बढ़ती फीस का असरः 40 लाख बच्चों ने निजी स्कूल छोड़े
४ मई २०२२
भारत में लाखों माता-पिता ने अपने बच्चों को निजी स्कूल से निकालकर सरकारी स्कूलों में दाखिल करा दिया है. स्कूलों की बढ़ती फीस को वहन करना लोगों के बस से बाहर होता जा रहा है.
भारत में स्कूलों की स्थितितस्वीर: Satyajit Shaw/DW
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दिल्ली में वित्तीय सलाहकार के तौर पर काम करने वाले वकार खान की आय कोविड महामारी के आने के बाद से लगभग 20 फीसदी घट गई है. इस साल जब उनके बेटे के प्राइवेट स्कूल ने 10 प्रतिशत फीस बढ़ाई तो उनके पास वो स्कूल छोड़कर सरकारी स्कूल में जाने के अलावा कोई चारा नहीं था.
एक छोटे से घर में रहने वाला तीन बच्चों वाला यह परिवार महंगाई के कारण निजी स्कूल छोड़ने वाले हजारों परिवारों में से एक है. 45 साल के वकार खान बताते हैं कि 2021 में उन्होंने अपने बड़े बेटे को भी प्राइवेट स्कूल से निकालकर सरकारी स्कूल में दाखिल करवा दिया था.
वकार खान कहते हैं, "मेरे पास और कोई रास्ता ही नहीं था. पिछले दो साल से घर का खर्च 25 प्रतिशत तक बढ़ गया था. ऊपर से प्राइवेट स्कूल की फीस बढ़ गई.”
भारत में महंगाई अपने चरम पर है और देश का गरीब और मध्यवर्ग इसकी आंच को सबसे ज्यादा झेल रहा है. उन्हें ऐसे-ऐसे खर्चे घटाने पड़ रहे हैं जैसा पिछले कई सालों में नहीं हुआ था. 2020 से लाखों परिवारों ने निजी स्कूल छोड़कर सरकारी स्कूलों का रुख किया है.
बदल रहा है चलन
2021 में 40 लाख बच्चों ने निजी स्कूल छोड़े हैं, जो भारत के स्कूली छात्रों का चार प्रतिशत से ज्यादा है. भारत में नौ करोड़ से ज्यादा बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, जो कुल छात्रों का 35 प्रतिशत है. 1993 में सिर्फ 9 प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते थे.
घर घर पहुंचता ट्रॉली स्कूल
फूलों से सजी लकड़ी की बनी यह ट्रॉली असल में एक स्कूल है, जो बच्चों के पास पहुंचती है. पढ़ाई को कैसे घर-घर पहुंचा रहा है ट्रॉली स्कूल, देखिए...
तस्वीर: Lisa Marie David/REUTERS
गरीब बच्चों के लिए ट्रॉली स्कूल
दक्षिणी फिलीपींस में यह ट्रॉली स्कूल उन बच्चों तक शिक्षा पहुंचा रहा है जिनका स्कूल पहुंचना मुश्किल है. लकड़ी की बनी इस सुंदर सी ट्रॉली पर बैठे ये युवा शिक्षक खुद भी छात्र हैं.
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स्वयंसेवी शिक्षक
स्वयंसेवक के तौर पर काम करने वाले ये छात्र छोटे बच्चों तक इस ट्रॉली की मदद से पहुंचते हैं और उन्हें पढ़ाते हैं. हर ट्रॉली पर चार छात्र होते हैं, दो आगे और दो पीछे बैठते हैं और अपने पांवों से ट्रॉली को धकेलते हैं.
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किताबें, व्हाइटबोर्ड और टीचर
ट्रॉली अपने आप में पूरा स्कूल है. यहां रंगीन चार्ट हैं, किताबों का ढेर है और एक वाइटबोर्ड भी है. तागकावायन शहर में यह स्कूल हफ्ते में तीन बार गरीब छात्रों के समुदायों में जाता है.
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नौ छात्र बने शिक्षक
नौ छात्र इन स्कूलों के लिए स्वयंसेवी शिक्षक के तौर पर काम कर रहे हैं. उन्हीं में से एक शाइरा बेर्डिन बताती हैं, "यह करना बहुत जरूरी है, खासकर ऐसे समय में जब बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं." गांव में पहुंचकर ये छात्र ट्रॉली को रेलवे ट्रैक से उतारकर बगल में रख देते हैं और बच्चों को पढ़ाते हैं.
