बारिश का बदलता पैटर्न मौसम विज्ञानियों के साथ कृषि विशेषज्ञों के लिए भी सिरदर्द बन रहा है. अधिक स्पष्ट पूर्वानुमान और खेती के तरीकों में बदलाव ही इसका हल है.
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पिछले साल मॉनसून देर से आया और जून के अंत तक देश के अधिकतर हिस्सों में बरसात 30% कम हुई लेकिन इस साल हालात अलग हैं. पूरे देश में अब तक औसत से 13% अधिक बरसात हुई है. मौसम विभाग के ताजा आंकड़े बताते हैं कि केरल और लक्षद्वीप को छोड़कर तकरीबन सारे देश में मॉनसून जमकर बरस रहा है. मध्य भारत में तो अब तक औसत से 24% अधिक बरसात हुई है. जहां एक ओर भरपूर बरसात का अनुमान खेती और किसानों के लिए अच्छी खबर है, वहीं दूसरी ओर कृषि और मौसम विज्ञानी लगातार इस बात का अध्ययन कर रहे हैं कि बरसात का मनमौजी स्वभाव आने वाले दिनों में खाद्य सुरक्षा के मोर्चे पर कितनी बड़ी चुनौती या संकट पैदा करेगा.
मॉनसून का अनिश्चित होता ग्राफ
मौसम विज्ञानियों का कहना है कि पिछले कुछ दशकों में बरसात को लेकर अनिश्चितता बढ़ी है और उसके पैटर्न में बदलाव आया है. देश के करीब 30 प्रतिशत इलाकों में बारिश कम हो गई है. भारतीय मौसम विभाग ने 1989 और 2018 के बीच 30 साल के आंकड़ों के आधार पर कहा है कि सात राज्यों में कुल सालाना बरसात काफी हद तक घट गई है. इनमें से उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मेघालय और नागालैंड ऐसे राज्य हैं जहां मॉनसून की बारिश भी कम हो रही है.
मौसम पर नजर रखने वाली संस्था स्काइमेट वेदर के वाइस प्रेसीडेंट महेश पलावत कहते हैं, "हालांकि साल में कुल बरसात उतनी ही हो रही है लेकिन बारिश वाले दिनों की संख्या कम हो गई है. यानी कम दिनों में अधिक पानी बरस रहा है. इसका मतलब यह है कि या तो हमारे पास घनघोर बरसात वाले दिन हैं या फिर बिल्कुल सूखे दिन.”
कृषि या भूजल संरक्षण के हिसाब से यह हालात काफी चिंताजनक हैं. खासतौर से भारत जैसे देश के लिए जहां करीब 55 प्रतिशत खेती बरसात पर टिकी है और इसीलिए मॉनसून को ‘देश का वित्तमंत्री' कहा जाता है. जानकार कहते हैं पहले धीरे-धीरे कई हफ्तों तक होने वाली रिमझिम बरसात न केवल खेती और बागवानी के लिए मुफीद थी, बल्कि वह ग्राउंड वॉटर रिचार्ज भी करती थी. लेकिन अब उतना ही पानी मूसलाधार बारिश की शक्ल में कुछ ही घंटों में बरस जाता है. इससे न केवल खेती का नुकसान होता है, बल्कि भूजल स्तर भी नहीं उठ पाता.
कई जिले हैं जहां पहले बहुत कम बारिश होती थी लेकिन वहां अब अधिक बरसात होने लगी है और इसी तरह पर्याप्त बरसात वाले कई जिलों में अब बारिश घट गई है. मौसम विभाग के मुताबिक सौराष्ट्र, कच्छ, दक्षिण-पूर्व राजस्थान, उत्तरी तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में भारी बरसात वाले दिनों की संख्या बढ़ी है. इसी तरह दक्षिण-पश्चिम उड़ीसा के आंध्र प्रदेश से लगे हिस्से, छत्तीसगढ़, दक्षिण पश्चिम मध्यप्रदेश के इलाकों में भी घनघोर बारिश वाले दिनों का ग्राफ ऊपर गया है.
पूरे देश में मॉनसून
भारत के मौसम विभाग ने कहा है कि इस साल मॉनसून तय समय से दो सप्ताह पहले ही पूरे देश में फैल चुका है. आइए आप भी तस्वीरों के जरिए आनंद लीजिए देश में अलग अलग जगह पर हो रही बारिश का.
