उन्होंने हथियारों की तस्करी की, जर्मन रेलवे में तोड़फोड़ की और युद्ध में मारी गईं. इतिहासकार जूडी बटालियन ने यहूदी महिला प्रतिरोध की महत्वपूर्ण कहानियों को इकट्ठा किया है.
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फरवरी 1943 का यह एक छोटा दिन है. सर्दी ने पोलैंड के एक शहर बेडजिन की नाजी जर्मनी के कब्जे वाली यहूदी बस्ती को अपनी गिरफ्त में ले रखा है. इस बस्ती में भीड़भाड़ वाले घरों के बीच एक खास इमारत है जिसका नाम फ्राईहाइट (आजादी) है. यह इमारत यहूदी युवा संगठन का मुख्यालय है जहां नाजियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे यहूदी रहते हैं.
इस दिन, इस इमारत में महिला और पुरुष एक साथ एक महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए आए हैं. वे ऐसे दस्तावेज प्राप्त करने में सक्षम थे जो उन्हें कब्जे वाले क्षेत्रों के कुछ हिस्सों में तस्करी करने में मदद कर रहे थे. क्या उनकी नेता फ्रुमका प्लोटनिका को, जो कि एक यहूदी-पोलिश महिला हैं, हेग की यात्रा करने और अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय के समक्ष यहूदी लोगों का प्रतिनिधित्व करने के लिए इन कागजात का उपयोग करना चाहिए?
सभी निगाहें प्लोटनिका की ओर लगी थीं. वह कहती हैं, "नहीं. मरना है तो साथ मरेंगे. लेकिन हम लोग प्रयास करेंगे कि बहादुरों की तरह मरें.”
उसी कमरे में एक और युवती थी जिनका नाम रेनिया कुकिएल्का था. ये दोनों महिलाएं एक साथ नाजी कब्जे वाले पोलैंड में हिटलर शासन के खिलाफ यहूदी महिला प्रतिरोध का चेहरा बनने वाली हैं.
उस रात की ऐतिहासिक घटनाओं को इतिहासकार जूडी बटालियन ने अपनी पुस्तक द लाइट ऑफ डेज में कुछ इसी तरह चित्रित किया है जिसका शीर्षक है- द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ विमिन रेजिस्टेंस फाइटर्स इन हिटलर्स गेटोज.
10 वर्षों के दौरान, बटालियन ने इस विध्वंसक लड़ाई से संबंधित अनगिनत प्रत्यक्षदर्शी रिपोर्टों, संस्मरणों, विरासतों और अभिलेखीय दस्तावेजों को खोज निकाला और उनका विश्लेषण किया है.
उन्होंने दुनिया भर में युद्ध की विभीषिका से बचे लोगों और उनके बच्चों और पोते-पोतियों से बात भी की है. इस श्रमसाध्य कार्य के माध्यम से, वह एक ऐसे इतिहास को फिर से बनाने में सफल रही हैं जो दशकों से लोगों को पता ही नहीं था. वास्तव में, यह एक ऐसा काम है जिसके बारे में ठीक से कभी बताया ही नहीं गया. पोलैंड में नाजी कब्जे का यहूदी महिलाओं ने किस तरह से विरोध किया, दृढ़ता, साहस और कभी-कभी हिंसा का भी सहारा लिया.
तोड़फोड़, आग्नेयास्त्र, छलावरण
बटालियन इस महायुद्ध में जान बचाने वाली एक महिला की पोती हैं जिनके माता-पिता में से एक पोलैंड के रहने वाले और दूसरे यहूदी थे. वह न्यूयॉर्क में रहती हैं लेकिन इन अनसुनी कहानियों को लिखने के लिए उन्होंने लंदन स्थित ब्रिटिश लाइब्रेरी में काफी खोजबीन की. तमाम ऐतिहासिक दस्तावेजों के अलावा यिदिश किताब फ्राउएन इन द गेटोज की भी एक प्रति उनके हाथ लग गई.
