मूलनिवासी संस्कृतियों और भाषाओं के एक विविध समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं. मगर मूलनिवासी समूहों का एक बड़ा हिस्सा संसाधनों और मौकों में सही हिस्सा नहीं पा रहा है. कई इंडीजिनस भाषाएं भी विलुप्त होने का खतरा झेल रही हैं.
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9 अगस्त को "इंटरनेशनल डे ऑफ दि वर्ल्ड्स इंडीजिनस पीपल्स" मनाया जाता है. इंडीजिनस, यानी देशज. किसी खास इलाके के मूलनिवासी. माना जाता है कि दुनिया की कुल आबादी का छह फीसदी से ज्यादा हिस्सा मूलनिवासी समूहों का है. ये अलग-अलग भौगोलिक इलाकों से ताल्लुक रखते हैं. करीब 90 देशों में इनकी मौजूदगी है. ये समूह करीब 5,000 संस्कृतियों की नुमाइंदगी करते हैं.
इंडीजिनस समूह सस्टेनेबल लिविंग के चैंपियन माने जाते हैं. उनके जीने का स्वाभाविक तरीका कुदरत के साथ गुंथा है. दुनिया में करीब सात करोड़ इंडीजिनस लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए जंगलों पर निर्भर है. कुदरत को नुकसान पहुंचाए बिना उसके साथ सहज भाव से कैसे रहना चाहिए, ये व्यवहार इन समूहों के अस्तित्व का हिस्सा हैं. रिसर्च बताते हैं कि जहां इंडीजिनस समूहों के पास जमीन का कंट्रोल होता है, वहां जंगल और जैव-विविधता फलती-फूलती है.
इंडीजिनस भाषाओं का दशक
इन समूहों की पहचान का अभिन्न हिस्सा हैं उनकी भाषाएं. पीढ़ियों से छनकर आते ज्ञान और अनुभवों से भरी ये भाषाएं ना केवल सांस्कृतिक धरोहर हैं, बल्कि दुनिया में बोली-समझी जाने वाली कुल भाषाओं में इनकी सबसे बड़ी हिस्सेदारी भी हैं. मगर इनमें से कई भाषाएं मरती जा रही हैं. दुनिया की 7,000 भाषाओं में कम-से-कम 40 फीसदी ऐसी हैं, जिनपर हमेशा के लिए खत्म हो जाने का खतरा मंडरा रहा है.
अनुमान है कि हर दो हफ्ते पर एक इंडीजिनस भाषा खत्म हो जाती है. मतलब, वो भाषा बोलने-समझने वाला कोई इंसान दुनिया में नहीं बचा. सोचिए, इन मौतों के साथ हम इंसान कितनी सदियों, कितनी पीढ़ियों के अर्जित किए ज्ञान को खो देते हैं! संयुक्त राष्ट्र ने 2022 में "इंडीजिनस भाषाओं का दशक" शुरू किया. इस अभियान का मकसद इंडीजिनस भाषा बोलने वालों को मजबूती देना है.
पाकिस्तान में बेड़ियां तोड़ती यह आदिवासी महिला
पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी आदिवासी इलाके में महिलाओं को राजनीति में हिस्सा लेने की इजाजत नहीं है. लेकिन दुनिया बीबी ने कई चुनौतियों से पार पाते हुए स्थानीय काउंसिल में सीट जीती है.
तस्वीर: Saba Rahman/DW
मर्दों की दुनिया में दुनिया बीबी की जीत
दुनिया बीबी 58 साल की हैं. पढ़ना-लिखना तो वह नहीं जानतीं लेकिन गांव-देश की राजनीतिक हलचलों से पूरी तरह वाकिफ रहती हैं. हर सुबह उनके पति उन्हें अखबार पढ़कर सुनाते हैं. बीबी ने हाल ही में मोहमांद जिले की याकामंद काउंसिल में चुनाव जीता है. उन्होंने बड़े राजनीतिक दलों की उम्मीदवारों को हराया.
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मर्दों का अधिपत्य
बीबी उस इलाके में राजनीति कर रही हैं जहां मर्दों की चलती है. महिलाओं को तो पुरुषों के बिना घर से बाहर जाने तक की इजाजत नहीं है. उन्होंने डॉयचेवेले को बताया कि एक महिला के लिए यहां का प्रतिनिधि होना जरूरी था.
