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क्या ऊर्जा संकट के कारण पिछड़ जाएगा जर्मन उद्योग

क्लाउडिया लाश्चाक
२ जनवरी २०२३

यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद तेल और गैस की कीमतों में हुई तेज वृद्धि ने जर्मन उद्योग की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. तो क्या जर्मनी के उद्यमों के बंद होने का खतरा पैदा हो गया है, या ये बहस महज बकवास है?

Deutschland Solidarische Herbst-Demonstration in Berlin
तस्वीर: Mike Schmidt/IMAGO

जर्मनी में गैस और बिजली की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं, जिनका असर उत्पादन के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों पर पड़ रहा है. तमाम कंपनियां इस ऊर्जा संकट से निपट नहीं पा रही हैं. हालात ऐसे हैं कि सरकार इन कंपनियों की मदद करना तो चाहती है लेकिन पूरी तरह ऐसा करने की स्थिति में नहीं है. सवाल ये है कि क्या जर्मनी के उद्योग ठप हो सकते हैं या इस आपदा को अवसर में बदला जा सकता है?

जर्मनी के कई केमिकल प्लांट किसी छोटे-मोटे शहर जितने बड़े हैं. यहां हर साल करोड़ों किलोवॉट बिजली और गैस की खपत होती है. जर्मनी की अर्थव्यवस्था को भारी मात्रा में ऊर्जा की जरूरत है, लेकिन इसकी आपूर्ति कम है और कीमतें ऐतिहासिक रूप से रिकॉर्ड स्तर पर हैं. रूस से गैस आपूर्ति बंद होने के बाद से जर्मनी में स्टील मिलों, भारी उद्योगों और मैकेनिकल इंजीनियरिंग क्षेत्र की कंपनियों के हाथ-पांव फूले हुए हैं.

ऊर्जा संकट और जर्मनी की अर्थव्यवस्थातस्वीर: Marijan Murat/dpa/picture alliance

गैस और बिजली की तेजी से बढ़ती कीमतों का सबसे ज्यादा असर केमिकल उद्योग पर पड़ा है. जर्मन रासायनिक उद्योग संघ के ऊर्जा विशेषज्ञ यॉर्ग रोटरमेल कहते हैं, "बिजली और गैस महंगी होने की वजह से कई उद्योगों में उत्पादों की लागत बढ़ गई है. लेकिन डिटरजेंट, दवाइयों और गोंद जैसे सीधे रसायनों से तैयार होने वाले उत्पादों की कीमतों को सीधे-सीधे बढ़ाया नहीं जा सकता. इससे अगले साल तक पूरी केमिकल वैल्यू चेन ही प्रभावित हो जाएगी."

सस्ते के चक्कर में रूस पर निर्भरता

केमिकल कंपनी बीएएसएफ BASF में इस्तेमाल होने वाली करीब आधी गैस रूस से आती थी. नब्बे के दशक की शुरुआत में BASF ने रूसी सरकार के स्वामित्व वाली कंपनी गाजप्रोम के साथ मिलकर लुडविग्सहाफेन में अपने मुख्यालय तक एक गैस पाइपलाइन बनाई थी. पोलैंड से जर्मनी तक बन रही यमाल पाइपलाइन बनाने में भी कंपनी ने आर्थिक मदद दी. 2008 में BASF नॉर्ड स्ट्रीम 1 के निर्माण में भी शामिल हुई. इसके चलते रूसी गैस सस्ते में जर्मनी तक पहुंच रही थी.

साइबेरिया में जर्मनी बीएएसएफ और गासप्रोम का ज्वाइंट वेंचरतस्वीर: Justin Jin/dpa/picture alliance

जर्मनी के आर्थिक शोध संस्थान डीआईडब्ल्यू के प्रमुख मार्सेल फ्राचर रूस पर जर्मनी की लापरवाह नीति के आलोचक हैं. वे कहते हैं, "हमारी पहली गलती यह है कि रूस के क्रीमिया को खुद में मिलाने के बावजूद हम रूस पर निर्भरता बढ़ाते गए. हमारी दूसरी बड़ी गलती यह है कि हमने अक्षय ऊर्जा की ओर बहुत धीरे कदम बढ़ाए." उनका कहना है कि जर्मनी के पास पिछले दस साल से अक्षय ऊर्जा की तकनीक थी, जो कारगर और सस्ती भी है, लेकिन जर्मनी ने इस राह पर बहुत धीमे कदम बढ़ाए. फ्राचर कहते हैं, "आज जर्मनी में संकट इतना गहरा गया है कि हमारा आर्थिक ढांचा ही खतरे में पड़ गया है, यह हमारी ही गलती है."

वैकल्पिक ऊर्जा पर टिकी उम्मीदें

जर्मनी में बिजली बनाने के लिए गैस इस्तेमाल की जाती है. गैस महंगी होने की वजह से जर्मनी में बिजली की कीमत बाकी दुनिया से ज्यादा महंगी हो गई है. यहां प्रति किलोवॉट घंटे के लिए 32 सेंट चुकाने पड़ रहे हैं, जबकि इसका अंतरराष्ट्रीय औसत महज 12 सेंट है. ऊर्जा महंगी होने से निर्यात क्षेत्र में कारोबार करने वाली मझौले आकार की कंपनियों को भी परेशानी हो रही है. अभी तक जर्मनी इन्हीं कंपनियों के बूते बड़ी आर्थिक चुनौतियों से पार पाता आया है और उदारीकरण के दौर में आगे रहा है.

26 किलोमीटर लंबी पाइप पर टिकी जर्मनी की उम्मीद

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सस्ती ऊर्जा के बिना जर्मन कंपनियों के उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में बहुत महंगे साबित होंगे और वह प्रतिस्पर्धा में पिछड़ सकता है. तो उपाय क्या है? आईएनजी बैंक के प्रमुख अर्थशास्त्री कार्स्टेन ब्रेजेस्की कहते हैं, "ऊर्जा से जुड़ा ट्रांजिशन और ग्रीन ट्रांसफॉर्मेशन, ये दो बहुत बड़े मौके हैं, जिनसे हम इस आपदा को अवसर में बदल सकते हैं. वैकल्पिक ऊर्जा अपनाने के कदम हमें औद्योगिक देश होने के नाते, इंजीनियरों का देश होने के नाते फिर से वैश्विक स्तर पर शीर्ष पर पहुंचा सकते हैं." जर्मनी की कंपनियों को नई रणनीति बनाने, नई टेक्नोलॉजी में निवेश करने, ऊर्जा बचाने, शोध को बढ़ावा देने और विकासोन्मुखी होने की जरूरत है. और सरकार के सामने एनर्जी ग्रिड और इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने की चुनौती है.

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