वह नारी शक्ति और साहस पर एक और "उबाऊ" शोकगीत की उम्मीद कर रही थीं लेकिन इसकी बजाय उन्हें वह मिल गया जिसमें महिलाओं के साथ "तोड़फोड़, आग्नेयास्त्र, छलावरण, डायनामाइट" जैसी कहानियां जुड़ी थीं.ट
एक दशक के शोध और लेखन के बाद उन्हें उल्लेखनीय परिणाम हासिल हुए. उन्होंने पाया कि बड़ी संख्या में यहूदी महिलाएं सक्रिय रूप से कब्जे वाले पोलैंड में नाजियों का विरोध कर रही थीं, बेडजिन में यहूदी बस्ती से लेकर वारसॉ तक हर स्तर पर वो आगे थीं. उन्होंने हथियारों की तस्करी की, जर्मन रेलवे को कई जगह ध्वस्त किया और कई जगहों पर बारूद से धमाके किए.
नाजियों से संघर्ष के दौरान फ्रुमका प्लोटनिका की मौत हो गई जबकि रीनिया कुकीलका और कई अन्य महिलाओं ने संदेशवाहकों का काम किया. लगातार अपनी जान पर खेलते हुए इन महिलाओं ने अपनी गैर यहूदी पहचान का इस्तेमाल करते हुए लोगों तक सूचनाएं, पैसा, हथियार और गोला बारूद पहुंचाने में मदद की.
सांस्कृतिक प्रतिरोध
अन्य महिलाएं शहरों से भाग गईं और जंगलों या विदेशी प्रतिरोध समूहों के गुरिल्ला समूहों में शामिल हो गईं. उन्होंने अन्य यहूदियों को छिपने या भागने और "नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक प्रतिरोध" में लगे रहने में मदद करने के लिए एक बचाव नेटवर्क का निर्माण किया.
सांस्कृतिक प्रतिरोध का एक ऐसा उदाहरण बटालियन द्वारा लॉड्ज के यहूदी बस्ती में एक युवा महिला हेनिया रेनहार्ट्ज की जीवनी के माध्यम से पेश किया गया है. अन्य महिलाओं के साथ, उसने शहर में पुस्तकालय से यहूदी पुस्तकों के ढेर को बचाया और उन्हें यहूदी बस्ती में तस्करी करके पहुंचाया. बाद में कई साल तक वह इस बात को याद करती रही, "यह एक भूमिगत लाइब्रेरी थी.”
बटालियन कहती हैं, "पढ़ना, दूसरी दुनिया में जाने का एक रास्ता था. सामान्य जीवन से सामान्य दुनिया में, ना कि हमारी तरह डर और भूख की दुनिया में. राइनहार्ट्ज निर्वासन से बचने के लिए जब छिप रही थीं, उस वक्त वो अमरीकी उपन्यास ‘गॉन विद द विंड' पढ़ रही थी.”
तस्वीरों मेंः हिमलर की खूनी डायरी
हिमलर की खूनी डायरी
सबसे क्रूर नाजी नेताओं में शुमार हाइनरिष हिमलर की एक डायरी सार्वजनिक हुई, जिसमें उसने 1937-38 और 1944-45 यानि दूसरे विश्व युद्ध के पहले और अपने आखिरी दिनों का ब्यौरा दर्ज किया था.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
मॉस्को स्थित जर्मन इतिहास संस्थान (डीएचआई) अगले साल हिमलर की उन डायरियों को प्रकाशित करने जा रहा है जिसमें दूसरे विश्व युद्ध के ठीक पहले और बाद के दिनों में उसकी ड्यूटी के दौरान जो भी घटा वो दर्ज है. कुख्यात नाजी संगठन एसएस के राष्ट्रीय प्रमुख की यह आधिकारिक डायरी 2013 में मॉस्को के बाहर पोडोल्स्क में रूसी रक्षा मंत्रालय ने बरामद की थी.
