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समाज

सामाजिक दूरी या समाज में दूरी?

प्रभाकर मणि तिवारी
२८ अप्रैल २०२०

कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने के लिए कहा गया. लेकिन जिस तरह कोरोना पीड़ितों के साथ भेदभाव हो रहा है, उसने इस सामाजिक दूरी की परिभाषा ही बदल दी है.

Kalkutta Coronvirus Lockdown Maßnahmen Ausgangssperre
तस्वीर: DW/M. Prabhakar

कोरोना वायरस के लगातार बढ़ते संक्रमण और इस महामारी पर सोशल मीडिया व खासकर टीवी चैनलों के जरिए बना माहौल देश में सामाजिक रिश्तों की एक नई परिभाषा गढ़ रहा है. हालत यहां तक पहुंच गई है कि लंबे अरसे से सुख-दुख में भागीदार रहने वाले पड़ोसी भी अब एक-दूसरे को संदेह की निगाहों से देख रहे हैं. हद तो यह हो गई है कि अब कोरोना संक्रमित पिता की मौत की स्थिति में बेटे मुखाग्नि देने से भी बच रहे हैं. समाजविज्ञानियों का कहना है कि कोरोना पर तो देर-सबेर अंकुश लग जाएगा लेकिन इस वजह से बदले सामाजिक रिश्ते शायद ही पहले की स्थिति में लौटेंगे.

पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले में जब 65 साल के एक व्यक्ति की कोरोना संक्रमण से मौत हो गई तो घरवालों ने उसका शव लेने या अस्पताल जाने तक से इंकार कर दिया. यही नहीं, उसके पुत्रों ने उसे मुखाग्नि देने से भी मना कर दिया. बाद में विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रोटोकॉल के अनुसार सरकारी कर्मचारियों ने उसका अंतिम संस्कार किया. प्रोटोकॉल के मुताबिक कोरोना के मरीजों के शव उनके घरवालों को सौंपने पर पाबंदी है. लेकिन परिजनों के शवयात्रा में शामिल होने या मुखाग्नि देने पर कोई पाबंदी नहीं हैं. सरकार बार-बार कहती रही है कि सोशल डिस्टेंसिंग के नियम का पालन करते हुए ऐसा किया जा सकता है. लेकिन डर के मारे घर वाले शव के आस-पास भी नहीं फटक रहे हैं.

ऐसे लगभग तमाम मामलों में घरवाले मृतक की अस्थियां तक नहीं ले रहे हैं. यह स्थिति पूरे देश की है. कल तक जो व्यक्ति मोहल्ले या इलाके में सबके दुख-सुख में भागीदार था उसके मरते ही लोगों की निगाहें बदल रही हैं. कई इलाकों में लोग ऐसे शवों के अंतिम संस्कार पर भी आपत्ति उठा चुके हैं. इस मुद्दे पर कई जगह पुलिसवालों के साथ हिंसक झड़पें तक हो चुकी हैं. इन झड़पों को ध्यान में रखते हुए बंगाल सरकार ने तो दो शवदाहगृहों और एक कब्रिस्तान को ऐसे मृतकों के लिए आरक्षित ही कर दिया है.

अब तो स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि कोरोना जैसे लक्षण वाले दूसरे मरीजों को भी भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. दिल, गुर्दे और किडनी की गंभीर बीमारियो से जूझ रहे मरीजों के लिए तो स्थिति और गंभीर हो गई है. कई अस्पताल इलाज से पहले कोरोनामुक्त होने का प्रमाणपत्र मांग रहे हैं. इसकी वजह यह है कि कोलकाता के एक निजी अस्पताल में डायलिसिस कराने वाले तीन लोग बाद में कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे. कोलकाता में दर्जनों स्वास्थ्यकर्मी इसकी चपेट में आ चुके हैं और इस वजह से कई अस्पतालों को सील किया जा चुका है. किसी के घर को सामने एंबुलेंस रुकते ही सैकड़ों लोग सवालियां निगाहों से झांकने लगते हैं. पूरा मोहल्ला उसका सामाजिक बहिष्कार कर देता है.

तस्वीर: DW/M. Prabhakar

दमदम इलाके के एक बुजुर्ग में कोरोना का लक्षण मिलने के बाद उसके संयुक्त परिवार के 20 लोगों की जांच की गई थी. लेकिन उनका नतीजा नेगेटिव निकला. बावजूद इसके घर लौटने पर उनको बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है. उस घर के एक युवक बताते हैं, "मोहल्ले में कोई हमसे बात तक नहीं करता. लोग सब्जी और दूध विक्रेताओं को भी हमारे घर नहीं आने दे रहे हैं. मदद तो दूर की बात है, लोग हमारे बारे में तरह-तरह की अफवाहें फैला रहे हैं. हमारी सुरक्षा के लिए तैनात पुलिसवाला भी मोहल्ले के लोगों की परेशानी के लिए हमें इस तरह जिम्मेदार ठहरा रहा है मानों मेरे पिता ने जान-बूझ कर कोरोना को न्योता दिया हो.” इसी तरह टालीगंज के सुकुमार बनर्जी जब किडनी की डाइलिसिस के लिए एंबुलेंस से निजी अस्पताल में गए तो पड़ोसियों ने उनके परिवार से रिश्ता ही काट लिया. बनर्जी के पुत्र ने लोगों को समझाया कि पिता को कोरोना नहीं है लेकिन किसी को उसकी बातों पर भरोसा नहीं हुआ.

यह किस्सा अकेले कोलकाता या पश्चिम बंगाल का नहीं है. देश के कोने-कोने से रोजाना अखबारों और टीवी चैनलों के जरिए ऐसी ना जाने कितनी ही कहानियां सामने आ रही हैं. समाजविज्ञानियों का कहना है कि कोरोना पर किसी स्पष्ट जानकारी के अभाव और सोशल मीडिया पर फैलने वाली अफवाहों ने स्थिति को दूभर बना दिया है. समाजविज्ञान के प्रोफेसर डॉक्टर कुणाल चटर्जी कहते हैं, "कोरोना हमारे आपसी रिश्तों के लिए काल बन कर आया है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि सामाजिक रिश्तों के अलावा हमारे खून के रिश्तों पर भी कोरोना संक्रमण का गहरा असर देखने को मिल रहा है. अब हालत यह है कि पड़ोसी तो दूर, करीबी रिश्तेदार भी सवालिया निगाहों से देखने लगे हैं.”

इसी तरह समाजशास्त्री सुतपा सान्याल कहती हैं, "यह महामारी रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित कर रही है. इसमें आम लोगों का कोई दोष नहीं है. सबको अपनी जान प्यारी होती है." तो क्या रिश्तों में आने वाला यह बदलाव इसी तरह चलता रहेगा ? इस सवाल पर वह कहती हैं, "अभी कुछ कहना मुश्किल है. लेकिन एक बात तो तय है कि रिश्तों में एक बार दूरी बढ़ने के बाद उनका पहले जैसी स्थिति में लौटना बेहद मुश्किल होता है. कोरोना पर काबू पाने के बाद हमें रिश्तों की इसी नई परिभाषा के साथ ही बाकी जिंदगी गुजारनी पड़ सकती है.”

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