तस्वीर: Reuters/A. Hazarika
प्रवेश
भारत में मानसून अमूमन एक जून को केरल के रास्ते से प्रवेश करता है और करीब 45 दिनों में राजस्थान के श्रीगंगानगर में देश के आखिरी सीमांत बस्ती तक पहुंचता है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/P. Elamakkara
अहमदाबाद, गुजरात
आठ जून की इस तस्वीर में देखिए कैसे अहमदाबाद में एक व्यक्ति भारी बारिश के बाद सड़क पर जमा हुए पानी के बीच अपनी साईकिल उठा कर ले जा रहा है.
तस्वीर: Reuters/A. Deve
मुंबई, महाराष्ट्र
23 जून की इस तस्वीर में देखिए कि कैसे मुंबई में बारिश के बीच अरब सागर की लहरें शहर के तटीय भाग से टकरा रही हैं.
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/H. Bhatt
मुंबई, महाराष्ट्र
मुंबई की ही एक और तस्वीर में ज्वार-भाटा के दौरान ऊंची उठती लहर.
तस्वीर: Reuters/F. Mascarenhas
सिलीगुड़ी, पश्चिम बंगाल
देश के कई इलाकों में बारिश के मौसम में मलेरिया जैसी बीमारियां भी फैलती हैं. सिलीगुड़ी में बीमारी फैलाने वाले मच्छरों से निपटने के लिए रिहाइशी इलाके में मशीन से धुंआ छोड़ता एक नगर निगम कर्मचारी.
तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Dutta
नोएडा, उत्तर प्रदेश
24 जून की इस तस्वीर में दिल्ली राजधानी क्षेत्र के नोएडा में अचानक हुई बारिश में खुद को भीगने से बचाने की कोशिश करते हुए लोग.
तस्वीर: Imago Images/Hindustan Times
तबाही
भारत में हर साल तेज और लगातार बारिश के बाद कई जगहों पर बाढ़ आ जाती है और जान-माल का भारी नुकसान होता है. गुरूवार को बिहार और उत्तर प्रदेश में में बिजली गिरने से 100 से भी ज्यादा लोग मारे गए. असम में अभी से बाढ़ से कम से कम नौ जिलों में लगभग 19 लाख लोग प्रभावित हो चुके हैं.
तस्वीर: Reuters/A. Hazarika
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बदलते पैटर्न का कृषि और खाद्य सुरक्षा पर असर
कृषि विज्ञानी और हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सस्टेनबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक डॉक्टर रामाजनेयुलु कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में बरसात के बदलते पैटर्न से फसलें लगातार प्रभावित हुई हैं और किसानों की फसल बार-बार नष्ट हो रही हैं, "मिसाल के तौर पर अगर मैं आंध्र प्रदेश का उदाहरण लूं, तो वहां ऐसे इलाके हैं जहां दस साल के भीतर सात बार फसल नष्ट हो गई. इसी तरह तेलंगाना में भी यही तस्वीर उभर कर आती है." तो क्या ऐसे हालात भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए संकट पैदा कर सकते हैं? भंडारण को देखते हुए यह ऐसा संकट नहीं लगता जो मुंहबायें खड़ा है.
भारत के पास पर्याप्त खाद्यान्न भंडार हैं लेकिन डॉक्टर रामाजनेयुलु इसे दूसरी नजर से देखते हैं, "यह कहना कि हमारे पास पर्याप्त अनाज का भंडार है, सही सोच नहीं होगी. देश की 60 प्रतिशत आबादी अपने रोजगार के लिए कृषि से सीधे या परोक्ष रूप से जुड़ी है. इनमें से बहुत सारे लोग गरीब और खेतीहर दिहाड़ी मजदूर हैं. अप्रत्याशित मौसमी बदलाव से बार-बार फसल का नष्ट होना इन लोगों की आमदनी को खत्म कर देगा. अगर इनके पास पैसा ही नहीं होगा तो क्या इससे उनकी फूड सिक्योरिटी को खतरा नहीं है?”
