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इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ से संसाधनों की कमी पूरी करता जापान

यूलियन रयाल
१६ सितम्बर २०२२

पुराने स्मार्ट फोन, टीवी और कंप्यूटरों से बेशकीमती धातुओं को निकालने का "अर्बन माइनिंग" अभियान दुनिया में जोर पकड़ चुका है. जापान इसके जरिए विदेशी सप्लायरों और डांवाडोल सप्लाई चेन पर देश की निर्भरता घटाना चाहता है.

जापान इलेक्ट्रिक कचरे के रिसाइक्लिंग को बढ़ावा दे रहा है
जापान के काटो में इलेक्ट्रिक सामानों की रिसाइक्लिंगतस्वीर: Everett Kennedy Brown/dpa/picture-alliance

हर साल बेकार हो जाने वाले इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के टनों कबाड़को इस्तेमाल करने के लिए जापान ने महत्वाकांक्षी योजनाओं का ऐलान किया है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अवरोधों की वजह से देश के हाई-टेक उत्पादन सेक्टर के लिए बेहद जरूरी कच्चे माल की कमी का खतरा मंडरा रहा है.

पर्यावरण मंत्रालय ने पिछले साल अगस्त में ऐलान किया था कि 2030 तक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से निकाली जाने वाली धातुओं की मात्रा दोगुनी करने का उसका लक्ष्य है. इस दौरान आला दर्जे के इलेक्ट्रिक वाहनों से लेकर कंप्यूटरों और स्मार्टफोनों के निर्माण में संसाधनों को रिसाइकिल कर और फिर से इस्तेमाल में लाया जाएगा.

मंत्रालय के मुताबिक 2020 में, विशेषज्ञ कंपनियों ने 210,000 मीट्रिक टन की विशाल मात्रा में धातु निकाली थी. इन कंपनियों को "अर्बन माइनर्स" भी कहा जाता है. 

इस सेक्टर को प्रोत्साहन के लिये एक अरब येन की धनराशि अलग से आवंटित की गई है. 2030 तक इलेक्ट्रॉनिक कचरे से 4,20,000 टन बहुमूल्य धातु निकालने का लक्ष्य है.   

कबाड़ में पड़ी सोने की खान

खराब और पुराने मोबाइल फोनऔर टीवी सेट, कम्प्यूटर के मदरबोर्ड, रेफ्रिजरेटर, माइक्रोवेव अवन, कार के पार्ट और दूसरी अनगिनत घरेलू चीजों में विभिन्न मात्राओं में सोना और चांदी, लीथियम, निकल, कोबाल्ट, तांबा और जिंक रहता है. उनसे बैटरियों और हाई-टेक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के महत्वपूर्ण हिस्से बनाये जा सकते हैं. साथ ही अगर ठीक से प्रोसेस किये जायें तो दोबारा इस्तेमाल भी हो सकते हैं.

2020 के एक अनुमान के मुताबिक जापान में 6,800 टन सोना खराब हो चुके उपकरणों के साथ कचरे में फेंक दिया जाता है. दक्षिण अफ्रीका में सोने के भंडार की इस मात्रा में अभी तक खुदाई भी नहीं हुई है.

जापान के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मटीरियल साइंस के पूर्व निदेशक और सस्टेनेबिलिटी डिजाइन इंस्टीट्यूट  के निदेशक कोहमाई हराडा कहते हैं कि "एक दशक पहले खराब इलेक्ट्रॉनिक सामान को कीमती नही माना जाता था ना ही संसाधन के तौर पर उसकी कोई परवाह की जाती थी, सिर्फ इसलिए क्योंकि उस समय उनमें काम आने वाली धातुओं की कीमत अपेक्षाकृत कम थी."

हराडा ने डीडब्ल्यू को बताया, "लेकिन वो चीज अब नाटकीय तौर पर बदल चुकी है और इस बारे में स्वीकार्यता बढ़ने लगी है कि पहले से मौजूद सामग्रियों को निकालकर उनका फिर से इस्तेमाल करना चाहिए."

दुर्लभ धातुओं की रिसाइकिल

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हराडा कहते हैं कि दुनिया में और भी देश ये कर रहे हैं. हालांकि जापान में जरूरत कुछ ज्यादा ही बड़ी है क्योंकि देश की बड़ी और एडवांस इलेक्ट्रॉनिक कंपनियों की भूख बेतहाशा हो चुकी है और विदेशों से वो आयात पर पूरी तरह से निर्भर रहती आई हैं.

वो यह दलील भी देते हैं कि जापान दुनिया में सबसे सुव्यवस्थित और तैयार अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और वह अपने पास पहले से मौजूद संसाधनों का लाभ उठाने की स्थिति में भी है. 

