पिछले साल भारत ने गेहूं के निर्यात पर रोक लगाई थी. अब गैर-बासमती और बासमती चावल के निर्यात पर भी कई तरह की रोक लगा दी गई है. हालांकि इन कदमों से खाद्य महंगाई में आंशिक राहत ही मिली है.
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भारत सरकार ने पिछले साल गेहूं निर्यात को बैन किया था. इसके बाद गैर-बासमती चावल का निर्यात बैन हुआ और अब बारी आई बासमती चावल के निर्यात पर कई तरह की पाबंदियों की. इन सारे कदमों के बावजूद भारत में खाद्य महंगाई नियंत्रित होने का नाम नहीं ले रही.
फिर अल नीनो के प्रभाव के चलते कमजोर होता मॉनसून, सरकार के भंडार में घटता अनाज, फ्री राशन स्कीम की जरूरतें और महंगाई के दौर में नजदीक आते चुनाव भी सरकार और जानकारों की चिंता बढ़ा रहे हैं.
जीवनस्तर ही नहीं पोषण के लिए भी चिंता
जुलाई में भारत में खाद्य महंगाई 11.5 फीसदी रही. यह तीन साल में सबसे उच्चतम स्तर था. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पिछले पांच साल में भारत में सामान्य खाने की थाली का दाम 65 फीसदी बढ़ा है, जबकि इस दौरान लोगों की कमाई सिर्फ 37 फीसदी बढ़ी है. यानी खाने पर लोगों का खर्च काफी ज्यादा बढ़ गया है.
एक ओर यह महंगाई आम लोगों के जीवनस्तर को प्रभावित कर रही है, तो दूसरी ओर वंचित समुदाय से आने वाले लोगों और खासकर बच्चों की पोषण जरूरतों के लिए भी चिंता पैदा कर रही है. दूध, दाल और अंडों की महंगाई से बच्चों का स्वास्थ्य खासकर प्रभावित होता है क्योंकि उनके लिए इन चीजों की उपलब्धता घट जाती है. ग्रामीण इलाकों में ये समुदाय ज्यादा संकट में है क्योंकि वहां लगातार लोगों की क्रय क्षमता घट रही है.
आर्थिक जानकारियां देने वाली प्रतिष्ठित कंपनी "स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ग्लोबल" के सम्यक पांडेय बताते हैं कि यह एक चक्रीय क्रम है और भारत में खाद्य महंगाई सिर्फ गेहूं या चावल तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरी खाद्य बास्केट ही महंगाई से जूझ रही है. ऐसे में सिर्फ निर्यात पर पाबंदी से इसे रोका जा सकेगा, संभव नहीं लगता.
ये खाएं - सेहत और दुनिया दोनों बचाएं
2050 तक दुनिया की आबादी दस अरब को पार कर जाएगी. ऐसे में खाने की आदतें ना बदलीं तो खाना उगाना ही मुश्किल हो जाएगा. इसलिए जरूरी है कि खाने के ऐसे विकल्पों को चुना जाए जो सेहत के लिए भी अच्छे हैं और पर्यावरण के लिए भी.
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बदलें अपनी आदतें
दुनिया भर में सबसे ज्यादा खेती गेहूं, चावल और मक्के की होती है. जाहिर है, ऐसा इसलिए क्योंकि इनकी खपत भी सबसे ज्यादा है. लेकिन जिस तेजी से दुनिया की आबादी बढ़ रही है, कुछ दशकों में सभी को गेहूं-चावल मुहैया कराना मुमकिन नहीं रह जाएगा. संयुक्त राष्ट्र की संस्था WWF ने कुछ ऐसी चीजों की सूची जारी की है जिनसे हम कुदरत को होने वाले नुकसान को कम कर सकते हैं.
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नारंगी टमाटर
क्या जरूरी है कि टमाटर लाल ही हो? दुनिया भर में उगने वाली सब्जियों की सूची में लाल टमाटर सबसे ऊपर है. लेकिन नारंगी टमाटर सेहत और पर्यावरण दोनों के लिहाज से बेहतर हैं. इनमें विटामिन ए और फोलेट की मात्रा लगभग दोगुना होती है और एसिड आधा. स्वाद में ये लाल टमाटरों से ज्यादा मीठे होते हैं.