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महिला शिक्षा है प्राथमिकता
दोपहर बाद बीबी अपने पोते-पोतियों के साथ चाय पीती हैं और उनसे उनकी पढ़ाई के बारे में पूछती हैं. वह कहती हैं कि पाकिस्तान के आदिवासी इलाके की तरक्की के लिए शिक्षा जरूरी है. वह कहती हैं, “हमारे इलाके में लड़कियों को स्कूल जाने की इजाजत नहीं है इसलिए वे अपने फैसले खुद नहीं ले पातीं. मैं इसे बदलना चाहती हूं.”
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पति का साथ मिला
बीबी के पति अब्दुल गफ्फूर ने अपनी पत्नी का भरपूर साथ दिया है. वह कहते हैं कि इलाके में महिलाओं के मुद्दों के बारे में पुरुष ज्यादा नहीं जानते, इसलिए मैंने अपनी पत्नी को चुनाव लड़ने के प्रोत्साहित किया.
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बच्चों को गर्व है
बीबी के बच्चों को अपनी मां पर गर्व है. उनका बेटा अली मुराद नेशनल कॉलेज ऑफ आर्ट्स से ग्रैजुएट है. मुराद कहते हैं, “आमतौर पर लोग सोचते हैं कि आदिवासी महिलाओं का घर के बाहर क्या काम. मेरी मां ने यह सोच बदली है.”
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घर-बाहर दोनों की संभाल
बीबी घर के सारे काम बराबर संभालती हैं. लकड़ी लाने से लेकर कपड़े धोने और खाना बनाने तक सारे काम करते हुए वह कहती हैं कि काम-काज उन्हें सेहतमंद रखता है.
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तालिबान से अपील
बीबी पड़ोसी देश में तालिबान सरकार से अपील करती हैं कि वे भी महिलाओं को सशक्त करें, उनकी पढ़ाई पर ध्यान दें. वह कहती हैं, “अगर वे ऐसा करेंगे तो ना सिर्फ अफगानिस्तान बल्कि पाकिस्तान के कबायली इलाकों में भी स्थिरता आएगी."
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जीवनस्तर दुरुस्त करने की जरूरत
दुनिया में संसाधनों के बंटवारे और आर्थिक प्राथमिकताओं से जन्मे मकड़जाल के चलते इंडीजिनस समूहों को बड़ा नुकसान हो रहा है. 86 फीसदी से ज्यादा इंडीजिनस लोग अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करते हैं. लगभग 47 फीसदी की पढ़ाई-लिखाई नहीं हो पाती. उनके गरीब होने की संभावना ज्यादा है. इसका असर उनके जीवनस्तर, पोषण और सामाजिक सुरक्षा पर पड़ता है. उनके बीमार होने की आशंका बढ़ जाती है.
स्वास्थ्य सुविधाओं और संसाधनों की कमी के कारण वो कम जी पाते हैं. महिलाओं की स्थिति और खराब है. यूएनडीपी के मुताबिक, तीन में से कम-से-कम एक इंडीजिनस महिला यौन उत्पीड़न की शिकार है. कम उम्र में प्रेगनेंसी, सेक्स से ट्रांसमिट होने वाली बीमारियां और बच्चा पैदा करते समय मौत के मामले भी इनके बीच ज्यादा हैं.
संस्कृति, परंपरा, भाषा, ज्ञान...हर मामले में इंडीजिनस समूह अनमोल हैं. ये वो धरोहर है, जिसे बहुत सहेजकर रखा जाना चाहिए. उनके अधिकार सुरक्षित और सुनिश्चित किए जाने चाहिए.
मिलिए अफ्रीका के घने जंगलों में रहने वाले पिग्मी लोगों से
पिग्मी अफ्रीकी देश कॉन्गो के घने जंगलों में रहते हैं. लेकिन अब उनके पुरखों के इलाके पर धीरे धीरे कब्जा होता जा रहा है और उन्हें अपनी संस्कृति को बचाने के लिए जंगलों के और अंदर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है.
तस्वीर: Marco Simoncelli
घने जंगलों में शरण
मोवियो एक युवा आका-बेंजेले पिग्मी है और वो पहले पूरे जंगल में शिकार करने और खाना इकट्ठा करने के लिए स्वच्छंद घूमता था. लेकिन जब उसके समुदाय के लोगों पर जमींदारों, वन विभाग और खनन से जुड़े लोगों की वजह से खतरा मंडराने लगा, तब उन्होंने अपनी खानाबदोश संस्कृति को छोड़कर जंगल के अंदर की तरफ एक जगह बस जाने का फैसला किया.
