ऑस्ट्रेलिया में शोधकर्ताओं ने 167 बच्चों के जीवन का जन्म से लेकर 34 साल तक अध्ययन किया और जानना चाहा कि सामाजिक और आर्थिक हालात कैसे जीवन को प्रभावित करते हैं.
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ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने ‘लाइफ चांसेज स्टडी' के तहत 167 लोगों की जिंदगी का 34 साल तक अध्ययन किया है. दशकों चले इस अध्ययन का मकसद यह समझना था कि अलग-अलग पृष्ठभूमियों और सुविधाओं का जीवन में सफल या असफल होने पर कितना असर होता है.
शोधकर्ताओं ने मेलबर्न शहर के दो कस्बों में जन्मे इन बच्चों के जीवन का जन्म के समय से ही अध्ययन किया. इन 167 बच्चों में उच्च, मध्यम और कम आय वाले परिवार शामिल थे. इनमें ऐसे लोग भी थे जो किराए के घरों में रहते थे और ऐसे भी थे जिनके पास अपने घर हैं.
इस अध्ययन के जरिए शोधकर्ताओं ने जानने की कोशिश की कि जीवन के शुरुआती सालों से लेकर जवानी और उसके बाद मिलने वाली सुविधाएं और मौके लोगों की जिंदगी को कैसे प्रभावित कर सकते हैं. शोधकर्ताओं ने पूरे अध्ययन को चार चरणों में बांटा था. ये चरण थे, शुरुआती साल, स्कूली जीवन, स्कूल से आगे का बदलाव और काम व पारिवारिक जीवन.
शोधकर्ता कहते हैं, "शोध के हर चरण में असमानता के अलग-अलग पहलुओं का आकलन किया गया ताकि प्रतिभागियों को मिलने वाले मौकों और वित्तीय सुरक्षा के प्रभावों को समझा जा सके.”
जन्म के हालात का असर
गरीबी और असमानता के खिलाफ काम करने वाले सामाजिक संगठन बीएसएल की रिसर्च फेलो डीना बोमन और उरसूला हैरिसन ने यह अध्ययन किया है. अपने शोधपत्र में वे कहती हैं, "एक पीढ़ी के तौर पर इस अध्ययन में शामिल लोगों ने एक जैसे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बदलाव देखे. जब वे बच्चे थे तो उन्होंने 1990 की मंदी के दौर को जिया. उसके बाद किशोर होने पर उन्होंने वैश्विक मंदी देखी और हाल के सालों में उन्होंने कोविड-19 महामारी और महंगाई के संकट को देखा.”
मानव विकास सूचकांक पर 193 देशों में भारत 134वें नंबर पर
संयुक्त राष्ट्र के 2022-23 के मानव विकास सूचकांक पर भारत को 193 देशों में से 134वां स्थान मिला है. 2021 के मुकाबले भारत का प्रदर्शन बेहतर हुआ है लेकिन वह बांग्लादेश, श्रीलंका, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील से पीछे है.
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भारत के प्रदर्शन में सुधार
2022-23 के मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) पर भारत को 193 देशों में से 134वां स्थान मिला है, जबकि 2021-22 में उसे 191 देशों में 135वां स्थान मिला था. भारत की एचडीआई वैल्यू 0.644 आंकी गई है, जो 2021 में 0.633 थी. सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले देश की एचडीआई वैल्यू 0.967 है.
रिपोर्ट में भारत को मध्यम मानव विकास श्रेणी में रखा गया है. साथ ही कहा गया है कि 1990 से लेकर 2022 तक भारत की एचडीआई वैल्यू में 48.4 प्रतिशत का सुधार हुआ है. 1990 में भारत की वैल्यू 0.434 थी. रिपोर्ट के मुताबिक 2022 में भारत ने एचडीआई के सभी मानकों पर सुधार दर्ज किया. इनमें अनुमानित जीवनकाल, शिक्षा, प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय शामिल हैं.
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लैंगिक बराबरी में भी सुधार
2022 के लैंगिक गैर-बराबरी सूचकांक (जीआईआई) पर भारत को 193 में से 108वां स्थान मिला, जबकि 2021 में उसे 191 में से 122वां स्थान मिला था. देश की जीआईआई वैल्यू 0.437 है, जबकि पहला स्थान पाने वाले देश की वैल्यू 0.009 है.