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अखरोट
इंसान 10,000 सालों से अखरोट खाता आया है और आगे भी इसे खाता रह सकता है. बादाम इत्यादि की तुलना में अखरोट में प्रोटीन, विटामिन और मिनरल ज्यादा होते हैं. ये विटामिन ई और ओमेगा 3 फैटी एसिड का अच्छा स्रोत होते हैं.
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कुट्टू
भारत में इसे व्रत के दौरान खाया जाता है. कुछ लोग कुट्टू के आटे की रोटी बनाते हैं, तो कुछ इसकी खिचड़ी. पश्चिमी दुनिया में अब इसे सुपरफूड बताया जा रहा है और गेहूं का एक बेहतरीन विकल्प भी. सुपरमार्केट में अब बकवीट यानी कुट्टू से बनी ब्रेड और पास्ता भी बिक रहे हैं.
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दालें
इंसान ने जब खेती करना शुरू किया तब तरह तरह की दालें उगाईं. आज जितनी तरह की दालें भारत में खाई जाती हैं, उतनी शायद ही किसी और देश में मिलती हों. शाकाहारी लोगों के लिए ये प्रोटीन का बेहतरीन स्रोत हैं. मीट की तुलना में दालें उगाने पर 43 गुना कम पानी खर्च होता है.
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फलियां
इन्हें उपजाने से जमीन की गुणवत्ता बेहतर होती है. ये जंगली घास को दूर रखती है, इसलिए अन्य फसलों के साथ इसे लगाने से फायदा मिलता है. साथ ही ये मधुमक्खियों को भी खूब आकर्षित करती हैं. सेहत के लिहाज से देखा जाए तो ये फाइबर से भरपूर होती हैं.
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कैक्टस
ये सब जगह तो नहीं मिलता, इसलिए हर कहीं खाया भी नहीं जाता. लेकिन वक्त के साथ इसकी मांग बढ़ रही है. इसके फल को भी खाया जा सकता है, फूल को भी और पत्तों को भी. सिर्फ इंसान के खाने के लिए ही नहीं, जानवर के चारे के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है और बायोगैस बनाने के लिए भी.
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टेफ
भारत में अब तक इस अनाज का इस्तेमाल शुरू नहीं हुआ है. मूल रूप से यह इथियोपिया में मिलता है जहां इसका आटा बनाया जाता है और फिर डोसे जैसी रोटी बनाई जाती है जिसे वहां इंजेरा कहते हैं. हाल के सालों में यूरोप और अमेरिका में इसकी मांग बढ़ी है. यह ऐसा अनाज है जिस पर आसानी से कीड़ा नहीं लगता. यह सूखे में भी उग सकता है और ज्यादा बरसात होने पर भी.
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अलसी
कहते हैं रोज एक चम्मच अलसी के बीज खाने चाहिए. इससे पेट भी साफ रहता है और खून में वसा और चीनी की मात्रा भी नियंत्रित रहती है. यूरोप में ऐसे कई शोध चल रहे हैं जिनके तहत प्रोसेस्ड फूड में गेहूं की जगह अलसी के आटे के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है, खास कर केक और मफिन जैसी चीजों में.
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राजमा
इनका जितना इस्तेमाल उत्तर भारत में होता है, उतना ही मेक्सिको और अन्य लातिन अमेरिकी देशों में भी. अगर इन्हें अंकुरित कर खाया जाए तो इनमें मौजूद पोषक तत्व तीन गुना बढ़ जाते हैं. ये प्रोटीन से भरपूर होते हैं और इसलिए मीट का एक अच्छा विकल्प भी.
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कमल ककड़ी
एशियाई देशों में इसका खूब इस्तेमाल होता है. कमल के पौधे की इसमें खास बात होती है कि उसे बहुत ज्यादा रखरखाव की जरूरत नहीं होती. इसे थोड़े ही पानी की जरूरत होती है और इसलिए पर्यावरण के लिए यह एक कमाल का पौधा है.
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कमजोर मॉनसून और फ्री राशन का बोझ
कोविड के बाद से अब तक वंचित समुदायों के लिए केंद्र सरकार की मुफ्त राशन स्कीम एक बड़ा सहारा रही है. इस पर भी खतरा मंडरा रहा है. अगस्त की शुरुआत में सरकार के सेंट्रल पूल में 2.8 करोड़ टन गेहूं और 2.4 करोड़ टन चावल था. कुल मिलाकर करीब 5.2 करोड़ टन अनाज. जबकि एक अक्टूबर को सामान्य बफर स्टॉक में 30.8 करोड़ टन अनाज होना चाहिए.
