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समाजभारत

दिल्ली से ज्यादा मुंबई सुरक्षित लगता है महिलाओं को

हृदी कुंडु
१२ सितम्बर २०२५

भारत में शहर तेजी से बढ़ रहे हैं, लेकिन क्या महिलाओं की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कदम उठाए जा रहे हैं? विशेषज्ञों का कहना है कि सार्वजनिक जगहों को फिर से इस तरह डिजाइन करने की जरूरत है कि महिलाओं को पूरी सुरक्षा मिल सके.

Indien, Kolkata | 2024 | Proteste gegen Vergewaltung
तस्वीर: Dibyangshu Sarkar/AFP/Getty Images

हाल के दशकों में भारत में शहरों का विस्तार तेजी से हुआ है. हालांकि एक कड़वी सच्चाई इस विकास पर ग्रहण लगाती है. करीब 40 फीसदी महिलाएं सड़कों पर, अपने आस-पड़ोस में और सार्वजनिक परिवहन में असुरक्षित महसूस करती हैं. इससे इस बात पर संदेह पैदा होता है कि क्या शहरी योजनाएं वास्तव में महिलाओं के लिए सुरक्षा सुनिश्चित कर सकती हैं.

मुंबई सबसे सुरक्षित, दिल्ली सबसे खराब

बॉलीवुड कॉस्ट्यूम डिजाइनर मनोशी नाथ इस मामले पर कहती हैं, "दिल्ली और अब मुंबई में रहने के बाद, मुझे लगता है कि दिल्ली की सड़कें कम रोशनी वाली और असुरक्षित हैं. कॉलेज की छात्रा रहते हुए मुझे बसों में घूरने और छेड़छाड़ [सार्वजनिक यौन उत्पीड़न] का सामना करना पड़ा. कई बार लोगों ने मुझे गलत तरीके से छुआ. यहां तक कि पॉश इलाकों में भी नशे में धुत पुरुषों ने मेरा पीछा किया. आपको हमेशा सचेत रहना चाहिए, खासकर रात 8:30 के बाद.”

राष्ट्रीय महिला आयोग की ओर से तैयार की गई राष्ट्रीय वार्षिक रिपोर्ट और महिला सुरक्षा सूचकांक (एनएआरआई) 2025 में भारत के 31 शहरों की 12,770 महिलाओं के बीच सर्वे किया गया. इसमें मुंबई, भुवनेश्वर और गंगटोक को महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित शहरों में शामिल किया गया. जबकि दिल्ली, कोलकाता और जयपुर सबसे कम सुरक्षित शहरों में शामिल थे.

महिलाओं के लिए डर का दूसरा नाम, नाइट ड्यूटी

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शहरी भारत में लगभग 40 फीसदी महिलाओं ने असुरक्षित महसूस करने की बात कही. जबकि, 7 फीसदी ने कहा कि पिछले एक साल में उन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. 18 से 24 वर्ष की आयु की युवतियां में असुरक्षा की भावना सबसे ज्यादा मिली. 

इसमें पता चला कि महिलाएं दिन के समय तो असुरक्षित महसूस करती ही हैं, रात के समय वे ज्यादा असुरक्षित महसूस करती हैं, खासकर जब वे सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करती हैं.

दिल्ली में रहने वाली एक प्रोफेशनल प्रातिची ने कहा, "संभावित हिंसा का डर हमेशा मन में बना रहता है. यह इस हद तक सामान्य हो गया है कि कई लोग इसे एक गंभीर समस्या मानते ही नहीं हैं.”

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समाज की सोच को समझने की जरूरत

कुछ लोग मानते हैं कि शहर में महिलाओं को सुरक्षित रखने के लिए कैमरे और स्ट्रीट लाइटें ही काफी हैं. हालांकि, लंदन स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड एशियन स्टडीज (एसओएएस) के प्रोफेसर और समाजशास्त्री संजय श्रीवास्तव का कहना है कि ‘सिर्फ तकनीक से यह समस्या हल नहीं हो सकती.'

उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "शहरों को सच में सुरक्षित बनाने के लिए, तकनीकी चीजों के साथ-साथ समाज को भी समझना जरूरी है.” उन्होंने बताया कि भारत में शहर की योजना बनाने वाले लोग अक्सर शहरों को सुंदर बनाने यानी सौंदर्यीकरण पर ध्यान देते हैं. इसके लिए, वे फुटपाथ, छोटे बाजारों और रेहड़ी-पटरी वालों को हटा देते हैं, जिन्हें वे ‘गंदा' या ‘अव्यवस्थित' मानते हैं.

हालांकि, ये स्थान महिलाओं की सुरक्षा के लिए काफी मायने रखते हैं. उन्होंने ‘सड़कों पर नजर' के विचार को समझाते हुए कहा कि जब लोग और दुकानदार सड़क पर होते हैं, तो वे अपने-आप अपराध को रोकते हैं. वे अनौपचारिक तौर पर निगरानी का काम करते हैं. इससे शहर की जगहें ज्यादा सुरक्षित हो जाती हैं.

संजय श्रीवास्तव ने यह भी बताया कि महिलाओं के लिए ऐसी सार्वजनिक जगहें कम हैं जहां वे सामाजिक मेलजोल कर सकें या घूमने-फिरने जैसी गतिविधियों में भाग ले सकें.

उन्होंने कहा, "पान की दुकानों जैसी जगहें आमतौर पर पुरुषों के वर्चस्व वाली होती हैं. यहां महिलाएं आम तौर पर सहज महसूस नहीं करती हैं. अगर महिलाओं के लिए खास जगहें नहीं बनाई गईं, तो शहर उनके लिए सुरक्षित और आरामदायक नहीं बन पाएंगे.”