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डायरी में हिमलर अपने अगले दिन की योजना के बारे में टाइप करके लिखता था. इसे देखकर जाना जा सकता है कि तब हिमलर के दिन कैसे गुजरते थे. इसमें तमाम अधिकारियों, एसएस के जनरलों के साथ रोजाना होने वाली बैठकों के अलावा मुसोलिनी जैसे विदेशी नेताओं से मुलाकात की बात दर्ज है. इसके अलावा आउशवित्स, सोबीबोर और बूखेनवाल्ड जैसे यातना शिविरों के दौरे का भी जिक्र है.
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हिमलर की सन 1941-42 की डायरी 1991 में ही बरामद हो गई थी और उसे 1999 में प्रकाशित किया गया था. हिमलर को अडोल्फ हिटलर के बाद नंबर दो नेता माना जाता था. 23 मई 1945 को ल्यूनेबुर्ग में ब्रिटिश सेना की हिरासत में आत्महत्या करने वाले हिमलर ने अपने जीवनकाल में एसएस प्रमुख के अलावा, गृहमंत्री और रिप्लेसमेंट आर्मी के कमांडर के पद संभाले थे.
तस्वीर: Archiv Reiner Moneth, Norden
सभी यातना शिविरों के नेटवर्क के अलावा घरेलू नाजी गुप्तचर सेवा का काम भी हिमलर देखता था. हिमलर के अलावा ऐसी डायरी नाजी प्रोपगैंडा प्रमुख योसेफ गोएबेल्स रखता था. इन डायरियों से होलोकॉस्ट के नाम से प्रसिद्ध यहूदी जनसंहार में हिमलर की भूमिका साफ हो जाती है. डायरी में दिखता है कि उसने यातना शिविरों और वॉरसॉ घेटो का भी दौरा किया और वहां यहूदियों की सामूहिक हत्या करवाई.
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जर्मन दैनिक "बिल्ड" में प्रकाशित इस डायरी के कुछ अंशों में दिखता है कि 4 अक्टूबर, 1943 को हिमलर ने पोजनान में एसएस नेताओं के एक समूह को संबोधित किया. इस तीन घंटे के भाषण में हिमलर ने "यहूदी लोगों के सफाए" की बात कही थी. आधिकारिक तौर पर किसी नाजी नेता के होलोकॉस्ट का जिक्र करने के प्रमाण दुर्लभ ही मिले हैं. हिमलर यूरोप के साठ लाख यहूदियों के खात्मे का गवाह और कर्ताधर्ता रहा.
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नाजी काल के विशेषज्ञों को पूरा भरोसा है कि यह डायरी और दस्तावेज सच्चे हैं. रूस की रेड आर्मी के हाथ लगी इस डायरी के 1,000 पेजों को 2017 के अंत तक दो खंडों वाली किताब के रूप में प्रकाशित किया जाएगा.
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पोडोल्स्क आर्काइव में करीब 25 लाख पेजों वाले ऐसे दस्तावेज मौजूद हैं जिन्हें युद्ध के दौरान रेड आर्मी ने बरामद किया था. अब इन्हें डिजिटलाइज किया जा रहा है और रूसी-जर्मन संस्थानों द्वारा प्रकाशित भी.
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डायरी में एक दिन की एंट्री देखिए- 3 जनवरी, 1943: हिमलर अपने डॉक्टर के पास "थेरेपी मसाज" के लिए गया. मीटिंग्स कीं, पत्नी और बेटी से फोन पर बातें कीं और उसी रात मध्यरात्रि को अनगिनत पोलिश परिवारों को मरवा दिया.
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इन दस्तावेजों से हिमलर की विरोधाभासी तस्वीर उभरती है. एक ओर वो सबका ख्याल रखने वाला पारिवारिक व्यक्ति था तो दूसरी ओर अवैध संबंध के तहत मिस्ट्रेस रखता था और उसकी नाजायज संतान भी थी. वो ताश खेलने और तारे देखने का शौकीन था तो यातना शिविरों में आंखों के सामने लोगों को मरते देखने का भी.
