जापान में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले युवाओं की लगातार बढ़ती तादाद चिंता का सबब बन रही है. गैर सरकारी संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस समस्या से निपटने के लिए सरकार को ज्यादा कदम उठाने होंगे.
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जापान को दुनिया के सबसे अमीर देशों में गिना जाता है. इसलिए जब भी बात गरीबी की होती है तो आम तौर पर उसका जिक्र नहीं आता. लेकिन वहां भी गरीबी की समस्या है और बहुत से बच्चों को इसके दुष्परिणाम झेलने पड़ रहे हैं.
संयुक्त राष्ट्र की बाल संस्था यूनिसेफ ने अप्रैल में एक रिपोर्ट जारी की, जिससे जापान में बच्चों की गरीबी को लेकर एक गंभीर तस्वीर सामने आती है. रिपोर्ट कहती है कि जापान में सबसे गरीब परिवारों के बच्चों के लिए हालात अन्य किसी औद्योगिक देश के मुकाबले कहीं ज्यादा मुश्किल हैं. इस अध्ययन में सबसे गरीब परिवारों और मध्य वर्गीय परिवारों के बच्चों के बीच मौजूद अंतर को लेकर 41 देशों में सर्वे किया गया. इनमें असमानता के मामले में जापान आठवें नंबर पर था. जापान में हर छह बच्चों में से एक गरीब है.
देखिए कहां के बच्चे सबसे होशियार हैं
कहां के बच्चे सबसे होशियार
गणित और विज्ञान में दक्षिण पूर्व एशिया के बच्चों का कोई मुकाबला नहीं है. 2016 के सर्वे में भी वे टॉप पर हैं. इंटरनेशनल मैथ्स एंड साइंस स्टडी ने अपनी इस साल की लिस्ट जारी कर दी है.
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नंबर 1, सिंगापुर
मैथ्स और साइंस पढ़ने वालों में सबसे अच्छे छात्र सिंगापुर के हैं. 9-10 साल के बच्चों का स्कोर 618 रहा, जबकि 13-14 साल के बच्चों 621. दुनिया में सबसे अधिक.
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नंबर 2, हांग कांग
9-10 साल के बच्चों ने 615 अंक पाए जबकि 13-14 साल के बच्चों 594.
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नंबर 3. दक्षिण कोरिया
इस एशियाई देश में 9-10 साल के वर्ग में बच्चों ने 608 अंक हासिल किए जबकि 13-14 साल के बच्चों ने 606.
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नंबर 4. चीनी ताइपेई
9-10 साल के बच्चों का स्कोर रहा 597, जबकि 13-14 साल के बच्चों 599.
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नंबर 5. जापान
9-10 साल के बच्चों का स्कोर 593 रहा, जबकि 13-14 साल के बच्चों 586.
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नंबर 6. उत्तरी आयरलैंड
यहां के बच्चों ने 570 अंक हासिल कर अपने देश को छठे नंबर पर रखा है.
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नंबर 7. रूस
रूस के बच्चे भी मैथ्स और साइंस में बहुत अच्छे हैं. उनका स्कोर रहा 564 और 538.
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नंबर 8. नॉर्वे
9-10 साल के बच्चों का स्कोर 549 रहा, जबकि 13-14 साल के बच्चों का 512.
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नंबर 9. आयरलैंड
9-10 साल के बच्चों का स्कोर 547 रहा, जबकि 13-14 साल के बच्चों का 523.
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नंबर 10. इंग्लैंड
9-10 साल के बच्चों का स्कोर 546 रहा, जबकि 13-14 साल के बच्चों का 518.
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आर्थिक रूप से कमजोर ओकिनावा प्रीफेक्चर जैसे कुछ इलाकों में तो हालात खास तौर से खराब हैं. 2016 के शुरुआत में प्रीफेक्चर के अधिकारियों ने आंकड़े जारी किए जिनके मुताबिक 30 प्रतिशत बच्चे गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं. यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से 80 फीसदी ज्यादा है. सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए कदम उठाने शुरू कर दिए हैं. बाल गरीबी से निपटने के लिए 2014 में एक कानून लागू किया गया था और प्रधानमंत्री शिंजो आबे कई अवसरों पर कह चुके हैं कि वह इस समस्या से निपटने के लिए प्रतिबद्ध हैं.
