16 साल की उम्र में हत्या का आरोप तो वयस्क के रूप में मुकदमा
१८ अक्टूबर २०२२
गुरुग्राम में 16 साल की उम्र में अपराध करने के आरोपी पर वयस्क के रूप में मुकदमा चलाया जाएगा. उधर ऑस्ट्रेलिया में एक राज्य बाल अपराध की आयु सीमा बढ़ा रहा है.
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गुरुग्राम में 2017 में अपने स्कूल में सहपाठी की हत्या के आरोपी एक युवक पर वयस्क के तौर पर मुकदमा चलाया जाएगा. अपने फैसले को ना बदलते हुए जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने सोमवार को कहा कि सितंबर 2017 में यह किशोर 16 साल का था और उस पर वयस्क के रूप में ही मुकदमा चलना चाहिए.
पहले हाई कोर्ट और उसके बाद 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने भी यही कहा था कि इस किशोर पर मुकदमा वयस्क के रूप में चले या नहीं, इसका फैसला जुवेजाइनल जस्टिस बोर्ड को करना है. बोर्ड ने अपने पहले फैसले को बरकरार रखते हुए इस युवक को वयस्क मुल्जिम माना.
कानून से अनाथ बच्चों की भलाई
जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में कई अहम संशोधन किए गए हैं. सरकार का कहना है कि इन संशोधनों से बच्चा गोद लेना आसान होगा और उनकी सुरक्षा भी बढ़ेगी. इस विधेयक में बाल संरक्षण को मजबूत करने के उपाय भी हैं.
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गोद लेने की प्रक्रिया आसान
किशोर न्याय अधिनियम, 2015 में संशोधन करने के लिए किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2021 राज्यसभा में पारित हो चुका है और यह जल्द ही कानून बन जाएगा. इस कानून के तहत बच्चों के गोद लेने की प्रक्रिया आसान बनाई जा रही है.
सरकार का कहना है कि किशोर न्याय अधिनियम, 2015 में संशोधन से कानून मजबूत होगा और बच्चों की सुरक्षा बेहतर ढंग से होगी.
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अनाथ बच्चों का कल्याण
सरकार का कहना है कि यह एक बेहतर कानून है जिससे अनाथ बच्चों को कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिलना सुनिश्चित किया जा सकता है. कानून के प्रभावी तरीके से लागू होने से अनाथ बच्चों को शोषण से बचाया जा सकता है.
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किशोर अपराध से जुड़े मामले जल्द निपटेंगे
संशोधित कानून में एक अहम बदलाव ऐसे अपराध से जुड़ा है जिसमें भारतीय दंड संहिता में न्यूनतम सजा तय नहीं है. 2015 में पहली बार अपराधों को तीन श्रेणियों में बांटा गया-छोटे, गंभीर और जघन्य अपराध. तब ऐसे केसों के बारे में कुछ नहीं बताया गया था जिनमें न्यूनतम सजा तय नहीं है. संशोधन प्रस्तावों के कानून बन जाने से किशोर अपराध से जुड़े मामले जल्द निपटेंगे.
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बाल कल्याण समिति
संशोधन प्रस्तावों में बाल कल्याण समितियों (सीडब्ल्यूसी) को ज्यादा ताकत दी गई है. इससे बच्चों का बेहतर संरक्षण करने में मदद मिलेगी. एक्ट में प्रावधान है कि अगर बाल कल्याण समिति यह निष्कर्ष देती है कि कोई बच्चा, देखरेख और संरक्षण की जरूरत वाला बच्चा नहीं है, तो समिति के इस आदेश के खिलाफ कोई अपील नहीं की जा सकती है. बिल इस प्रावधान को हटाता है.
