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एक फीसदी जीडीपी की सीमा तोड़ेगा जापान का रक्षा बजट

राहुल मिश्र
३ सितम्बर २०२१

यूं जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा के इस्तीफे का जापान के रक्षा बजट के एक फीसदी जीडीपी की सीमा को पार करने से कोई लेना देना नहीं है. उन्होंने कोविड-19 और ओलंपिक खेलों के आयोजन पर हुई आलोचना के बाद इस्तीफा दिया है.

Japan Yoshihide  Suga Präsidentschaftswahl Wahl
तस्वीर: Taketo Oishi/AP Photo/picture alliance

बरसों से रक्षा मामलों में चुप-चाप रहने वाले जापान ने पिछले कुछ वर्षों में अपना सामरिक और सुरक्षा दृष्टिकोण बदला है. इस बदलाव का असर न सिर्फ जापान के रक्षा बजट पर पड़ा है बल्कि हाल ही में जारी रक्षा श्वेतपत्र, नेताओं के विदेश और सामरिक नीति संबंधी बयानों और यहां तक कि संविधान संबंधी मामलों में भी यह परिवर्तन देखने को मिला है. इसी कड़ी में एक नया पन्ना हाल ही में तब जुड़ गया जब 31 अगस्त को जापान के रक्षा मंत्रालय ने इस साल के रक्षा बजट को बढ़ा कर 50 अरब अमेरिकी डालर करने की बात कही. जापान जैसे देश के लिए यह कोई छोटी बात नहीं है.

आंकड़े कहते हैं कि 2018 के बाद से यह सबसे तेजी से बढ़ा बजट है जो संस्तुति के बाद लगभग तीन प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कराएगा. इस साल के मुकाबले 2.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करने के साथ ही यह बजट 50 अरब के आंकड़े तक पहुंच जाएगा. बजट की पेशकश और मंजूरी के बीच महीनों का फासला है. और अगर वित्त मंत्रालय और संसद की मंजूरी मिली तो भी यह बजट 1 अप्रैल 2022 से ही प्रभाव में आएगा.

जापान की बदलती प्राथमिकता

लेकिन जापान के रक्षा मंत्रालय की इस पेशकश ने इंडो-प्रशांत क्षेत्र में मंडराते तनाव की ओर इशारा तो किया ही है. और पिछले दिनों हुए परिवर्तनों को देखने तो यह नहीं लगता कि यह बादल आसानी से छंटने वाले हैं. जापानी रक्षा मंत्रालय ने अपने सालाना रक्षा बजट में इतनी बढ़ोत्तरी की वजह चीन को बताया है और कहा है कि चीन के खतरनाक रवैये से उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताएं बढ़ गयी हैं और चीनी आक्रामकता से निपटने के लिए जापानी सेना को अधिक संसाधनों की जरूरत है.

अंतरराष्ट्रीय मंच पर अलग थलग हो रहे हैं शी जिन पिंगतस्वीर: Tomohiro Ohsumi/dpa/Pool Getty Images/AP/picture alliance

अभी पिछले साल ही जापान ने चीन को अपनी सुरक्षा और संप्रभुता के लिए बड़ा खतरा करार दिया था. लेकिन रक्षा बजट में इस बढ़ोत्तरी के बावजूद जापान चीन से अभी काफी पीछे है और यह अंतर सिर्फ धन का नहीं बल्कि तकनीक और कुल ताकत का भी है. गौरतलब है कि अमेरिका के बाद चीन दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य महाशक्ति है. चीन की अमेरिका से बढ़ती तनातनी, दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ दक्षिण चीन सागर में अतिक्रमण के मामले, ताइवान और आये दिन आक्रमण करने की धमकियों के मद्देनजर जापान की चिंता स्वाभाविक है.

चीन की आक्रामकता से चिंता

सेनकाकू द्वीप और अपने एडीआईजेड में चीनी दखल से जहां जापान की चिंताएं बढ़ी हैं तो वहीं ताइवान की सुरक्षा भी जापान के लिए सरदर्द का कारण बन रही है. दूसरे विश्वयुद्ध के समय से ही जापान ताइवान को अपनी सुरक्षा से जोड़कर देखता है. चीन की ताइवान को लेकर बढ़ती आक्रामकता से कहीं न कहीं जापान को यह लग रहा है कि चीनी ड्रैगन के गुस्से की लपट में वह भी आ सकता है. और इस चुनौती से निपटना अब दूरगामी स्ट्रेटेजी नहीं तात्कालिक जरूरत बन गया है.

अगर जापान के रक्षा बजट सम्बन्धी नीतिगत ट्रेंड पर नजर डाली जाय तो इस सन्दर्भ में सबसे बड़े और महत्वपूर्ण कदम तो भूतपूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने ही उठाये थे. सेल्फ डिफेंस फोर्सेस को चुस्त दुरुस्त करने और उन्हें बड़ी अंतरराष्ट्रीय भूमिका के लिए तैयार करने की पहल शिंजो आबे ने ही की थी जब 2015 में उन्होंने संविधान के आर्टिकल 9 में परिवर्तन लाने की कोशिश की हालांकि यह पूरी तरह सफल नहीं हो पाई थी. देखा जाय तो शिंजो आबे के समय से ही सेनकाकू द्वीप के मालिकाना हक  को लेकर जापान ने भी अपने रुख में सख्ती बरतना शुरू किया है.

यही नहीं, सूत्रों के अनुसार अमामी, योनागुनी, और मियाको जैसे सुदूर द्वीपों की सुरक्षा को भी चाक चौबंद करने का मंसूबा भी जापानी रक्षा मंत्रालय ने बांध लिया है. इसके तहत ही इसीगाकि द्वीप पर एक नए कैम्प की स्थापना करने की भी योजना है. आबे के उत्तराधिकारी योशिहिदे सुगा ने भी इन प्रयासों को जारी रखा है. भले ही घरेलू राजनीतिक उठापटक और तेजी से घटती लोकप्रियता के कारण उन्होंने प्रधानमंत्री पद छोड़ने का फैसला किया है, लेकिन प्रधानमंत्री कोई भी हो, जापान की सामरिक और कूटनीतिक दशा और दिशा में कोई खास परिवर्तन नहीं आएगा.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)

 

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