हराडा कहते हैं, "जापान ने 1990 के दशक में, पहली बार, इलेक्ट्रॉनिक साजोसामान के लिए एक चक्रीय अर्थव्यवस्था बनाने की कोशिशों की शुरुआत की थी. निर्माताओं को घरेलू उपकरणों में मौजूद प्लास्टिक, रबड़, कांच और दूसरी सामग्री रिसाइकिल करने के लिये प्रेरित किया जाता था. 

धीरे धीरे, उन उपकरणों से थोड़ी थोड़ी मात्रा में धातुओं को निकालने को ज्यादा अहमियत दी जाने लगी, जबकि पहले उन्हें निकालना फायदे का सौदा नहीं माना जाता था.

हराडा का कहना है, "जापान के पास बहुत ही विकसित किस्म की कचरा प्रबंधन प्रणाली है और इन धातुओं को निकालना अब सस्ता पड़ता है, दूसरे देशों के मुकाबले कहीं सस्ता."

पहली बार रिसाइकिल किये धातु से ओलंपिक के मेडल बनाये गयेतस्वीर: Tetsu Joko/AP/picture alliance

संसाधनों की बढ़ती आजादी

टेंपल यूनिवर्सिटी के टोक्यो कैंपस में राजनीति शास्त्र की प्रोफेसर हिरोमी मुराकामी कहते हैं कि संसाधनों को रिसाइकिल करना जापान के लिए बहुत जरूरी है क्योंकि उसकी बदौलत आयात पर उसकी निर्भरता कम होगी. यह आयात फिलहाल वैसे भी उन अवरोधों का शिकार है जो सरकार के नियंत्रण से बाहर हैं.

उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "जापान इस मामले में चर्चित है कि उसके पास वे तमाम संसाधन नहीं हैं जिनकी आधुनिक अर्थव्यवस्था में जरूरत होती है और सालों से उसकी चिंता के दो प्रमुख क्षेत्र ऊर्जा और भोजन रहे हैं."

एक दशक पहले, जापान और चीन के बीच पूर्वी चीन सागर के एक द्वीप समूह की संप्रभुता को लेकर विवाद हो गया था, जिसके चलते चीन ने जापान को इलेक्ट्रिक वाहनों में इस्तेमाल होने वाली दुर्लभ धातुओं के निर्यात पर पूरी तरह से रोक लगा दी थी.

जापान को इस अनुभव से धक्का लगा. आगे की सरकारों ने एक ज्यादा विविधता वाले संसाधनों और राजनीतिक फायदा ना उठाने वाले साझेदारों से आपूर्ति की कोशिश की. 

कबाड़ के सामान से पवनचक्की

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मुराकामी ने जोर देकर कहा, "यहां पर राष्ट्रीय सुरक्षा का एक गंभीर पहलू भी आता है. पिछले कुछ सालों में  हमने वैश्विक महामारी का असर देखा है, वो असर जो सप्लाई चेन पर पड़ा है और उन उद्योगों को नुकसान हुआ है जो विदेशों से कच्ची सामग्री या साजोसामान नियमित रूप से और समयबद्ध तरीके से मंगाते आए थे."

वो कहती हैं, "यूक्रेन युद्ध से ये हालात और खराब हुए हैं और उन देशों पर रूस का दबाव भी रंग लाया है जो उसके ऊर्जा संसाधनों पर निर्भर हैं."

"जापान को पता चल गया है कि कई क्षेत्रों में वो असहाय है, ना कि सिर्फ भोजन और ईंधन में, इसीलिए पहले से उपलब्ध संसाधनो को रिसाइकिल करने के लिए अर्बन माइनिंग पर अब जोर है, और ये रणनीति समझी जा सकती है."

ओलंपिक में धातुओं के दोबारा इस्तेमाल की कोशिश

संसाधनों के फिर से इस्तेमाल के जापानी अभियान को 2020 के टोक्यो ओलंपिक खेलों ने भी एक प्लेटफॉर्म मुहैया कराया था. ओलंपिक के इतिहास में पहली बार, यह घोषणा की गई थी कि खेलों मे दिए जाने वाले सोने, चांदी और कांस्य के 5000 पदक, रिसाइकिल धातुओं से तैयार होंगे.

आयोजन समिति ने पूरे देश से अपील की थी पुराने और बेकार हो चुके तमाम कम्प्यूटरों, मोबाइल फोनों और दूसरे उपकरणों को खंगालकर अभियान को दान कर दें. इस तरह जनता ज्यादा प्रत्यक्ष रूप से खेलों में "भागीदारी" कर पाएगी.

जापान में तमाम समुदायों ने बढ़चढ़कर इस अभियान में हिस्सा लिया. उसमें 1300 से ज्यादा स्कूल और 2400 खुदरा दुकानें भी थीं. आखिरकार 80,000 टन कचरा जमा हो गया था. उसे गलाकर सबसे बेशकीमती धातुएं निकाल ली गईं थीं. कुल मिलाकर 30 किलोग्राम स्वर्ण, 4100 किलोग्राम चांदी और 2700 किलोग्राम कांस्य पदक तैयार किए गए थे.  

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