किसानों को चाहिए स्पष्ट जानकारी
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि कृषि के फेल होने के लिए बारिश के बदलते पैटर्न को ही सारा दोष देना ठीक नहीं होगा. भारतीय मौसम विभाग के पूर्व महानिदेशक रंजन केलकर कहते हैं कि मॉनसून के वैज्ञानिक अध्ययन का इतिहास केवल 150 साल पुराना है. उनके मुताबिक मॉनसून का ‘चेहरा' हर साल बदलता है लेकिन मूल ढांचा वही रहता है. वे बताते हैं कि किसानों के लिए मॉनसून से जुड़े तकनीकी शब्दों का कोई महत्व नहीं, वे बस इतना जानना चाहते हैं कि आसमान से पानी कब बरसेगा, "यह समझना जरूरी है कि किसान के हाथ में सिर्फ बुआई करने का फैसला है. वह कब बुआई करे और किस फसल को बोए, एक बार बुआई होने के बाद किसान के हाथ में कुछ नहीं रह जाता. अगर फसल बोने के बाद सही समय पर बारिश नहीं हुई, तो किसान के लिए बर्बादी है. अगर फसल देर में बोई जाए, तो अनाज का उत्पादन कम हो जाता है.”
जानकार बताते हैं कि किसानों को यह पता चलना चाहिए कि किस सीजन में, किस जगह, किस फसल के लिए पर्याप्त बरसात होगी. तभी चुनौतीपूर्ण हालात में प्रभावी खेती हो सकती है. केलकर कहते हैं कि जितना पानी धान को चाहिए, उतना सोयाबीन या कपास की खेती के लिए नहीं चाहिए. रणनीति इसी लिहाज से ही बननी चाहिए और इसके लिए मौसम विज्ञानियों का किसानों और कृषि विभाग के कर्मचारियों के साथ समन्वय होना जरूरी है.
कृषि वैज्ञानिक डॉ रामाजनेयुलु इस विचार से सहमत दिखते हैं, "हमें खाद्यान्न की मात्रा पर ही जेर नहीं देना चाहिए, बल्कि यह भी देखना चाहिए कि जो फसलें उगाई जा रही हैं, वे किसान या उत्पादकों को कितनी आमदनी दे रही हैं. जोर इस बात पर होना चाहिए कि किसान को समृद्ध और अन्न को सुरक्षित कैसे बनाया जाए." इस लिहाज से सिंचाई के तरीकों को बदलने और रसायनों के इस्तेमाल को घटाने की जरूरत होगी. बदलती जलवायु को देखते हुएये ऐसी फसलें चाहिए जो क्लाइमेट रजिस्टेंट हों.
कोविड-19 से लड़ने के लिए लागू हुई तालाबंदी ने कृषि समेत कई क्षेत्रों को अस्त-व्यस्त कर दिया. फैक्टरी पशुपालन पर अंकुश से ले कर शहरी बागबानी में वृद्धि तक, जानिए कैसे ये महामारी हमारी खाद्य श्रृंखला को बदल सकती है.
तस्वीर: Imago
फैक्टरी पशुपालन पर लगाम
हालांकि वैज्ञानिक अभी भी नहीं जानते कि वास्तव में कोविड-19 की शुरुआत कैसे हुई, स्वाइन फ्लू और बर्ड फ्लू जैसी संक्रामक बीमारियों की शुरुआत लगभग निस्संदेह रूप से सूअरों और मुर्गियों के फैक्टरी पशुपालन केंद्रों से हुई थी. अब जब गहन फैक्टरी पशुपालन और महामारी के जोखिम के बीच में संबंध स्थापित हो ही गया है, यह मौजूदा स्तर पर हो रही फैक्टरी फार्मिंग पर पुनर्विचार करने का सही समय हो सकता है.
तस्वीर: picture alliance/Walter G. Allgöwer/JOKER
मांस उद्योग के हालात
इस महामारी ने मांस संसाधन उद्योग में खराब परिस्थितियों को भी उजागर किया है. जर्मनी में मांस फैक्टरियों के कर्मचारियों के बीच कोरोनावायरस के फैलने के कई प्रकरण हुए हैं. पश्चिमी जर्मनी में तो टोनीज बूचड़खाने के 1,550 से भी ज्यादा कर्मचारियों के संक्रमित पाए जाने के बाद दो जिलों को क्वारंटीन में रखना पड़ा. पूरे मांस उद्योग के बेहतर नियंत्रण की मांगें बढ़ती जा रही हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/B. Thissen
वन्य-जीवों के पशुपालन को छोड़ना
विशेषज्ञों का मानना है कि संभव है कि नया कोरोनावायरस चीन के वूहान में एक 'वेट मार्केट' में बेचे जा रहे वन्य-जीवों से आया हो. महामारी के प्रकोप को देखते हुए चीन ने लगभग 20,000 ऐसे केंद्रों को बंद कर दिया जहां बेचने के लिए वन्य-जीवों का पशु-पालन होता था. चीन में कुछ प्रांत अब इस तरह के केंद्र चलने वाले पशु-पालकों को इन्हें छोड़ कर फसल उगाने या सूअर और मुर्गियां पालने के लिए सरकारी समर्थन दे रहे हैं.