भारतीय खाद्य कॉर्पोरेशन को नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट (एनएफएसए) के तहत आवंटन के लिए एक साल में 3.6 करोड़ टन चावल और 1.8 करोड़ टन गेहूं की जरूरत होती है. वहीं दो करोड़ टन चावल और तीन करोड़ टन गेहूं रक्षा और सैन्य जरूरतों के लिए रिजर्व होता है. इसे देखें, तो अब देश के पास एक साल से भी कम का स्टॉक बचा है.
फिर सरकार यह भी कह चुकी है कि वो अतिरिक्त 50 लाख टन गेहूं और 25 लाख टन चावल को खुले बाजार में लाएगी. हालांकि अभी सरकार के चावल भंडार में धान की कटाई शुरू होने के बाद से बढ़ोतरी जरूर होगी. लेकिन एक अक्टूबर से शुरू हो रहे धान कटाई के मौसम पर कमजोर मॉनसून के चलते उत्पादन में कमी का ग्रहण लगा हुआ है.
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कम चावल उत्पादन के दूसरे नुकसान भी
अगस्त की शुरुआत तक किसानों ने करीब 9.2 करोड़ हेक्टेयर इलाके में फसल बुआई की थी, जिसमें से 2.9 करोड़ हेक्टेयर पर धान की बुआई की गई थी. इस बार पिछले साल से धान का रकबा नौ फीसदी बढ़ा है. लेकिन इन तैयारियों को भारत में मानसून की अनियमित बारिश और फिर अल नीनो के असर प्रभावित होने का डर है. अल नीनो का असर खेती के अगले चक्र पर भी होना तय है. अगस्त की रिकॉर्ड कम बारिश के चलते देशभर में पानी के जलाशय अपने स्तर से काफी नीचे हैं. इन जलाशयों का पानी रबी की फसल के काम आता है.
इनके चलते जानकारों को इस साल चावल के अलावा गेहूं की अगली फसल का उत्पादन भी पिछली बार के मुकाबले कम रहने का अनुमान है. सरकार के चावल निर्यात के फैसलों के पीछे यह भी एक बड़ी वजह है. हालांकि इसका ऊर्जा महत्वाकांक्षाओं पर भी असर होना तय है. जैसे सरकार चावल के कुछ स्टॉक एथेनॉल उत्पादन के लिए दे रही थी. अब उसे लेकर भी चिंता पैदा हो गई है. इस साल सरकार ने फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया के स्टॉक से 34 लाख टन चावल एथेनॉल उत्पादन के लिए देने का लक्ष्य रखा था, जिसमें से 13 लाख टन पहले ही दिया जा चुका है. लेकिन आने वाले समय में ऐसी जरूरतों के लिए चावल देना मुश्किल होगा.
एक किलो चिकन के लिए 4000 लीटर पानी!
फिलहाल पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है जिसपर जीवन मुमकिन है. इसकी एक बड़ी वजह है पानी की मौजूदगी. इसलिए इसे बर्बाद नहीं करना चाहिए. लेकिन हम जो खाना खाते हैं, उसे उगाने में कितना पानी खर्च होता है, आइए जानते हैं.
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कॉफी 18,900 लीटर प्रति किलो
एक कप कॉफी के लिए 130 लीटर वर्चुअल पानी लगता है. कई देशों में कॉफी बहुत शौक से पी जाती है. दुनिया भर में करीब 85 अरब घन मीटर पानी का इस्तेमाल कॉफी की खेती के लिए इस्तेमाल होता है.
तस्वीर: Lena Ganssmann
चीज 10,000 लीटर प्रति किलो
चीज दूध का ही उत्पाद है. लेकिन उसके ज्यादा दिन तक टिकने की कीमत पानी से चुकानी पड़ती है. एक किलो चीज के लिए 10 किलो दूध लगता है. पार्मेजान जैसे बहुत कड़े चीज के लिए 16 लीटर दूध लगता है.