महिलाओं की सुरक्षा पर पितृसत्तात्मक सोच का असर

सामाजिक शोधकर्ता मंजिमा भट्टाचार्य ने कहा कि समाज के नियम और सोच एक बड़ी भूमिका निभाते हैं. महिलाओं की सुरक्षा जटिल सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और पारिवारिक कारकों से प्रभावित होती है.

उन्होंने बताया कि भारत में सार्वजनिक स्थानों पर लैंगिक भेदभाव बहुत ज्यादा है. शिल्पा फड़के की किताब ‘व्हाई लोइटर?' का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे सिर्फ जरूरी काम होने पर ही घर से बाहर जाएं. मसलन, जब स्कूल जाना हो या कोई काम निपटाना हो. जबकि पुरुष खुलेआम घूम सकते हैं.

श्रीवास्तव ने इस बात पर जोर दिया है कि भारत में सार्वजनिक और निजी स्थानों के बीच आज भी एक स्पष्ट अंतर बना हुआ है. यह भेदभाव समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी पितृसत्ता को दिखाता है.

भारत में फिर उठे महिलाओं की सुरक्षा पर सवाल

ऐतिहासिक रूप से, सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है. जबकि, महिलाओं को घर तक ही सीमित रखा जाता था. इस बंटवारे के कारण महिलाओं को कम अवसर मिले और शहरों में लैंगिक असमानता बढ़ती गई.

श्रीवास्तव ने कहा कि अधिकारी अक्सर पुरानी सोच वाली बातें करते हैं. जैसे, यह पूछना कि कोई महिला देर रात या अकेली बाहर क्यों थी. इससे पता चलता है कि समाज में पीड़िता को ही दोषी

ठहराने की सोच कितनी गहरी है. यह सोच सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के अधिकार को कमजोर करती है.

महिलाओं की सुरक्षा के हिसाब से शहरों को डिजाइन करना

शहरी योजनाकार सुष्मितो कमल मुखर्जी का कहना है कि महिलाओं की सुरक्षा एक बहुत बड़ी चुनौती है. उनका मानना है कि इस समस्या से निपटने के लिए बेहतर योजना, शासन, पुलिस व्यवस्था और पर्याप्त फंडिंग की जरूरत है.

उन्होंने कहा कि पुराने सर्वे के डेटा का इस्तेमाल करके खतरनाक इलाकों का पता लगाया जा सकता है और प्रभावी सुरक्षा उपायों को आसानी से लागू किया जा सकता है. उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि, ‘जिन जगहों पर अच्छी रोशनी हो और जो साफ दिखें, वहां किसी महिला के साथ गलत व्यवहार कम होता है.'

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मुखर्जी ने बताया कि शहर की योजना बनाने में आर्किटेक्ट यानी वास्तुकारों का ज्यादा बोलबाला है. वे ज्यादातर सिर्फ डिजाइन पर ध्यान देते हैं. समाज की जरूरतों और आर्थिक कारकों को नजरअंदाज कर देते हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "शहरों की योजना को असरदार बनाने के लिए, एक ऐसा तरीका चाहिए जिसमें अलग-अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ मिलकर काम करें.”

सामाजिक विषयों पर रिसर्च करने वाली भट्टाचार्य का मानना है कि इस काम में लोगों को साथ लेना बहुत जरूरी है. उन्होंने कहा, "2000 के दशक के मध्य से, भारत में महिलाओं के अधिकार के लिए काम करने वाले समूहों ने ‘सुरक्षा ऑडिट' करना शुरू किया है. यह एक बहुत असरदार तरीका है, जिसमें लोग खुद यह देखते और समझते हैं कि सार्वजनिक जगहों पर महिलाएं कितनी सुरक्षित महसूस करती हैं.”

स्कूलों से ही महिलाओं के प्रति सम्मान करने की आदत डालना

श्रीवास्तव का कहना है कि सहभागी शहरी नियोजन यानी सभी लोगों के हिसाब से शहरों की योजना बनाने के दौरान अक्सर अमीर महिलाओं पर ही ध्यान दिया जाता है. इसमें घरेलू कामगारों या रेहड़ी-पटरी वालों जैसे गरीब लोग शामिल नहीं हो पाते, जबकि उनकी सुरक्षा से जुड़ी परेशानियां अलग होती हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि अगर सभी वर्ग की महिलाओं पर ध्यान देना है, तो हमें ऐसे गैर-सरकारी संगठनों और रिसर्चरों को साथ लेना चाहिए जो समाज को बखूबी समझते हैं. इससे अलग-अलग महिलाओं की आवाजें, योजना और नीतियों में शामिल हो पाएंगी.

वे यह भी कहते हैं कि लोगों का सार्वजनिक व्यवहार उनकी घर पर सीखी गई सोच को दिखाता है. इससे पता चलता है कि किस तरह हमारा सार्वजनिक जीवन और निजी जीवन आपस में जुड़ा हुआ है और एक-दूसरे को प्रभावित करता है.

श्रीवास्तव कहते हैं, "महिलाओं की सुरक्षा के लिए हमें सार्वजनिक जगहों और घरों, दोनों जगहों पर एक साथ काम करना होगा. इसका लंबे समय तक असर रहे, इसलिए स्कूल में ही सुरक्षा और एक-दूसरे का सम्मान करना सिखाना चाहिए.”

भट्टाचार्य का कहना है कि असली सुरक्षा का मतलब सिर्फ कैमरे और पुलिस नहीं है. यह ऐसा माहौल बनाने का काम है, जहां सिर्फ महिलाएं सुरक्षित ही नहीं, बल्कि आजाद भी महसूस करें.

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