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दान की सामग्री
ट्रॉली को एक स्कूटर की तरह धकेला जाता है. ये स्वयंसेवी शिक्षक एक दिन में लगभग 60 बच्चों को पढ़ाते हैं. बीते साल नवंबर में यह प्रयास शुरू हुआ था और शिक्षण सामग्री दान के जरिए ही जुटाई गई है.
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यह पिछले दो दशक से चले आ रहे चलन का उलटा है जबकि हर वर्ग के परिवारों में अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी थी. हर माता-पिता यह मान रहे थे कि निजी स्कूल उनके बच्चों को आधुनिक बाजार की मांग के हिसाब से रोजगार के लिए बेहतर तैयार कर सकते हैं. लेकिन कोविड और उसके बाद आई महंगाईने इस चलन को पलट दिया है.
खान बताते हैं, "मेरे परिवार की तो चूलें हिल गई हैं. कई बार तो बहुत निराश और बेबस महसूस होता है कि मैं इतनी मेहनत के बावजूद अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दे पा रहा हूं.” खान की बेटी 12वीं में है और अभी भी निजी स्कूल में जा रही है क्योंकि उसके लिए किसी सरकारी स्कूल में सीट नहीं मिल पाई.
भारत के निजी स्कूलों की फीस का ढांचा बहुत ऊंचा और जटिल है. वहां कई तरह की फीस ली जाती है जो स्कूल के रुतबे के मुताबिक कुछ से कई हजार तक हो सकती है. और इस बार सिर्फ स्कूल फीस नहीं बढ़ी है बल्कि और खर्चे भी बढ़ गए हैं. जैसे कि बच्चों को स्कूल लाने ले जाने वाली वैन की फीस 15 प्रतिशत तक बढ़ गई है.
शिक्षा में बंगाल अव्वल, बिहार फिसड्डी
भारत सरकार की इकनॉमिक अडवाइजरी काउंसिल टु द प्राइम मिनिस्टर (EAC-PM) ने 2021 का फाउंडेशनल लिटरेसी ऐंड न्यूमरेसी इंडेक्स जारी किया है. यह इंडेक्स बताता है कि 10 साल से कम उम्र के छात्रों का ज्ञान किस स्तर पर है.
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सबसे ऊपर पश्चिम बंगाल
इस इंडेक्स में पश्चिम बंगाल के बच्चों को सबसे होनहार बताया गया है. यह बड़े राज्यों की श्रेणी का नतीजा है. सबसे खराब नंबर बिहार को मिले. तमिलनाडु दूसरे और महाराष्ट्र तीसरे नंबर पर रहा.
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छोटे राज्यों में केरल अव्वल
छोटे राज्यों की श्रेणी में सबसे ज्यादा ज्ञान केरल के बच्चों में पाया गया. सबसे बुरा हाल झारखंड का रहा. दूसरे नंबर पर हिमाचल प्रदेश और तीसरे पर पंजाब का नंबर था.
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केंद्र शासित प्रदेश
यूटी कैटिगरी में लक्षद्वीप सबसे ऊपर रहा जबकि लद्दाख का प्रदर्शन सबसे खराब रहा.
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उत्तर पूर्वी राज्य
उत्तर पूर्वी राज्यों की कैटिगरी अलग थी. वहां मिजोरम को अव्वल नंबर दिया गया जबकि अरुणाचल प्रदेश को सबसे कम.
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औसत से भी नीचे
इस अध्ययन में पाया गया कि आधे से ज्यादा राज्यों का स्कोर राष्ट्रीय औसत (28.05) से नीचे था.
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पैमाने
इस अध्ययन में विभिन्न राज्यों को 41 मानकों पर परखा गया. इसके लिए पांच स्तंभ तय किए गए थे जिनमें शिक्षा तक पहुंच, आधारभूत स्वास्थ्य, नतीजे और प्रशासन शामिल हैं
तस्वीर: picture-alliance / su5/ZUMA Press
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47 साल के अर्जुन सिंह एक स्कूल वैन चलाते हैं. उनकी अपनी तीन स्कूल वैन हैं. उन्होंने कहा कि अप्रैल से उन्होंने फीस 35 फीसदी बढ़ाई है क्योंकि तेल बहुत महंगा हो गया है. वह कहते हैं कि सीएनजी के दाम लगभग दोगुने हो चुके हैं. मार्च में भारत की मुद्रा स्फीति की दर 6.95 प्रतिशत पर थी, जो 17 महीने में सर्वाधिक है और केंद्रीय रिजर्व बैंक के लक्ष्य से ऊपर है.
स्कूलों ने कहा, मजबूरी है
दिल्ली पेरंट्स एसोसिएशन की अध्यक्ष अपराजिता गौतम बताती हैं कि कई निजी स्कूलों ने इस साल से फीस 15 प्रतिशत तक बढ़ाई है. उनके संगठन ने कई निजी स्कूलों के बाहर विरोध प्रदर्शन भी किया था. इसके जवाब में दिल्ली की सरकार ने सरकारी स्कूलों में दाखिले की प्रक्रिया आसान कर दी और निजी स्कूलों के ऑडिट की भी बात कही. सरकार चाहती थी कि फीस की वृद्धि की सीमा 10 प्रतिशत कर दी जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया.
गौतम कहती हैं, "ज्यादातर स्कूल माता-पिता को मजबूर कर रहे हैं कि बढ़ी हुई फीस दो नहीं तो नतीजे के लिए तैयार रहो.”
असली जिंदगी का नायकः सड़क को बनाया स्कूल
दीप नारायण नायक पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव जोबा अट्टापाड़ा गांव में स्कूल टीचर हैं. वह नाम से ही नहीं, जज्बे से भी नायक हैं.
लॉकडाउन के कारण स्कूल बंद हो गए तो दीप नायारण नायक को अपने छात्रों के पीछे छूट जाने की चिंता हुई. उन्होंने बच्चों तक पहुंचने का तरीका निकाला. उन्होंने गलियों की दीवारों को रंगकर बोर्ड बना दिया और वहीं क्लास लेने लगे.
तस्वीर: Rupak De Chowdhuri/REUTERS
पढ़ाई भी, सिखाई भी
पिछले कई महीनों से नायक इसी तरह अपने छात्रों को पढ़ा रहे हैं ताकि उनके बच्चे लॉकडाउन के कारण शिक्षा से महरूम न रह जाएं. वह लोक गीतों से लेकर हाथ धोने की जरूरत तक बच्चों को हर तरह का ज्ञान देते हैं.
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कोई बच्चा छूटे नहीं
नायक बताते हैं कि उनकी क्लास में ज्यादातर बच्चे ऐसे हैं जिनके परिवार से पहली बार कोई स्कूल आया. तो वह उन्हें पीछे नहीं छूटने देना चाहते.
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माता पिता भी खुश
बच्चों के माता पिता भी उनकी इस कोशिश से खुश हैं. एक बच्चे के पिता ने बताया कि पहले तो बच्चे यूं ही गलियों में भटकते रहते थे, नायक की इस कोशिश ने उन्हें फिर से पढ़ाई में लगा दिया है.
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गांव नहीं पहुंची ऑनलाइन पढ़ाई
हाल ही में आए एक सर्वे के मुताबिक भारत के गांवों में सिर्फ 8 प्रतिशत बच्चे ही लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई कर पाए और 37 फीसदी तो बिल्कुल नहीं पढ़ पाए.
यही स्थिति देश के अन्य शहरों में भी है. कोलकाता में पिछले महीने ही शहर के करीब 70 फीसदी निजी स्कूलों ने फीस में 20 प्रतिशत की वृद्धि की थी. स्कूल इस वृद्धि को सही ठहराते हैं. नेशनल प्रोग्रेसिव स्कूल्स कॉन्फ्रेंस की प्रमुख और आईटीएल पब्लिक स्कूल की प्रिंसीपल सुधा आचार्य कहती हैं कि स्कूलों पर भी महंगाई का असर हो रहा है. आचार्य ने बताया, "स्कूल फीस बढ़ाए बिना शिक्षा की गुणवत्ता बरकरार रखना संभव नहीं है.”
दिल्ली स्थित सेंटर स्क्वेयर फाउंडेशन ने एक अध्ययन में पाया कि 2021 में देश के साढ़े चार लाख निजी स्कूलों में से 70 प्रतिशत की न्यूनतम मासिक फीस एक हजार रुपये प्रति छात्र है. इन स्कूलों को महामारी के दौरान 20-50 प्रतिशत तक का घाटा झेलना पड़ा.