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वैश्विक औसत से बेहतर
जीआईआई के तहत प्रजनन स्वास्थ्य, सशक्तिकरण और श्रम बाजार मानकों पर लैंगिक गैर-बराबरी का आकलन किया जाता है. भारत की जीआईआई वैल्यू (0.437) वैश्विक औसत (0.462) और दक्षिण एशियाई औसत (0.478) से बेहतर है. हालांकि देश में कामकाजी पुरुषों और महिलाओं की दर में 47.8 प्रतिशत का अंतर है, जो दुनिया में सबसे खराब अंतरों में से है.
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पड़ोस में स्थिति
भारत के पड़ोसी देशों में बांग्लादेश (129) और श्रीलंका (78) ने काफी बेहतर स्थान हासिल किया है. पाकिस्तान 164वें और नेपाल 146वें स्थान पर है. अन्य देशों में चीन 75वें, दक्षिण अफ्रीका 110वें और ब्राजील 89वें स्थान पर है.
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यूरोप में बेहतर एचडीआई
सूचकांक में चोटी के 10 देशों में ज्यादातर यूरोपीय देश हैं. पहले स्थान पर स्विट्जरलैंड है, दूसरे पर नॉर्वे और तीसरे पर आइसलैंड है. उसके बाद हांग कांग, डेनमार्क, स्वीडन, जर्मनी, आयरलैंड, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया का स्थान है. स्विट्जरलैंड की एचडीआई वैल्यू है 0.967. अमेरिका 20वें स्थान पर है.
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महामारी को पछाड़ा
रिपोर्ट के मुताबिक सभी देशों के प्रदर्शन को जोड़ कर देखें तो पाएंगे कि दुनिया महामारी के पहले के विकास के स्तर पर लौट चुकी है. 2021 और 2022 में वैश्विक एचडीआई लगातार दो बार गिरी थी, लेकिन इस बार बढ़ी है. यूएनडीपी ने 2023 में रिकॉर्ड ऊंचे प्रदर्शन का पूर्वानुमान दिया है.
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बढ़ती गैर-बराबरी
हालांकि रिपोर्ट ने दुनिया में बढ़ती गैर-बराबरी को रेखांकित किया है. अमीर देशों में रिकॉर्ड मानव विकास हो रहा है, जबकि सबसे गरीब देशों में से आधे अभी भी महामारी से पहले के स्तरों से भी नीचे हैं. उत्पादों के वैश्विक व्यापार का करीब 40 प्रतिशत तीन या उससे भी कम देशों के बीच सीमित है.
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शोध का निष्कर्ष है कि एक जैसे संकटों से गुजरने वाले इन लोगों की जिंदगियां उनकी सामाजिक स्थिति से बहुत ज्यादा प्रभावित हुईं. रिपोर्ट कहती है कि "वे आर्थिक रूप से संपन्न हैं या नहीं, उनके परिवार के हालात कैसे हैं, उनके लिंग और राष्ट्रीयता ने भी” उनके जीवन को प्रभावित किया.
अध्ययन में शामिल वियतनामी मूल के एक ऑस्ट्रेलियाई नागरिक ने बताया, "सब लोग एक जगह से शुरुआत नहीं करते हैं लेकिन उन सबको एक ही दौड़ में दौड़ना होता है.”
शोधकर्ता कहते हैं कि जब अमीर और गरीब के बीच अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है तब ऐसे अध्ययन दिखाते हैं कि नीतियां किस तरह अलग-अलग लोगों के जीवन को असमान रूप से प्रभावित करती हैं. मीडिया से बातचीत में डीना बोमन कहती हैं कि जहां से आप शुरुआत करते हैं, इससे तय नहीं होता कि आप जीवन में कहां पहुंचेंगे.
वह बताती हैं, "हमने पाया कि आप किस परिवार में जन्मे, आपके हालात क्या थे, इससे आपकी मंजिल तय नहीं होती. सामाजिक नीतियां और योजनाएं बहुत असर डाल सकती हैं और डालती हैं.”