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हिमलर की अपनी सेक्रेटरी हेडविग पोटहास्ट के साथ भी दो संतानें थीं. डायरी में उसने 10 मार्च, 1938 को नाजी प्रोपगैंडा प्रमुख योसेफ गोएबेल्स के साथ जाक्सेनहाउजेन के यातना शिविर का दौरा करने और 12 फरवरी, 1943 को सोबीबोर में तबाही को देखने जाने का ब्यौरा लिखा है. ऐसी विस्तृत और पक्की जानकारी पहली बार हिमलर की डायरी के कारण ही सामने आई है.
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एक पुस्तक का एक दुर्लभ रत्न
बटालियन भी, यहूदी महिला प्रतिरोध सेनानियों की स्मृति को फिर से जीवंत करने के लिए संस्कृति और साहित्य का उपयोग करना चाहती हैं. उनकी पुस्तक एक उपलब्धि है, वह जितनी कठोर है उतनी ही मनोरंजक भी. महान कुशाग्र बुद्धि और एक दृढ़ कथा प्रवृत्ति के साथ, वह इतिहास के एक महत्वपूर्ण हिस्से की याद दिलाती है जिसे बहुत लंबे समय से अनदेखा किया गया है.
पुस्तक का जर्मन अनुवाद इस महीने प्रकाशित होने के लिए तैयार है और यह उस बहस के दौरान प्रकाशित हो रही है कि कैसे इस आपदा की स्मृति को जीवित रखा जाए क्योंकि उसके प्रत्यक्षदर्शी धीरे-धीरे बड़े होते जाते हैं और फिर मर जाते हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में अनुवादक मारिया त्सिटनर इस बात को रेखांकित करती हैं कि यह कितना महत्वपूर्ण है कि इस इतिहास को बताया जाए, खासकर जर्मनी में.
देखिएः ऐन फ्रैंक की कहानी
ऐन फ्रैंक की कहानी
कई सालों तक ऐन फ्रैंक का परिवार नीदरलैंड्स में छिपता रहा. लेकिन आखिरकार नाजियों ने उनका पता लगाकर 4 अगस्त 1944 में आउश्वित्स के यातना शिविर भेज दिया. ऐन ने अपनी छिपने की जगह में अपनी डायरी लिखी जो दुनिया भर में मशहूर है.
इस फोटो में ऐन आगे बाईं तरफ खड़ी हैं. उनकी बहन मार्गोट पीछे दाहिनी तरफ खड़ी हैं. ऐन के पिता ओटो फ्रैंक ने मार्गोट की आठवीं सालगिरह पर यह फोटो खीचीं थी. 1934 में यह तस्वीर नीदरलैंड्स में ली गई.
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एम्सटरडम में छिपने की जगह
नीदरलैंड्स की राजधानी में ओटो फ्रैंक ने अपनी कंपनी बनाई. इस घर में कंपनी का दफ्तर था और इसके पीछे ऐन के पिता ने छिपने की जगह बनाई. 1942 से लेकर 1944 तक ऐन का परिवार चार और परिवारों के साथ यहां रहा. ऐन ने यहीं अपनी डायरी भी लिखी.
तस्वीर: Getty Images
डायरी बनी सहेली
शुरुआत से ही ऐन ने हर दिन अपनी डायरी में लिखा. वह उसकी सहेली थी और ऐन उसे किटी बुलाती थी. इस दौरान ऐन की जिंदगी में कई चिंताएं आ गईं. "मुझे लेकिन अच्छा लगता है कि मैं जो सोचती और महसूस करती हूं, उसे कम से कम लिख सकती हूं, नहीं तो मेरा दम बिलकुल घुट जाता."
