिर स्कूल बदलने की सिफारिश करते हैं. ऐसे में होनहार बच्चों को जिमनेजियम का मौका मिल सकता है. लेकिन इसका मतलब यह भी है कि डट कर पढ़ाई ना करने पर रेआलशूले जाना पड़ सकता है.
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वोकेशनल स्कूल
इन्हें बेरूफ्सशूले कहा जाता है यानी वह स्कूल जहां कोई पेशा सीखा जा सके. अकसर ये स्कूल इंडस्ट्री या ट्रेड यूनियन के साथ मिल कर काम करते हैं. ऐसे में बच्चे रेआलशूले या हाउप्टशूले से निकलने के बाद पेशेवर ट्रेनिंग ले सकते हैं. वे किसी फैक्ट्री में काम करना सीख सकते हैं या फिर हेयर ड्रेसर या मेक अप आर्टिस्ट भी बन सकते हैं.
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विकलांग बच्चों के लिए
विशेष जरूरतों वाले बच्चों के लिए अलग से स्कूल होते हैं और अगर वे चाहें तो सामान्य स्कूल में भी दाखिला ले सकते हैं. नेत्रहीन या व्हीलचेयर का इस्तेमाल करने वाले बच्चे अकसर फोर्डरशूले या फिर जौंडरशूले में जाते हैं. हालांकि कुछ आलोचकों का मानना है कि इससे भेदभाव बढ़ता है लेकिन दूसरी ओर इन विशेष स्कूलों में उनकी जरूरतों का ख्याल भी बेहतर रूप से रखा जा सकता है.
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नामों का झोल
हर राज्य में कुछ ना कुछ अलग होता है. इन सब विकल्पों के अलावा भी कुछ विकल्प हैं. कहीं हाउप्टशूले और रेआलशूले का मिलाजुला रूप ओबरशूले के रूप में मौजूद है, तो कहीं मिटलशूले और गेमाइनशाफ्ट्सशूले भी हैं. जर्मन शब्द शूले का मतलब होता है स्कूल. इतने तरह के स्कूल हैं कि कई बार यहां रहने वाले लोगों के लिए भी ये उलझन का सबब बन जाते हैं.
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वक्त भी तय नहीं
किसी स्कूल की 12 बजे ही छुट्टी हो जाती है, तो कोई 4 बजे तक खुला रहता है. किसी में डे बोर्डिंग का विकल्प होता है, तो किसी में नहीं होता. ऐसे में कामकाजी माता पिता के लिए दिक्क्तें बढ़ जाती हैं. डे बोर्डिंग में बच्चों को खाना भी मिल जाता है और वे वहीं बैठ कर अपना होमवर्क भी पूरा कर सकते हैं. इसके लिए अतिरिक्त शुल्क लगता है. अधिकतर स्कूलों की फीस ना के बराबर होती है.
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तरह तरह के स्कूल
ये था सरकारी स्कूलों का ढांचा. अधिकतर लोग इन्हीं को चुनते हैं. लेकिन इनके अलावा प्राइवेट स्कूल भी हैं. कुछ लोग मॉन्टेसरी को पसंद करते हैं, तो कुछ वॉल्डोर्फ को. साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्कूल भी होते हैं, जहां ज्यादातर पढ़ाई अंग्रेजी में होती है. कुछ लोग अपने बच्चों को बोर्डिंग में दूसरे शहर भी भेजते हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि ये बेहद महंगे होते हैं.
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जांच रिपोर्ट में कहा गया था कि साढ़े तीन हजार से ज्यादा सरकारी कर्मचारियों ने अपनी जगह किसी और को काम पर लगा रखा है और खुद वे दूसरा कामकाज करते हैं. इन फर्जी या डमी कर्मचारियों में से एक तिहाई अकेले शिक्षा विभाग में ही हैं. यह सब कब से चल रहा है, यह पता नहीं चल सका है. लेकिन सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए हाल में मंत्रिमंडल की बैठक में ऐसे कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई का फैसला किया.