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नीतियों में बदलाव की सिफारिश
शोधकर्ताओं का आकलन है कि संपन्न परिवारों से आने वाले बच्चों के लिए फैमिली बिजनस में लग जाने, दोस्तों के जरिए नौकरियां पाने या उच्च शिक्षा में निवेश करने की संभावनाएं ज्यादा होती हैं. हालांकि इसका अर्थ यह नहीं है कि जिनके पास धन है उन्हें मुश्किलें नहीं आतीं और हादसे, बीमारियां, परिवारों का टूटना आदि बातें लोगों के जीवन को प्रभावित कर सकती हैं लेकिन जिनके पास संसाधन होते हैं उन्हें मुश्किल वक्त में एक सहारा मिल जाता है.
अमीर देश जर्मनी में क्यों बढ़ रही है गरीबी
जर्मनी में गरीबों की संख्या तेजी बढ़ रही है. खासकर बच्चों में गरीबी रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है. हर पांच में से एक बच्चा गरीबी की जद में है.
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एक रिपोर्ट में सामने आई जानकारी
जर्मनी की गैर-लाभकारी कल्याणकारी संस्था 'पारिटेटिश वोह्लफ़ार्ट्सफर्बांड' ने एक
रिपोर्ट जारी की है. इसके अनुसार, देश में गरीबों की संख्या में काफी तेजी से इजाफा हुआ है. इस रिपोर्ट के नतीजे साल 2022 के डेटा पर आधारित हैं.
तस्वीर: Michael Gstettenbauer/IMAGO
देश में कितने गरीब
रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2022 में जर्मनी में करीब डेढ़ करोड़ लोग गरीबी में जी रहे थे. यानी संख्या कुल आबादी में लगभग 17 प्रतिशत लोग गरीब हैं. 2021 के मुकाबले यह संख्या एक लाख ज्यादा है.
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गरीब बच्चों की रिकॉर्ड संख्या
रिपोर्ट कहती है कि यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी में ना सिर्फ गरीबी बढ़ी, बल्कि बच्चे खासतौर पर इससे प्रभावित पाए गए. देश में हर पांच में से एक बच्चा गरीबी से प्रभावित है.
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कोरोना के बाद और बढ़ी गरीबी
2022 के आंकड़ों की तुलना महामारी के पहले के समय से करें, तो स्थितियां ज्यादा गंभीर दिखती हैं. 2019 से 2022 के बीच गरीबों की संख्या में तकरीबन 10 लाख का इजाफा हुआ. हालांकि जर्मनी में 2006 के बाद से ही गरीबी बढ़ रही है. 2006 से अब तक गरीबों की संख्या में करीब 27 लाख की वृद्धि हुई है.
रिपोर्ट के मुताबिक, कोरोना महामारी के दौरान और इसके बाद भी कई लोगों ने अपनी नौकरी खो दी. कई रिटायर हो गए. ऐसे में लोगों की आमदनी घटी और उनके पास गुजर-बसर के लिए पर्याप्त संसाधनों का अभाव हो गया. फरवरी 2022 में यूक्रेन पर हुए रूस के हमले के बाद भी महंगाई काफी बढ़ी है.
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दुनिया में कितने गरीब
वर्ल्ड बैंक के 2022 के डेटा के अनुसार, दुनिया में करीब 65 करोड़ लोग बेहद गरीबी में जी रहे हैं. यह दुनिया की कुल आबादी का लगभग आठ फीसदी हिस्सा है. दक्षिण सूडान, बुरुंडी, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक और डेमोक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो दुनिया के सबसे गरीब देशों में शामिल हैं.
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रिपोर्ट कहती है, "34 साल के अध्ययन के बाद यह शोध सामाजिक नीतियों और योजनाओं की अहमियत पर जोर देता है. नीतियों में बदलाव से कुछ लोगों के लिए मौके पैदा हुए तो अन्य लोगों के लिए महंगाई और खतरे बढ़े. इससे अध्ययन में शामिलपहली बारः 50 हजार भारतीय महिलाओं को मिला तापमान-बीमा लोगों के जीवन असमान रूप से प्रभावित हुए.”
शोधकर्ता लिखते हैं कि उन्होंने अपने अध्ययन के दौरान ऐसे विभिन्न कारकों की पहचान की जो लोगों के जीवन को प्रभावित कर सकते हैं. इनमें सामाजिक नीतियों से लेकर बुनियादी ढांचे और सेवाओं में सुधार जैसे नीतिगत फैसले शामिल हैं. इन नीतियों से खासतौर पर कमजोर तबकों से आने वाले और आर्थिक रूप से असुरक्षित लोगों को मदद मिल सकती है.