क्या मध्य पूर्व को 'इस्लामिक नाटो' मिलने वाला है?
२६ सितम्बर २०२५
करीब ढाई हफ्ते पहले इस्राएल ने कतर पर बैलिस्टिक मिसाइलें दागी थीं. इसके जवाब में खाड़ी देश कतर बहुत कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं था.
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, 9 सितंबर को लगभग 10 इस्राएली लड़ाकू विमानों ने लाल सागर के ऊपर से उड़ान भरी. उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि वे किसी दूसरे देश की हवाई सीमा में न हों और फिर मिसाइलें दागीं. इसे 'ओवर द हॉरिजन' हमला कहा जाता है.
इस तरह की बैलिस्टिक मिसाइलें धरती के सबसे ऊपरी वायुमंडल या बाहरी अंतरिक्ष तक जाती हैं, और फिर वापस नीचे आकर अपने निशाने पर लगती हैं. इस्राएल की इन मिसाइलों का निशाना हमास समूह के सदस्य थे, जो कतर की राजधानी दोहा में गाजा संबंधी संभावित युद्धविराम पर बात करने के लिए बैठक कर रहे थे. इस हमले में छह लोग मारे गए, लेकिन वे इस्राएल के निशाने पर नहीं थे.
चूंकि मिसाइलें अचानक 'ओवर द हॉरिजन' से आईं, इसलिए कतर अपनी हिफाजत के लिए कुछ खास नहीं कर सका. वैसे भी, इस्राएली हमलों से बचाव के लिए कतर के पास सबसे बड़े हथियार के तौर पर कोई मिसाइल सुरक्षा प्रणाली नहीं है. इस्राएल के सबसे बड़े सहयोगी अमेरिका का सबसे बड़ा क्षेत्रीय बेस कतर में है. हाल ही में उसने कतर को 'प्रमुख गैर-नाटो सहयोगी' का दर्जा दिया है.
हालांकि, यह बात भी इस्राएल को खाड़ी के किसी अरब देश पर पहली बार हमला करने से नहीं रोक पाई. इसके साथ ही यह भी लगता है कि अमेरिका को इस बारे में जानकारी रही होगी.
अमेरिका से भरोसा घट रहा है
वॉशिंगटन में मौजूद 'अरब गल्फ स्टेट्स इंस्टिट्यूट' की सीनियर रेजिडेंट स्कॉलर क्रिस्टिन दीवान ने हमले के तुरंत बाद लिखा था, "इस्राएल के हमले ने अमेरिका के साथ अपने संबंधों के बारे में खाड़ी देशों की सोच को बदल दिया है और उन्हें एक-दूसरे के ज्यादा करीब लाएगा. तेल से समृद्ध ये राजतंत्र आपस में बहुत मिलते-जुलते हैं. उनकी संप्रभुता और सुरक्षा पर इस तरह का सीधा हमला उन सबके लिए एक बड़ा खतरा है."
चैथम हाउस के मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका कार्यक्रम के निदेशक सनम वकील ने इस महीने ब्रिटिश अखबार 'द गार्डियन' में छपे एक लेख में इसकी पुष्टि की. उन्होंने लिखा, "नतीजतन, खाड़ी के शासक अब ज्यादा रणनीतिक स्वायत्तता की तलाश में हैं. वे अमेरिका पर निर्भरता के जोखिमों से बचने के लिए भी तेजी से कदम उठा रहे हैं."
यही वजह है कि पिछले एक-दो हफ्ते से 'इस्लामिक नाटो' के गठन की चर्चा जोरों पर है. यह इस्लामी और अरब देशों के एक रक्षा गठबंधन की तरह बताया जा रहा है, जो नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (नाटो) की तरह काम कर सकता है.
पिछले हफ्ते अरब लीग और इस्लामिक सहयोग संगठन की ओर से एक आपातकालीन सम्मेलन बुलाया गया. इसमें मिस्र के अधिकारियों ने अरब देशों के लिए, नाटो के जैसी ही एक जॉइंट टास्क फोर्स बनाने का सुझाव दिया. इस सम्मेलन में इराक के प्रधानमंत्री मोहम्मद शिया अल-सुदानी ने भी क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए मिलकर काम करने की बात कही.
खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के छह सदस्यों बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने कहा कि वे साल 2000 में हुए एक संयुक्त रक्षा समझौते के प्रावधान को लागू करेंगे. इस समझौते में कहा गया था कि किसी एक सदस्य देश पर हमला उन सभी पर हमला माना जाएगा.
यह पंक्ति नाटो के अनुच्छेद-5 में इस्तेमाल किए गए वाक्यांश जैसी है.
शुरुआती आपातकालीन सम्मेलन के बाद खाड़ी देशों के रक्षा मंत्रियों ने दोहा में एक और बैठक की. वे खुफिया जानकारी साझा करने और हवाई स्थिति की रिपोर्टों को बेहतर बनाने पर सहमत हुए. उन्होंने बैलिस्टिक मिसाइल की चेतावनियों के लिए एक नई क्षेत्रीय प्रणाली को भी तेजी से लागू करने पर सहमति जताई. इसके अलावा संयुक्त सैन्य अभ्यास की भी घोषणा की गई.
उसी हफ्ते, सऊदी अरब ने एलान किया कि वह पाकिस्तान के साथ एक 'रणनीतिक पारस्परिक रक्षा समझौते' पर हस्ताक्षर कर रहा है. दोनों देशों ने कहा कि उनमें से 'किसी भी देश पर कोई भी हमला दोनों के विरुद्ध हमला माना जाएगा.'
क्या यह 'इस्लामिक नाटो' की शुरुआत है?
पर्यवेक्षकों ने डीडब्ल्यू को बताया कि ऐसा लग सकता है कि इस्राएल का मुकाबला करने के लिए किसी तरह का 'इस्लामिक नाटो' बन रहा है, लेकिन हकीकत इससे अलग है.
'किंग्स कॉलेज लंदन' के 'स्कूल ऑफ सिक्योरिटी स्टडीज' में वरिष्ठ व्याख्याता आंद्रेयास क्रीग बताते हैं, "नाटो जैसा गठबंधन अवास्तविक है, क्योंकि यह खाड़ी देशों को ऐसे युद्धों में उलझा देगा जिन्हें वे अपने हितों के लिए जरूरी नहीं मानते. जैसे, खाड़ी में कोई भी शासक मिस्र की ओर से इस्राएल के साथ टकराव में नहीं पड़ना चाहता है."
हालांकि, पर्यवेक्षकों का यह भी कहना है कि दोहा हमले के बाद हालात बदल रहे हैं. जैसा कि क्रीग बताते हैं, "लंबे समय से खाड़ी देशों में सुरक्षा एक ऐसी सोच पर आधारित रही है, जहां आप अपनी हिफाजत के लिए किसी और को पैसे देते हैं." हालांकि, क्रीग ने यह भी स्वीकार किया कि दोहा पर हुए हमले के बाद इस मानसिकता में बदलाव आ रहा है, लेकिन यह बदलाव बहुत धीरे-धीरे हो रहा है.
सिंजिया ब्यांको, यूरोपियन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस (ईसीएफआर) में खाड़ी देशों की विशेषज्ञ हैं. वह बताती हैं कि दुनिया को 'इस्लामिक नाटो' के बजाय तथाकथित '6+2' फॉर्मैट देखने को मिल सकता है. '6+2' का आशय छह जीसीसी देश बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ-साथ तुर्की और मिस्र से है.
ब्यांको ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "यह वास्तव में अनुच्छेद-5 जैसी व्यवस्था नहीं है. खाड़ी देशों की एक-दूसरे की रक्षा के प्रति प्रतिबद्धता नाटो सदस्यों जितनी मजबूत नहीं है. इसका मतलब यह हो सकता है कि ये देश सुरक्षा और रक्षा की रणनीतियों को सामूहिक तौर पर अपनाएंगे. शायद सबसे जरूरी बात यह है कि इससे वे इस्राएल को रोकने के लिए चेतावनी वाला संदेश देंगे."