लेकिन गैर सरकारी संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि अभी तक सरकार की तरफ से जो भी कदम उठाए गए हैं वे पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि बच्चों की संख्या बहुत ज्यादा है. जापान एसोसिएशन ऑफ चाइल्ड पॉवरटी एंड एजुकेशन सपोर्ट ऑर्गेनाइजेशन के अध्यक्ष यासुशी ओतो का कहना है, "आज जो गरीबी दर हम देख रहे हैं उससे पता चलता है कि जापान में पिछले 25 साल के दौरान बच्चों की जिंदगी कितनी मुश्किल हो गई है.”
उन्होंने डीडब्ल्यू के साथ बातचीत में कहा, "जापान का आर्थिक बुलबुला फूटने के बाद से ही गरीबी की दर बढ़ने के पीछे दो मुख्य कारण हैं. एक है शिक्षा और दूसरा बेरोजगारी.” ओतो के संगठन का अनुमान है कि जापान में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले 17 साल से कम उम्र के लोगों की संख्या 35 लाख है. ये उन परिवारों के बच्चे हैं जिनकी सालाना आय 30 लाख येन यानी 25.5 हजार डॉलर से कम है.
बच्चों के हाथों में कलम नहीं, बंदूकें हैं
कहां कहां हैं बच्चों के हाथों में बंदूकें
दुनिया के अलग अलग हिस्सों में जारी संघर्षों में बच्चे न सिर्फ पिस रहे हैं, बल्कि उनके हाथों में बंदूकें भी थमाई जा रही हैं. एक नजर उन देशों पर जहां बच्चों को लड़ाई में झोंका जा रहा है.
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अफगानिस्तान
तालिबान और अन्य कई आतंकवादी गुट बच्चों को भर्ती करते रहे हैं और उनके सहारे कई आत्मघाती हमलों को अंजाम भी दे चुके हैं. कई बार अफगान पुलिस पर भी बच्चों को भर्ती करने के आरोप लगते हैं.
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बर्मा
बर्मा में बरसों से हजारों बच्चों को जबरदस्ती फौज में भर्ती लड़ाई के मोर्चे पर भेजने का चलन रहा है. इनमें 11 साल तक के बच्चे भी शामिल होते हैं.
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सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक
इस मध्य अफ्रीकी देश में 12-12 साल के बच्चे विभिन्न विद्रोही गुटों का हिस्सा रहे हैं. लॉर्ड रजिस्टेंस ग्रुप पर बच्चों को इसी मकसद से अगवा करने के आरोप लगते हैं.
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चाड
यहां विद्रोही ही नहीं बल्कि सरकारों बलों में भी बच्चों को भर्ती किया जाता रहा है. 2011 में सरकार ने सेना में बच्चों को भर्ती न करने का एक समझौता किया था.
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कोलंबिया
इस दक्षिण अमेरिकी देश में पिछले दिनों गृहयुद्ध खत्म हो गया. लेकिन उससे पहले फार्क विद्रोही गुट में बड़े पैमाने पर बच्चों को भर्ती किया गया था.
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डेमोक्रेटिक रिपब्लिकन ऑफ कांगो
संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि एक समय तो इस देश में तीस हजार लड़के लड़कियां विभिन्न गुटों की तरफ से लड़ रहे थे. कई बार तो लड़कियों को यौन गुलाम की तरह इस्तेमाल किया जाता है.
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भारत
छत्तीसगढ़ जैसे नक्सल प्रभावित इलाकों में कई बच्चों के हाथों में बंदूक थमा दी जाती है. कई बार सुरक्षा बलों से मुठभेड़ों मे बच्चे भी मारे जाते हैं.
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इराक
अल कायदा बच्चों को लड़ाके ही नहीं, बल्कि जासूसों के तौर पर भी भर्ती करता रहा है. कई बार सुरक्षा बलों पर होने वाले आत्मघाती हमलों को बच्चों ने अंजाम दिया है.
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सोमालिया
कट्टरपंथी गुट अल शबाब 10 साल तक के बच्चों को जबरदस्ती भर्ती करता रहा है. उन्हें अकसर घरों और स्कूलों से अगवा कर लिया जाता है. कुछ सोमाली सुरक्षा बलों में भी बच्चों को भर्ती किए जाने के मामले सामने आए हैं.
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दक्षिणी सूडान
2011 में दक्षिणी सूडान के अलग देश बनने के बाद वहां की सरकार ने कहा था कि अब बच्चों को सैनिक के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाएगा, लेकिन कई विद्रोही गुटों में अब भी बच्चे हैं.