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बैर्गेन बेलसेन में मौत
ऐन फ्रैंक और उसकी बहन मार्गोट को 30 अक्तूबर 1944 को आउश्वित्स से बैर्गेन बेलसेन लाया गया. इस यातना शिविर में 70,000 से ज्यादा लोग मारे गए. नाजियों को हराने के बाद ब्रिटिश सैनिकों ने बंदियों को छुड़ाया और मृतकों के शवों को सार्वजनिक कब्रिस्तान तक लाए. ऐन और उसकी बहन मार्गोट की मौत लेकिन टाइफस बीमारी की वजह से हो चुकी थी. ऐन उस वक्त 15 साल की थीं.
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ऐन की कब्र
बेर्गन बेलसेन में ऐन की कब्र भी है. फ्रैंकफर्ट में पैदा होने वाली ऐन ने अपनी जिंदगी में कई सपने देखे. अपनी डायरी में उसने लिखा, "मैं बेकार में नहीं जीना चाहती, जैसे ज्यादातर लोग जीते हैं. मैं उन लोगों को जानना चाहती हूं जो मेरे आसपास रहते हैं लेकिन मुझे नहीं जानते, उनके काम आना और उनके जीवन में खुशी लाना चाहती हूं. मैं और जीना चाहती हूं, अपनी मौत के बाद भी."
तस्वीर: picture-alliance/dpa
डायरी से मशहूर
ऐन फ्रैंक लेखक बनना चाहती थीं. उनके पिता ने 25 जून 1947 को डायरी प्रकाशित की और उसे नाम दिया, "पिछवाड़े वाला घर." किताब बहुत मशहूर हुई और ऐन नाजी यातना का प्रतीक बन गई. 6 जुलाई 1944 को ऐन ने लिखा, "हम सब खुश होने के मकसद से जीते हैं, हम सब अलग अलग जीते हैं लेकिन फिर भी एक ही तरह से."
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वो कहती हैं, "जब मैं किताब का अनुवाद कर रही था और पढ़ रही थी कि जर्मनों ने इन यहूदी महिलाओं के साथ क्या किया है, तो मुझे बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई. जर्मनों के रूप में यह सुनिश्चित करना हमारी जिम्मेदारी है कि इन यादों को भुलाया न जाए और उन्हें अगली पीढ़ी को हस्तांतरित होने दिया जाए. हमारी जिम्मेदारी है कि हम वह सब करें जो हम कर सकते हैं ताकि ऐसा कुछ दोबारा न हो.”
बटालियन ने उन कहानियों को उजागर करने के महत्व पर बल दिया जिन्हें दबा दिया गया है. वो कहती हैं, "सामान्य रूप से यहूदी प्रतिरोध की यह पहली कहानी है, खासकर पोलैंड में, जिसके बारे में बहुत कम बात की जाती है. और दूसरे यह कि विश्वयुद्ध के दौरान महिलाओं के अनुभव का यह दस्तावेज है जिन पर हाल के दिनों में तो खूब चर्चाएं हुई हैं लेकिन पहले नहीं हुई हैं.”
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पश्चिमी नारीवाद का नया अध्याय
बटालियन कहती हैं कि मौजूदा समय में ऐसी कहानियों को पढ़ने की लोगों में जबर्दस्त भूख है. डीडब्ल्यू से बातचीत में वह कहती हैं, "यह वह समय है जब हम अपने नारीवादी परिक्षेत्र में हैं, नारीवाद के इतिहास के दौर में हैं.”
बटालियन जब अपने साथियों और अपनी दोस्तों से बातचीत करती हैं तो इस बात पर खास जोर देती हैं कि "हम इन विरासतों के बारे में जानने के लिए इतने उत्साहित हैं कि हम इससे आते हैं. महिलाओं के लिए यह जानना बहुत ही रोमांचक है कि हमारे पूर्वजों ने यही किया है. महिलाएं अब बहुत कुछ हासिल कर रही हैं.”
उनके मुताबिक, इस किताब के छपने तक में महिलाओं का काफी योगदान है. वो कहती हैं, "मैं एक इतिहासकार हूं. मैं एक महिला हूं. मेरी कई पीढ़ियां नहीं रही हैं. मेरी संपादक भी महिला हैं जिन्होंने इस प्रोजेक्ट को कमीशन किया है, जो इसके लिए पैसा दे रही हैं वो भी महिला हैं और मेरी एजेंट भी एक महिला है. मैं कह नहीं सकती कि 25 साल पहले भी ऐसा संभव हो सकता था क्या.”
तस्वीरों मेंः बर्लिन के म्यूजियम
बर्लिन के सबसे लोकप्रिय म्यूजियम
जर्मन राजधानी बर्लिन जाने वाले पर्यटक कहां जाना सबसे ज्यादा पसंद करते हैं. सिटी स्टेट बर्लिन में 200 से भी ज्यादा म्यूजियम, मेमोरियल और प्रदर्शनियां हैं लेकिन उनमें भी ये हैं टॉप 10.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Wolfram Steinberg
द टोपोग्राफी ऑफ टेरर
बीते कई सालों से यह नाजी डॉक्यूमेंटेशन सेंटर बर्लिन का सबसे ज्यादा देखा जाने वाला मेमोरियल बना हुआ है. केवल 2018 में ही 13 लाख से अधिक लोग यहां पहुंचे. सन 1933 से 1945 के बीच नाजी आतंक के प्रमुख संगठन गेस्टापो और एसएस यहीं स्थित थे.
तस्वीर: DW/M. Lenz
बर्लिन वॉल मेमोरियल
कहां खड़ी थी बर्लिन की दीवार? सन 1961 से 1989 तक बर्लिन के लोग इस विभाजित शहर में कैसे रहे? बर्लिन वॉल मेमोरियल में यही सब जानने और देखने के लिए 2018 में करीब 11 लाख लोग पहुंचे. इस दीवार को पार करने की कोशिश करने वालों के दुखद अंत के बारे में भी लोग जान पाते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Gambarini
पेरगामॉन म्यूजियम
प्राचीन इस्लामिक और मध्यपूर्व का खजाना समेटे पेरगामॉन म्यूजियम को देखने सन 2018 में 780,000 से भी ज्यादा पर्यटक पहुंचे. इमारत के केंद्र में रखी पेरगामॉन की बेदी और दूसरे आकर्षणों के कारण यह बर्लिन की तीसरा सबसे लोकप्रिय म्यूजियम है. यह म्यूजियम दुनिया के सात प्राचीन अजूबों में शामिल बेबीलोन की झलक भी समेटे हुए है.
तस्वीर: picture-alliance/360-Berlin/J. Knappe
जर्मन हिस्ट्री म्यूजियम
जर्मन इतिहास के 2000 सालों के साक्ष्यों को प्रस्तुत करने वाले जर्मन हिस्ट्री म्यूजियम में काफी लोगों को दिलचस्पी है. यही कारण है कि बीते साल करीब 7,75,000 पर्यटक इसे देखने पहुंचे. शार्लेमाग्ने के लूथर की थीसिस पर कब्जा करने से लेकर जर्मन एकीकरण के समय की 10 लाख से भी अधिक चीजें यहां हैं लेकिन एक समय में करीब 7,000 चीजें ही प्रदर्शित की जाती हैं.
तस्वीर: Horst Rudel
नॉयस म्यूजियम (न्यू म्यूजियम)
मिस्र की रहस्यमयी रानी नेफरटीटी का वक्ष कला की दुनिया का एक बेशकीमती रत्न है. उसे इसी संग्रहालय में रखा गया है. बर्लिन के म्यूजियम आईलैंड कहे जाने वाले इलाके में स्थित इस संग्रहालय में इसके अलावा भी फराओ के समय और पाषाण व कांस्य युग की चीजें भी सहेजी गई हैं.