इस मामले की जांच करने वाली टीम ने संबंधित कर्मचारियों से भी पूछताछ की थी. उनमें से कइयों ने तो इसके लिए बेहद अजीबोगरीब कारण बताए थे. कुछ कर्मचारियों ने स्वास्थ्य का हवाला दिया तो कुछ ने निजी वजहें गिनाईं. कुछ कर्मचारियों का कहना था कि दुर्गम इलाकों में पोस्टिंग वाली जगहों पर सरकारी आवास की सुविधा नहीं होने और भाषाई दिक्कत के कारण उन लोगों ने अपनी जगह स्थानीय व्यक्ति से काम करने को कहा था.
रिपोर्ट के मुताबिक, 70 से ज्यादा कर्मचारी तो ऐसे हैं जो अपनी जगह किसी और को तैनाती देकर उच्च शिक्षा के लिए राज्य से बाहर चले गए थे. करीब तीन दर्जन लोगों ने इसकी कोई वजह ही नहीं बताई. लेकिन जांच में यह तथ्य सामने आया है कि दुर्गम पर्वतीय इलाकों में पोस्टिंग वाले ऐसे लोग मजे से राजधानी आइजोल स्थित अपने घर पर रहते हुए दूसरा काम-धंधा कर रहे थे.
प्राइमरी के बच्चों ने समझाए ग्लोबल वॉर्मिंग के नतीजे
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ये फर्जीवाड़ा काम कैसे करता है
जांच से पता चला कि यह फर्जी कर्मचारी असली सरकारी कर्मचारियों की जगह काम करते थे और अपना वेतन उन कर्मचारियों से ही लेते थे. सरकारी कोष से वेतन तो असली कर्मचारियों के बैंक खाते में ही जाता था. बाद में वह उसका एक हिस्सा इन फर्जी कर्मचारियों को दे देते थे. अब रिपोर्ट सामने आने के बाद यह मामला सरकार के लिए सिरदर्द बन गया है.
लेकिन सबसे ज्यादा मुश्किल शिक्षा विभाग में है. यहां 1,115 शिक्षक असली शिक्षकों की जगह बच्चों को पढ़ा रहे थे. इससे अब बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ का सवाल भी उठ रहा है. मिजोरम के सुदूर सीमावर्ती इलाके चंफई में एक स्कूली छात्र के पिता के. लावतलांग डीडब्ल्यू से कहते हैं, "मेरा बेटा पहली कक्षा से इसी स्कूल में पढ़ रहा है. वह अब आठवीं में है.
जांच रिपोर्ट से पता चला है कि स्कूल के 14 में से 11 शिक्षक असल में शिक्षक थे ही नहीं. वह लोग किसी और की जगह पढ़ा रहे थे. पता नहीं उनकी शैक्षणिक योग्यता कैसी थी?" उनका दावा है कि कुछ लोगों ने पढ़ाई तो कला विषयों की है, लेकिन विज्ञान और गणित पढ़ा रहे थे. उन्होंने ऐसे सरकारी शिक्षकों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की.
राज्य के दूसरे हिस्सों से भी ऐसी ही आवाजें उठ रही हैं. शिक्षाविद भी इसे गंभीर और चिंताजनक मानते हैं. शिक्षाविद् और सेवानिवृत्त प्रोफेसर लालबियाकमाविया कहते हैं, "यह हैरत और चिंता का विषय है कि इतने लंबे समय से राज्य में यह खेल चल रहा था. लेकिन किसी ने भी इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाई थी. पहले भी ऐसी शिकायतें मिलती रही थीं. लेकिन सरकार ने कभी इन पर ध्यान नहीं दिया. ऐसे प्रॉक्सी शिक्षकों को तत्काल प्रभाव से हटा कर दोषी सरकारी शिक्षकों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए." उनका कहना था कि ऊपर के अधिकारियों की मिलीभगत के बिना यह सब लंबे समय तक नहीं चल सकता था. उनकी भी शिनाख्त कर कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए.