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भारत: राजनीतिक पार्टियों में फंडिंग कैसे गलत है?

महिमा कपूर
१४ मार्च २०२४

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड के तहत मिलने वाले चंदे को असंवैधानिक फंडिंग करार देते हुए उस पर रोक लगा दी है, लेकिन राजनेता फिर भी पैसे जुटाने के लिए हर तरीका अपना रहे हैं.

भारत के आम चुनावों में नरेंद्र मोदी की बीजेपी सरकार सत्ता में तीसरा कार्यकाल हासिल करने की उम्मीद कर रही है.तस्वीर: Debajyoti Chakraborty/NurPhoto/picture alliance

भारत में राजनीतिक चंदे से जुड़ी व्यवस्था को लेकर एक बात साफ है कि जनता इससे भली भांति अवगत नहीं रही है. नेता और चुनाव अधिकारी इसके लिए जिम्मेदार हैं जिन्होंने सार्वजनिक रूप से लगातार ये माना है कि वे पारदर्शिता को सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं.

फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड सिस्टम को खारिज कर दिया था. इसमें लोग अपनी पसंदीदा पार्टी को बेतहाशा चंदा दे सकते थे, वो भी बिना अपनी पहचान बताए. 

इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को छह साल पहले शुरू किया गया था. तब से अब तक कई लोग इसे असंवैधानिक बताते रहे हैं और आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर हामी जताई और कहा कि ये सच है कि इससे लोगों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन हो रहा है. यह ऐतिहासिक फैसला भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के रुख के उलट है.

हालांकि इलेक्टोरल बॉन्ड के बगैर इस सिस्टम में कई समस्याएं हैं.

भारत के पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी ने डीडब्ल्यू को बताया, "जहां राजनीतिक सुधारों के समर्थक सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का समर्थन कर रहे हैं, वहीं हम पुराने समय में वापस जा चुके हैं जहां 70 प्रतिशत चंदा नकद के रूप में दिया जाता था. हम वापस वहीं  पहुंच गए हैं जहां से हमने शुरुआत की थी.”

भारत में मई तक आम चुनाव हो जाने हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी अपने तीसरे कार्यकाल के लिए जद्दोजहद कर रही है.

यह चुनाव भारत के इतिहास में सबसे खर्चीले होने वाला है. राजनीतिक दलों के खर्च पर नजर रखने वाली नई दिल्ली की संस्था सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज का अनुमान है कि विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव अभियान में लगभग 14.4 अरब डॉलर (13.27 अरब यूरो) खर्च कर सकते हैं.

बड़े चंदों का छोटे नकद तोहफों में तब्दील किया जाएगा

किसी भी राजनीतिक दल को यदि 20 हजार रुपये से ज्यादा का चंदा नगदी में मिलता है तो अपनी सालाना रिपोर्ट में उन्हें चुनाव आयोग को इसकी जानकारी देनी पड़ती है. इस वजह से पार्टियां बड़े चंदे को बीस हजार या उससे कम के टुकड़ों में बांट देती हैं. किसी भी राजनीतिक पार्टी के कुल चंदे का सबसे ज्यादा बड़ा हिस्सा इसी तरह के चंदे के रूप में होता है.

एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) में पॉलीटिकल पार्टी वॉच की प्रमुख शैली महाजन ने कहा, "समस्या उस चंदे के साथ है जो बीस हजार रुपये से कम है. इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर तो बहुत हंगामा है लेकिन कोई भी इस चंदे के बारे में बात नहीं कर रहा जो उतनी ही समस्याओं से जुड़ा हुआ है.

एडीआर जैसी संस्थाएं चुनावी चंदे में पारदर्शिता को लेकर अभियान चलाती आ रही हैं. उनका मानना है कि इस पारदर्शिता से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हो सकेंगे.

एडीआर के 11 वर्षों के एक अध्ययन में यह पता चला कि 2004 से 2015 के बीच राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को जो चंदा मिला उसमें से लगभग दो तिहाई चंदा अज्ञात स्रोतों से प्राप्त हुआ जिसकी कोई पड़ताल नहीं की जा सकती थी.

राजनीतिक दल कूपनों की बिक्री और रैलियों के दौरान अलग-अलग तरीकों से भी पैसे इकट्ठा करते हैं.तस्वीर: Salman Ali/Hindustan Times/Sipa USA/picture alliance

राजनीतिक दल कूपनों की बिक्री और रैलियों के दौरान अलग-अलग तरीकों से भी पैसे इकट्ठा करते हैं. हालांकि ऐसे मिलने वाले पैसे बहुत कम होते हैं, लेकिन यह भी निगरानी के दायरे में नहीं आते और इसलिए उनका पता लगाना भी मुश्किल हो जाता  है. 

जानकारों का मानना है कि यह मनमानी प्रणाली भ्रष्टाचार और वित्तीय लेनदेन में यथास्थिति को बनाए रखेगी जिसकी चर्चा भारतीय मीडिया ने भी की है.

काला धन और राजनीतिक दल

राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव में ‘काले धन' का उपयोग किसी से छिपी नहीं है. भारत में काले धन को ‘डर्टी मनी' भी कहा जाता है. यह एक ऐसा ध68473016न है जो अवैध आमदनी या कर चोरी से जुटाया गया हो.

काले धन के मुद्दे पर काम कर चुके दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर अरुण कुमार ने लीफलेट नाम की पत्रिका में बताया है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 62 प्रतिशत की भागीदारी काली अर्थव्यवस्था की है. इस काले धन की अर्थव्यवस्था को बनाए रखने के लिए चुनाव में भी काला धन लगाया जाता है ताकि बेईमान राजनीतिक दल और नेता सत्ता में आ सकें.

चुनाव में काले धन का कितना इस्तेमाल किया जाता है, इसका पता लगाना तो मुश्किल है लेकिन इसका असर काफी बुरा हो सकता है क्योंकि इस से राजनीतिक चंदे पर लगाम कसना मुश्किल हो जाता है.

कुरैशी ने डीडब्ल्यू को बताया कि लगभग चंदा देने वाले, कानूनन-तय सीमा से 20 से 30 गुना ज्यादा राशि काले धन के रूप में देते हैं.

मतदाताओं को रिश्वतखोरी

लोकल मीडिया में अक्सर ऐसी खबरें आती हैं कि राजनीतिक दल वोट के लिए शराब, खाना, दवाएं, सिगरेट और यहां तक कि नकदी भी मतदाताओं को बांटते हैं. अपनी लोकप्रियता का लोहा मनवाने के लिए रैलियों में भीड़ जुटाते हैं और उन्हें पैसे देते हैं. वर्ष 2019 के आम चुनाव अभियान के बीच भारत के चुनाव आयोग ने विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से हजारों- करोड़ों रुपये की दवाएं, शराब, मूल्यवान धातुएं और नकदी जब्त की थी.

कुरैशी ने बताया, "हमने एंबुलेंस से लेकर दूध के टैंकरों, कारों और पुलिस अधिकारियों और मंत्रियों के विमानों से भी नकदी जब्त की थी.”

एडीआर के साथ काम कर रहे सेवानिवृत्त मेजर जनरल अनिल वर्मा ने बताया कि इसमें से ज्यादातर वित्तीय संसाधन काले धन के जरिये आते हैं.

पार्टियां अपनी फंडिंग स्रोतों का एक बड़ा हिस्सा अज्ञात रखती हैं.तस्वीर: Diptendu Dutta/NurPhoto/picture alliance

वर्मा ने बताया कि ये तो हर इंसान देख सकता है. चुनाव आयोग भी गौर करता है. वे चुनाव पर्यवेक्षक भी नियुक्त करते हैं, लेकिन यह नेताओं और चुनाव आयोग के अधिकारियों के बीच चूहे-बिल्ली के खेल की तरह चलता रहता है.

कोई सुधार चाहता ही नहीं

जानकारों का मानना है कि यह एक दुष्चक्र है जहां सत्ता में बैठे लोग ही चुनावी चंदे से जुड़े सुधारों का विरोध करते हैं क्योंकि वही इससे प्रभावित होते हैं.

"निश्चित रूप से इसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है.” कुरैशी कहते हैं, "राजनीतिक दल सरकारों के रूप में सत्ता में आते जाते हैं लेकिन कोई भी दल हमारे प्रस्तावों पर गौर करने की जहमत नहीं उठाता और अगर उन्होंने कोई सुधार किये भी तो वे बहुत ही अजीबोगरीब या विफल साबित होते हुए.”  

उन्होंने एक राष्ट्रीय कोष के गठन का सुझाव दिया है जिसमें लोगों द्वारा चंदा इकट्ठा हो और उसका वितरण राजनीतिक दलों के चुनावी प्रदर्शन का आधार पर किया जाए.

एडीआर प्रमुख वर्मा सहमति जताते हुए कहते हैं कि जब नेताओं को सुधार के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा तब तक सुधार के आसार नहीं दिखेंगे. वह कहते हैं, "वे सभी खुश हैं, सभी पैसा बना रहे हैं. यह सब पैसे का ही तो खेल है.”

इलेक्टोरल बॉन्ड पर आया फैसला दर्शाता है कि ऐसे परिवर्तन संभव है. अब वर्मा और कुरैशी जैसे एक्टिविस्ट को सुप्रीम कोर्ट में चुनावी चंदों से जुड़ी लंबित याचिकाओं पर सुनवाई से जुड़ी आशा बंधी है.

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