तस्वीर: picture-alliance/U. Baumgarten
नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम
पूरे विश्व में पाया गया अब तक का सबसे बड़ा डायनासोर का कंकाल ब्रांकियोसॉरस यहीं रखा है. इसकी ऊंचाई है 13.27 मीटर (43.5 फीट) और हर साल आने वाले करीब 734,000 पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षण यही होता है. सन 1810 में यह बर्लिन विश्वविद्यालय के एक हिस्से के रूप में शुरु हुआ था और आज करीब 3 करोड़ वस्तुएं हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/B. Settnik
यहूदी म्यूजियम
आर्किटेक्ट डानिएल लीबेसकिंड एक बेहद नाटकीय संरचना खड़ी करना चाहते थे. और वे ऐसा करने में सफल भी रहे. ऊपर से देखने पर इमारत डेविड के टूटे तारे जैसी दिखती है. यहां जर्मन-यहूदी इतिहास की 1,700 सालों की परंपरा की झलक देखी जा सकती है.
यह है रेजिन बॉम्बर, जो सम 1948-49 के दौरान सोवियत संघ के रोके जाने के बावजूद पश्चिमी एलाइड सेना (अमेरिका और ब्रिटेन) की ओर से पश्चिम बर्लिन में सप्लाई लेकर आया था. इसमें विंडमिल, शिप के अलावा दुनिया का पहला कंप्यूटर भी रखा है, जिसे कोनराड जूसे ने 1936 में बनाया था.
पूर्वी जर्मनी वाले हिस्से में लोगों का जीवन कैसा हुआ करता था, यह डीडीआर म्यूजियम में देखा जा सकता है. उस समय की कार में बैठ कर, अपार्टमेंट के भीतर जाकर और स्तासी सीक्रेट पुलिस के निगरानी कक्ष में जाकर पर्यटक इसका अनुभव कर सकते हैं.
तस्वीर: DDR Museum, Berlin 2019
शार्लोटेनबर्ग पैलेस
प्रशियन कला के नमूने समेटे हुए बर्लिन के इस म्यूजियम को देखने 2018 में ही करीब 548,000 लोग पहुंचे. यह प्रशिया की पहली रानी सोफी शार्लोटे का समर पैलेस हुआ करता था. यहां शाही रहन सहन के अंदाज देख जा सकते हैं. (केर्स्टिन श्मिट/आरपी)
तस्वीर: Fotolia/chaya1
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आभार जताना
इन तमाम महिलाओं के कठिन परिश्रम की वजह से द लाइट ऑफ डेज न्यू यॉर्क टाइम्स और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के अनुसार पहले ही बेस्ट सेलर किताब बन चुकी है, डाइरेक्टर स्टीवन स्पीलबर्ग ने इस पर फिल्म बनाने की अनुमति ले ली है और कई अन्य फिल्म निर्माता और नाटककारों ने डॉक्यूमेंटरी इत्यादि बनाने में दिलचस्पी दिखाई है.
बटालियन के लिए यह बहुत ही संतोषजनक क्षण है, फिर भी डीडब्ल्यू से बातचीत में वो काफी विनम्र दिखती हैं. वह कहती हैं, "मुझे उम्मीद है कि यह कहानी अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुंचेगी.”
उनके लिए किताब लिखने का क्या मतलब है? अपने करीब तीस मिनट के इंटरव्यू में अब तक हर सवाल का तुरंत जवाब देने वाली बटालियन इस सवाल को सुनकर कुछ क्षणों के लिए खामोश हो जाती हैं, वह दूर तक देखती हैं और एक सन्नाटा सा छा जाता है.
और आखिर में वह कहती हैं, "मुझे ऐसा लगा जैसे मुझे कुछ करना है.” वह जो सोच रही हैं उसका स्पष्ट अर्थ है कि यह उनके बारे में नहीं है, "मैं इस तरह के विस्तृत विवरण इकट्ठा करने के लिए रेनिया की आभारी हूं जिसने मुझे कहानी बताने में सक्षम बनाया. मैंने तो बस वही किया जो मुझे लगा कि मुझे करना है.”