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अफ्रीका के आखिरी शिकारी खानाबदोश
पिग्मी लोग अफ्रीका के आखिरी शिकारी खानाबदोश समुदायों में से हैं. कभी ये लोग पूरी कॉन्गो घाटी में रहा करते थे, लेकिन अब इनका इलाका सिमट गया है. केंद्रीय अफ्रीका के नौ देशों के जंगलों में अभी भी करीब 9,00,000 पिग्मी रहते हैं, लेकिन मोवियो जैसे युवाओं के लिए अब अपनी शिकारी परंपरा को जिंदा रखना और मुश्किल होता जा रहा है.
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जीने के तरीके पर ही खतरा
पिग्मी लोग जंगलों के रहस्य और उनसे जुड़े रिवाज अपने बच्चों को जन्म के साथ ही सिखाना शुरू कर देते हैं. लेकिन आका-बेंजेल समुदाय को अब यह चिंता है कि अब वो यह ज्ञान आने वाली पीढ़ियों को नहीं दे पाएंगे. केंद्रीय अफ्रीका के अधिकांश इलाकों में पिग्मी अब स्वतंत्र रूप से उन इलाकों में घूम नहीं सकते जो पारंपरिक रूप से उन्हीं के थे.
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लोंगा, जहां मिलती है भेदभाव से पनाह
लोंगा गांव लिकुआला विभाग के वर्षा वनों के गहरे अंदर स्थित है. यहां नस्लीय भेदभाव से दूर सामुदायिक जीवन चुपचाप चल रहा है. कॉन्गो पिग्मी लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून पास करने वाला पहला देश था, लेकिन उसके बावजूद आज भी उन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है.
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जंगल के साथ तालमेल
कॉन्गो के समाज में पिग्मी लोगों को तुच्छ समझा जाता है. बैंतु जनजाति के लोग कभी इन्हें गुलामों की तरह रखते थे और आज भी वो इन्हें पिछड़ा हुआ समझते हैं. लेकिन पिग्मी लोगों का वर्षा वनों के पर्यावरण से बहुत करीबी रिश्ता है. वो उसकी पूजा करते हैं, प्रकृति के साथ तालमेल बना कर रहते हैं और पर्यावरण की रक्षा भी करते हैं.
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जलवायु के लिए जरूरी जंगल
पिग्मी अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह से कॉन्गो घाटी के जंगलों पर निर्भर हैं. ये दुनिया के दूसरे सबसे बड़े वर्षावन हैं और ये वैश्विक जलवायु के संतुलन के लिए भी बहुत महत्ववूर्ण हैं. ये साल में 1.2 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड सोख लेते हैं. लेकिन अब इन जंगलों पर पेड़ काटने, खनन और शहरीकरण की वजह से खतरा मंडरा रहा है.
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अद्भुत शिकारी और जंगल गाइड
आका-बेंजेले लोग रात में भी जंगल में रास्ता ढूंढ सकते हैं. ये परभक्षियों की पकड़ में ना आने में माहिर होते हैं और प्रतिभाशाली शिकारी होते हैं. ये दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण अभयारण्यों में से एक में रहते हैं, जो 24 करोड़ हेक्टेयर में फैला है और जो 10,000 से भी ज्यादा किस्म के पौधों और हजारों जानवरों का घर है.
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वन अधिकारियों द्वारा शोषण
जंगलों के कई हिस्सों में अभयारण्य के पहरेदारों ने पिग्मी लोगों पर अवैध शिकार का आरोप लगा कर उनकी बस्तियों पर हमला कर उन्हें जला दिया. 2016 में सर्वाइवल इंटरनैशनल संस्था ने डब्ल्यूडब्ल्यूएफ और अफ्रीका के उद्यानों पर मूल निवासी लोगों के शोषण के सैकड़ों मामलों का आरोप लगाया.
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संरक्षण के नाम पर
संयुक्त राष्ट्र की जांच में भी पर्यावरण समूहों द्वारा पिग्मी लोगों के शोषण और मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों की पुष्टि हुई है. इससे मूल निवासियों की पारम्परिक जमीन पर अभयारण्य बनाने पर भी सवाल खड़े करता है.
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वन देवता 'मोबे'
सूर्यास्त के समय लोंगा में पिग्मी लोगों के वन देवता 'मोबे' का रूप लिए एक शख्स आता है. लोग देवता से फलों और अच्छे शिकार का आशीर्वाद मांगते हैं. कॉन्गो के एथनोलॉजिस्ट सोरेल एटा कहते हैं, "उन्होंने अपनी दुनिया की सालों से रक्षा की है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि हम इनके बिना जंगल को बचा नहीं पाते." (मार्को सिमोंसेली)