तस्वीर: picture-alliance/Anka Agency International
चिकन 4,325 लीटर प्रति किलो
आम तौर पर एक मुर्गी को 38 दिन पाला जाता है. तब तक इसे चुग्गा पानी देना होता है. मुर्गियों को बड़ी संख्या में पिंजरे में पाला जाता है जिसकी देख रेख के लिए बहुत सारे पानी की जरूरत होती है.
तस्वीर: picture-alliance/K. Schulz
अंडे 3,300 लीटर प्रति किलो
एक अंडे में खर्च होने वाले पानी की मात्रा 200 लीटर है. मुर्गियों के खाने में इस्तेमाल होने वाला पानी भी इसमें शामिल है. सामान्य दुकानों में बिकने वाले अंडे पिंजरे की मुर्गियों से मिलते हैं. एक किलो गेहूं का चुग्गा बनाने के लिए 1,300 लीटर पानी चाहिए.
तस्वीर: Colourbox
चावल 2,500 लीटर प्रति किलो
दुनिया की आधी आबादी चावल पर निर्भर है. हर साल करीब 67 लाख टन चावल का उत्पादन होता है. चावल को उगाने से लेकर इसके बाजार में आने तक कम से कम ढाई हजार लीटर पानी की जरूरत पड़ती है.
तस्वीर: Imago Images
मक्का 2,450 लीटर प्रति किलो
मक्का, चावल और गेहूं हमारा मुख्य खाना हैं. दुनिया भर में करीब साढ़े 84 लाख टन मक्का होता है. एक किलो मक्का के उत्पादन पर भारत में 2,450 लीटर पानी लगता है, जबकि अमेरिका में 760 लीटर.
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Huguen
गेहूं 1,300 लीटर प्रति किलो
मुख्य खाने का तीसरा अहम घटक है गेहूं. हर साल दुनिया भर में 65 लाख टन गेहूं होता है. जलवायु के हिसाब से पानी लगता है. स्लोवाकिया में एक किलो के लिए 465 लीटर तो सोमालिया में 18,000 लीटर की जरूरत पड़ती है.
तस्वीर: Narinder Nanu/AFP/Getty Images
दूध 1,000 लीटर प्रति लीटर
हर साल दुनिया भर में 60 लाख टन दूध का उत्पादन होता है. लेकिन दूध निकालने और उसकी प्रोसेसिंग में कुल हजार लीटर पानी खर्च होता है. इसमें गाय के पीने और चारे लिए लगने वाला पानी भी शामिल है.
तस्वीर: Colourbox/E. Atamanenko
वर्चुअल वॉटर
जर्मनी में हर व्यक्ति रोज औसतन 130 लीटर पानी का सीधे इस्तेमाल करता है. लेकिन इससे परे रोजमर्रा के उत्पादों पर खर्च होने वाला पानी भी है जो 4,000 लीटर प्रति व्यक्ति है. इसे वर्चुअल वॉटर कहा जाता है.
तस्वीर: Imago Images/photothek/T. Trutschel
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दर्द बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की
कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक कमजोर मॉनसून का असर दालों के उत्पादन और बाद में उनकी महंगाई पर भी होगा. फरवरी 2024 तक अल नीनो का प्रभाव रह सकता है, यानी यह आने वाली फसलों को भी प्रभावित कर सकता है. भारत सरकार भी इस समस्या को समझ रही है और लगातार इसके लिए प्रयास कर रही है. लेकिन किसी एक खाद्य वस्तु की महंगाई से निजात मिलती है, तो दूसरी खाद्य वस्तु की महंगाई बढ़ जाती है.
एसएंडपी के सम्यक पिछले कई महीनों में सरकार के इस महंगाई से निपटने के कदमों के बारे में बताते हैं. वो खाद्य तेल की महंगाई, दाल की महंगाई, प्याज की महंगाई और गेहूं-चावल की महंगाई को नियंत्रित करने के लिए पिछले महीनों में उठाए गए दर्जन भर प्रयासों की ओर इशारा करते हैं.
खेती के दूसरे जानकार तो यह भी कहते हैं कि खाद्यान्न की महंगाई से निपटने में सरकार का अगला कदम रूस जैसे देशों से गेहूं आयात का हो सकता है. लेकिन गेहूं की बुआई के समय ही मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में चुनाव भी होने हैं. इस वजह से सरकार शायद अभी गेहूं के आयात से बचे.