मणिपुर में लागू सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के खिलाफ दुनिया में सबसे लंबी भूख हड़ताल का रिकॉर्ड बनाने वाली इरोम शर्मिला ने मंगलवार को अपनी राजनीतिक पार्टी के गठन का एलान कर राजनीति में नई पारी की शुरुआत कर दी है.
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इरोम शर्मिला ने अपनी भूख हड़ताल खत्म करने के समय ही राजनीति में उतरने और मणिपुर में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में हिस्सा लेने का एलान किया था. लेकिन मंगलवार को उन्होंने औपचारिक रूप से इस दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया.
नईपार्टी
मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम ने मणिपुर की राजधानी इंफाल में पीपल्स रिसर्जेंस जस्टिस एलायंस (प्रजा) नामक नई राजनीतिक पार्टी का एलान किया. अब इसके बैनर तले चुनाव लड़ कर वह अगले साल मणिपुर के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहती हैं ताकि राज्य से विशेषाधिकार अधिनियम को खत्म किया जा सके. शर्मिला ने इससे पहले बीते महीने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मुलाकात कर उनसे राज्य की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को पराजित करने का फॉर्मूला पूछा था. उन्होंने राजनीति पर सलाह के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाकात की बात कही है.
ईंरेडों लीचोनबाम को शर्मिला की नई पार्टी का संयोजक बनाया गया है जबकि खुद शर्मिला इसकी सह-संयोजक बनी हैं. नई पार्टी का एलान करने के बाद पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा, "हम मणिपुर में एक नया राजनीतिक बदलाव लाना चाहते हैं जहां सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम जैसे काले कानूनों से आम लोगों को परेशान नहीं किया जा सकेगा."
नवंबर 2000 से उक्त कानून के खिलाफ आमरण अनशन पर बैठीं शर्मिला ने बीते महीने अपनी हड़ताल खत्म की थी. साथ ही उन्हें सरकारी नजरबंदी से भी रिहाई मिल गई थी. उस समय उन्होंने कहा था, "हड़ताल खत्म होने से मेरा आंदोलन खत्म नहीं होगा. अब एक नई शुरुआत होगी."
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भारत के सबसे विवादित कानून
भारत में कुछ कानून मधुमक्खी का छत्ता बन चुके हैं. उन पर बात करना बवाल खड़ा कर देता है. ऐसे कौन से कानून हैं जिन पर खूब विवाद होता है.
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धारा 375, सेक्शन 2
धारा 375 रेप की परिभाषा देती है लेकिन इसमें एक अपवाद बताया गया है. पति-पत्नी के बीच यौन संबंधों को किसी भी सूरत में रेप नहीं माना जाएगा, अगर पत्नी की आयु 15 वर्ष से अधिक है. यानी पति अपनी पत्नी के साथ जबरदस्ती कर सकता है. इस पर कोर्ट में केस चल रहा है.
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धारा 370
भारतीय संविधान की धारा 370 के मुताबिक जम्मू और कश्मीर राज्य को बाकी राज्यों के मुकाबले विशेष अधिकार दिए गए हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समेत कई दक्षिणपंथी संगठन और विचारक इस कानून का विरोध करते हैं और इसे खत्म करने की मांग करते हैं.
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सैन्य बल विशेषाधिकार कानून
अंग्रेजी में AFSPA के नाम से मशहूर यह कानून अशांत इलाकों में सेना को विशेष अधिकार देता है. सेना किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है, कहीं भी छापे मार सकती है. लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि इसका बहुत बेजा इस्तेमाल होता है.
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धारा 499
संविधान की धारा 499 के अनुसार किसी व्यक्ति, व्यापार, उत्पाद, समूह, सरकार, धर्म या राष्ट्र की प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाने वाला असत्य कथन मानहानि कहलाता है. राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल और सुब्रमण्यन स्वामी ने तो सुप्रीम कोर्ट में अपील की कि इस कानून को खत्म किया जाए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा, नहीं.
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धारा 498-ए
इस कानून के मुताबिक पत्नी पर क्रूरता करता हुआ पति या पति का रिश्तेदार यानी ऐसा कोई भी व्यक्ति, जो कि किसी महिला का पति या पति का संबंधी हो, यदि महिला के साथ क्रूरता करता है तो उसे तीन साल तक की जेल हो सकती है. इस कानून का विरोध करने वालों का कहना है कि महिलाएं कई बार इसका इस्तेमाल बेजा तरीके से करती हैं.
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भूमि अधिग्रहण कानून
मोटे मोटे शब्दों में कहें तो यह कानून सरकार को किसानों से जमीन लेने का अधिकार देता है. 1894 में बनाए गए इस कानून में 2014 में कुछ सुधार हुए थे. लेकिन सरकार का जमीन लेने का अधिकार बना हुआ है. किसानों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोग इस कानून में और बदलाव चाहते हैं.