तस्वीर: AFP/G. Ginting
एक पहले से अधिक सुदृढ़ क्षेत्र
महामारी ने हमारी खाद्य आपूर्ति श्रृंखला पर गहरा असर डाला है. एक ऐसा उद्योग जिसका विकास वैश्वीकरण के दौर में पूरी दुनिया की खाद्य आपूर्ति का ख्याल रखने के लिए हुआ था, वह उद्योग कुछ मामलों में सिर्फ स्थानीय स्तर तक सिकुड़ गया है. कहीं जानवरों के चारे की कमी हो गई है तो कहीं श्रमिकों की. किसानों को मजबूरन विचार करना पड़ रहा है कि एक नए और अनिश्चित भविष्य के अनुकूल कैसे बदलें.
तस्वीर: picture-alliance/Xinhua/F. Kaihua
शहरी खेती-बाड़ी का उदय
मजबूरन घर पर ज्यादा समय बिताने के कारण, ज्यादा से ज्यादा लोग अपने जरूरत के कृषि उत्पाद खुद उगाने की कोशिश कर रहे हैं. यह लंबे समय में एक सकारात्मक बदलाव साबित हो सकता है. अनुमान है कि 2050 तक दुनिया की दो-तिहाई आबादी शहरों में रह रही होगी और ऐसे में शहरी खेती-बाड़ी और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगी. इसमें पारंपरिक कृषि के मुकाबले परिवहन के लिए जीवाश्म ईंधन भी कम लगता है और जमीन भी कम चाहिए होती है.
तस्वीर: DW/M.Ansari
प्रकृति को जमीन वापस देना
अनुमान है कि 2050 तक विश्व की आबादी 10 अरब हो जाएगी. ऐसे में इस बात से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि पूरी दुनिया में खाद्य पदार्थों की उत्पत्ति को बढ़ाने की जरूरत है. एक समय था जब और भूमि उपलब्ध कराने को इस समस्या का समाधान समझा जाता था, लेकिन शहरी खेती-बाड़ी पर पहले से मजबूत ध्यान और प्रकृति के अतिक्रमण के परिणामों को लेकर चिंता से भूमि के उपयोग को लेकर पुनर्विचार किया जा सकता है.
तस्वीर: imago/Photocase/weise_maxim
वनस्पति-आधारित उत्पाद
जैसे जैसे मांस की खपत के संभावित स्वास्थ्य संबंधी असर को लेकर जानकारी बढ़ रही है, चीन में वनस्पति-आधारित उत्पादों को लेकर पहले से ज्यादा रुचि देखने को मिल रही है. पिछले कुछ सालों में पश्चिम के देशों में प्लांट-बेस्ड डाइट का चलन बढ़ गया है और संभव है कि यह रुचि और बढ़े क्योंकि उपभोक्ता इस बात को लेकर ज्यादा चिंतित होते जा रहे हैं कि वो जो मांस खाते हैं वो कहां से आता है.
तस्वीर: DW/P. Musvanhiri
विकासशील देशों में खाद्य सुरक्षा बढ़ाना
कोविड-19 महामारी के विकासशील देशों पर भारी प्रभाव पड़ने का अंदेशा है, विशेष रूप से खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में. संयुक्त राष्ट्र ने पहले ही संसाधनों के कम होने के साथ साथ भयानक अकाल की चेतावनी दे दी है. तुरंत मदद के साथ साथ, लंबी अवधि में अकाल को खत्म करने के लिए बेहतर भूमि सुरक्षा, फसलों में विविधता और सबसे ज्यादा खतरे में रहने वाले छोटे किसानों को और ज्यादा समर्थन देने की जरूरत पड़ेगी.