'इस्लामिक नाटो' की तुलना में '6+2' फॉर्मैट
क्रीग बताते हैं कि 'इस्लामिक नाटो' की तुलना में '6+2' फॉर्मैट ज्यादा सही लगता है. तुर्की वास्तव में खाड़ी देशों के लिए सबसे विश्वसनीय गैर-पश्चिमी सहयोगी है. उसकी सेना 2017 से कतर में तैनात है और संकट के समय तेजी से आगे बढ़ने की क्षमता रखती है. हालांकि, मिस्र का मामला ज्यादा पेचीदा है. उसके पास बड़ी सेना है, लेकिन खाड़ी के कुछ देशों में उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठते हैं.
क्रीग और ब्यांको, दोनों का कहना है कि अगर '6+2' फॉर्मैट की बात चल भी रही है, तो यह धीरे-धीरे और चुपचाप होगा. क्रीग का अनुमान है, "ज्यादा बड़े और गंभीर बदलाव पर्दे के पीछे होंगे. हमें सार्वजनिक घोषणाएं, सम्मेलन और संयुक्त सैन्य अभ्यास तो देखने को मिलेंगे, लेकिन रेडार डेटा साझा करना, शुरुआती चेतावनी प्रणालियों को आपस में जोड़ना या सैन्य ठिकानों के अधिकार देने जैसे जरूरी काम गोपनीय ही रहेंगे."
इस बीच, यह भी संभव है कि जो खाड़ी देश काफी हद तक अमेरिका पर निर्भर रहे हैं, वे दूसरे देशों के साथ रक्षा संबंधों का विस्तार करने की कोशिश करें. कतर विश्वविद्यालय में खाड़ी अध्ययन केंद्र की शोधकर्ता सिनेम सेंगिज ने डीडब्ल्यू को बताया, "निश्चित रूप से रूस और चीन जैसे अन्य देश भी हैं, जो अमेरिका की जगह लेने को तैयार हैं. हालांकि, यह संभावना नहीं है कि कोई बाहरी देश रातों-रात अमेरिका की जगह ले लेगा."
ब्यांको का भी कहना है कि खाड़ी देश वैसे भी ऐसा नहीं चाहेंगे. वे अमेरिकी सैन्य तकनीक पर निर्भर हैं. मसलन, दोहा पर हमले के बाद कतर ने अमेरिका से आश्वासन मांगा कि वे अब भी उनके सहयोगी हैं. ब्यांको रेखांकित करती हैं, "यहां एक और जरूरी बात यह भी है कि अमेरिका ने कभी भी इस तरह की रक्षा संबंधी क्षेत्रीय व्यवस्था का खुलकर विरोध नहीं किया है. उसने हमेशा खाड़ी देशों के लिए एक बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणाली बनाने को प्रोत्साहित किया है."
वहीं, क्रीग कहते हैं, "दरअसल अगर खाड़ी देशों में सैन्य सहयोग बढ़ता है, तो इसका मतलब है कि अमेरिका की मौजूदगी भी बढ़ सकती है. क्योंकि, वहां की रक्षा प्रणाली की रीढ़ अमेरिकी तकनीक और हथियार ही हैं."
उन्होंने आगे कहा, "हालांकि, अब राजनीतिक मतलब बदल गया है. अमेरिका को अब सुरक्षा का सबसे बड़ा गारंटर नहीं माना जाता है, बल्कि एक ऐसे सहयोगी के रूप में देखा जाता है जिसका समर्थन शर्तों और लेन-देन पर निर्भर करता है. खाड़ी देशों के नेता अब इस बात को समझ रहे हैं कि अमेरिका एक सहयोगी से ज्यादा अपने हित के लिए उनसे जुड़ा है. इसलिए, वे चाहते हैं कि खाड़ी देश मिलकर अपनी खुद की सुरक्षा व्यवस्था बनाएं, जो ईरान और इस्राएल के बीच संतुलन बना सके."