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आंदोलन
इरोम की भूख हड़ताल दुनिया में अपने किस्म की पहली और शायद सबसे ज्यादा समय तक चलने वाली हड़ताल थी. उनको नाक से जबरन तरल भोजन दिया जाता था. इसके लिए राजधानी इंफाल के एक सरकारी अस्पताल में ही इरोम को नजरबंद किया गया था. वर्ष 2006 में दिल्ली के जंतर-मंतर पर आमरण अनशन के लिए उनके खिलाफ आत्महत्या की कोशिश का मामला दर्ज किया गया था. उन्होंने बीते महीने ही अचानक अपनी 16 साल लंबी भूख हड़ताल खत्म करने, शादी कर घर बसाने और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव लड़ने का एलान किया था. उनके इस फैसले से राज्य के लोगों के साथ पूरी दुनिया भी हैरत में पड़ गई थी. उनके फैसले के बाद इस बारे में तमाम कयास लगाए जाने लगे. उन्होंने कहा कि अगले साल चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री बनने के बाद वह सबसे पहले उक्त अधिनियम को खत्म करेंगी.
अपने लंबे आंदोलन के दौरान इरोम ने कई प्रधानमंत्रियों से मुलाकात करने का भी प्रयास किया था. लेकिन उनको इसमें कामयाबी नहीं मिली. अब राजनीति सीखने-समझने के लिए वह मोदी से मुलाकात करना चाहती हैं.
राज्य में फिलहाल ईबोबी सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार सत्ता में है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इरोम के नई पार्टी बना कर चुनाव मैदान में उतरने की वजह से राज्य के राजनीतिक समीकरणों में बड़े पैमाने पर उथल-पुथल स्वाभाविक है. अब देखना यह है कि अपने आंदोलन के जरिए पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरने वाली इस लौह महिला की राजनीतिक पारी कितनी कामयाब रहती है.
तस्वीरों में: राजद्रोह के मायने और इतिहास
राजद्रोह के मायने, दायरे और इतिहास
भारत में राजद्रोह के नाम पर हुई गिरफ्तारियों से इसकी परिभाषा और इससे जुड़े कानून की ओर ध्यान खिंचा है. आइए देखें कि भारतीय कानून व्यवस्था में राजद्रोह का इतिहास कैसा रहा है.
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भारतीय दंड संहिता यानि आईपीसी के सेक्शन 124-A के अंतर्गत किसी पर राजद्रोह का आरोप लग सकता है. ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की सरकार ने 19वीं और 20वीं सदी में राष्ट्रवादी असंतोष को दबाने के लिए यह कानून बनाए थे. खुद ब्रिटेन ने अपने देश में राजद्रोह कानून को 2010 में समाप्त कर दिया.
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सेक्शन 124-A के अनुसार जो भी मौखिक या लिखित, इशारों में या स्पष्ट रूप से दिखाकर, या किसी भी अन्य तरीके से ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है, जो भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के लिए घृणा या अवमानना, उत्तेजना या असंतोष पैदा करने का प्रयास करे, उसे दोषी सिद्ध होने पर उम्रकैद और जुर्माना या 3 साल की कैद और जुर्माना या केवल जुर्माने की सजा दी जा सकती है.
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"देश विरोधी" नारे और भाषण देने के आरोप में हाल ही में दिल्ली की जेएनयू के छात्रों, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एसएआर गिलानी से पहले कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधती रॉय, चिकित्सक और एक्टिविस्ट बिनायक सेन जैसे कई लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगा.
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सन 1837 में लॉर्ड टीबी मैकॉले की अध्यक्षता वाले पहले विधि आयोग ने भारतीय दंड संहिता तैयार की थी. सन 1870 में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने सेक्शन 124-A को आईपीसी के छठे अध्याय में जोड़ा. 19वीं और 20वीं सदी के प्रारम्भ में इसका इस्तेमाल ज्यादातर प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों के लेखन और भाषणों के खिलाफ हुआ.
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पहला मामला 1891 में अखबार निकालने वाले संपादक जोगेन्द्र चंद्र बोस का सामने आता है. बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गांधी तक पर इस सेक्शन के अंतर्गत ट्रायल चले. पत्रिका में छपे अपने तीन लेखों के मामले में ट्रायल झेल रहे महात्मा गांधी ने कहा था, "सेक्शन 124-A, जिसके अंतर्गत मुझ पर आरोप लगा है, आईपीसी के राजनीतिक वर्गों के बीच नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए रचे गए कानूनों का राजकुमार है."
सन 1947 में ब्रिटिश शासन से आजादी मिलने के बाद से ही मानव अधिकार संगठन आवाजें उठाते रहे हैं कि इस कानून का गलत इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ किए जाने का खतरा है. सत्ताधारी सरकार की शांतिपूर्ण आलोचना को रोकना देश में भाषा की स्वतंत्रता को ठेस पहुंचा सकता है.
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सन 1962 के एक उल्लेखनीय 'केदार नाथ सिंह बनाम बिहार सरकार' मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कानून की संवैधानिकता को बरकरार रखने का निर्णय लिया था. हालांकि अदालत ने ऐसे भाषणों या लेखनों के बीच साफ अंतर किया था जो “लोगों को हिंसा करने के लिए उकसाने वाले या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति वाले हों.”
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आलोचक कहते आए हैं कि देश की निचली अदालतें सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नजरअंदाज करती आई हैं और राज्य सरकारों ने समय समय पर मनमाने ढंग से इस कानून का गलत इस्तेमाल किया है. भविष्य में इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ लोग केंद्र सरकार से सेक्शन 124-A की साफ, सटीक व्याख्या करवाने, तो कुछ इसे पूरी तरह समाप्त किए जाने की मांग कर रहे हैं.