तस्वीर: DW/A. Stahl
सूडान
सूडान के दारफूर में दर्जनों हथियारबंद गुटों पर बच्चों को भर्ती करने के आरोप लगते हैं. इनमें सरकार समर्थक और विरोधी, दोनों ही तरह के मिलिशिया गुट शामिल है.
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यमन
यमन में अरब क्रांति से पहले 14 साल तक के बच्चों को सरकारी बलों में भर्ती किया गया था. हूथी विद्रोहियों के लड़ाकों में भी ऐसे बच्चे शामिल हैं जिनके हाथों में बंदूक हैं.
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सरकार के आंकड़ों के अनुसार परिवार सिर्फ दो लाख बच्चों के लिए ही सरकार की तरफ से मिलने वाली कल्याण राशि हासिल कर रहे हैं. गैर सरकारी संगठन इतनी कम राशि लेने के कारणों को जटिल बताते हैं. सबसे बड़ी वजह यह है कि जापानी समाज में इस तरह रकम लेने को अच्छा नहीं माना जाता है. समझा जाता है कि बिना कुछ किए बैठे बैठे पैसा लेना ठीक नहीं है.
शिक्षा पर आने वाला खर्च भी हाल के सालों में बढ़ा है. इसका मतलब है कि गरीब परिवारों के बच्चों के पढ़ने की संभावनाएं कम हो रही हैं. हजारों बच्चे घर की आर्थिक तंगियों के कारण अपनी स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते. ओतो के मुताबिक ऐसे बच्चों के लिए खुद को गरीबी से निकालना मुश्किल होता है.
ओतो को सरकार पर बहुत कम भरोसा है. वह कहते हैं, "सच कहूं तो मुझे नहीं लगता कि बच्चों से जुड़ी नीति में आबे को कोई खास दिलचस्पी है. अभी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो इन लोगों की मदद कर सके. हमारा संगठन इसके लिए प्रयास कर रहा है.”
एक गैर सरकारी संगठन तोशिमा कोदोमो वाकुवाकु की मुख्य निदेशक चिएको कुरीबायांशी कहती हैं, "मुझे लगता है कि सरकार को और कदम उठाने चाहिए. गरीबी को दूर करने के लिए उसकी मौजूदा नीतियां प्रभावी नहीं हैं. देश भर के लोगों को अब पता चल रहा है कि हां, ये समस्या है. इसलिए हम मिलकर इससे निपटने के प्रयास कर सकते हैं.”
स्कूल सुबह सुबह नहीं खुलने चाहिए, क्यों
स्कूल सुबह नहीं खुलने चाहिए!
स्कूल सुबह क्यों खुलते हैं? जब बच्चे वक्त से नहीं जग पाते तो स्कूल सुबह क्यों खुलें? इन सवालों के पीछे एक वैज्ञानिक तर्क काम कर रहा है.
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टीनेजर्स का जल्दी ना उठ पाना उनके एटिट्यूड से नहीं, उनके शरीर से जुड़ा है.
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अमेरिका के नेशनल स्लीप फाउंडेशन के मुताबिक टीनेजर्स के शरीर को सही तरीके से प्रतिक्रिया करने के लिए और विकसित होने के लिए 8 से 10 घंटे की नींद जरूरी होती है.
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मिनेसोटा यूनिवर्सिटी ने एक अध्ययन में पाया है कि औसतन टीनेजर्स को रात 10.45 तक बिल्कुल नींद नहीं आती.
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अमेरिका में तो इस बात को लेकर भी बहस चल रही है कि स्कूलों के टाइम बदले जाने चाहिए. ब्राउन यूनिवर्सिटी ने एक अध्ययन के बाद कहा है कि सुबह का स्कूल किशोरों के शरीर के अनुकूल नहीं है.
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नींद पूरी ना हो पाने का असर किशोरों के स्वास्थ्य, खासकर मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है.
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इंटरनेशनल जर्नल ऑफ जनरल मेडिसिन में छपे एक शोध के मुताबिक जो किशोर 9 घंटे से कम सोते हैं उनमें डिप्रेशन होने की संभावना ज्यादा होती है.
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मिनेसोटा यूनिवर्सिटी के मुताबिक जिन स्कूलों ने अपना वक्त बदला है उनके स्टूडेंट्स के प्रदर्शन में सुधार आया है.