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बढ़ेगी जवाबदेही, तेजी से होगा निस्तारण
संशोधन विधेयक में बच्चों से जुड़े मामलों का तेजी से निस्तारण सुनिश्चित करने और जवाबदेही बढ़ाने के लिए जिला मजिस्ट्रेट व अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट को ज्यादा शक्तियां देकर सशक्त बनाया गया है. इन संशोधनों में अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट समेत जिला मजिस्ट्रेट को जेजे अधिनियम की धारा 61 के तहत गोद लेने के आदेश जारी करने के लिए अधिकृत करना शामिल है.
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और भी बदलाव
विधेयक में सीडब्ल्यूसी सदस्यों की नियुक्ति के लिए पात्रता मानकों को फिर से परिभाषित किया गया है. सीडब्ल्यूसी सदस्यों की अयोग्यता के मानदंड भी यह सुनिश्चित करने के लिए पेश किए गए हैं कि, केवल आवश्यक योग्यता और सत्यनिष्ठा के साथ गुणवत्तापूर्ण सेवा देने वालों को ही सीडब्ल्यूसी में नियुक्त किया जाए.
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बदलाव की जरूरत क्यों
बाल अधिकार सुरक्षा पर राष्ट्रीय आयोग ने देश भर के बाल संरक्षण गृहों का ऑडिट कर साल 2020 में रिपोर्ट दी थी. 2018-19 के इस ऑडिट में सात हजार के करीब बाल गृहों का सर्वेक्षण किया गया, ऑडिट में पाया गया कि 90 प्रतिशत संस्थानों को एनजीओ चलाते हैं और करीब 1.5 फीसदी कानून के हिसाब से काम नहीं कर रहे थे.
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पीड़ित के वकील सुशील टेकरीवाल ने मीडिया को बताया, "आज जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के प्रधान मैजिस्ट्रेट जतिन गुजराल ने मुल्जिम के पुनर्मूल्यांकन के बाद फैसला सुनाया और निर्देश दिया कि उस पर वयस्क के रूप में मुकदमा चलाया जाए."
टेकरीवाल ने कहा कि वह कोर्ट के आदेश से संतुष्ट हैं. उन्होंने कहा, "हम कोर्ट के आदेश का स्वागत करते हैं और प्रिंस के लिए न्याय की लड़ाई जारी रखेंगे. एक स्पष्ट और मजबूत संदेश जाना चाहिए कि कानून का राज चलेगा और ऐसे अपराध कभी ना दोहराए जाएं. कानून को ऐसे अपराधों के रास्ते में बाधक होना चाहिए."
क्या है मामला?
यह मामला 2017 का है जब गुरुग्राम के एक स्कूल में एक बच्चे की हत्या हो गई. सीबीआई ने अपनी जांच के बाद कहा कि 11वीं के छात्र ने इसलिए बच्चे की हत्या कर दी ताकि परीक्षाएं टल जाएं और शिक्षक-अभिभावक मुलाकात रद्द हो जाए. भोंडसी इलाके में स्थित इस स्कूल में बच्चे का शव बाथरूम में मिला था. उसका गला काट दिया गया था.
तब मुल्जिम की उम्र 16 साल थी. जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने जब इस आरोपी पर वयस्क के रूप में मुकदमा चलाने का आदेश दिया तो उसके वकील ने आदेश को चुनौती दी थी.
1973 कोड ऑफ क्रिमिनिल प्रोसीजर के मुताबिक 16 वर्ष तक के किशोरों पर मुकदमा बाल न्यायालय में चलता है और किसी भी अपराध में उन्हें मौत की सजा नहीं दी जा सकती. लड़कियों के मामले में यह उम्र 18 साल है.
लेकिन इस आयु सीमा को लेकर भारत में कई बार बहस होती रही है. यह बहस तब सबसे ज्यादा तेज हुई थी जब 2012 के दिल्ली बलात्कार कांड में एक मुल्जिम किशोर था और उसे बाल अपराध न्यायालय ने तीन साल की सजा देकर छोड़ दिया था. अपराध के वक्त उसकी उम्र 18 वर्ष पूरी नहीं हुई थी, इसलिए वह अवयस्क माना गया. बाकी मुल्जिमों को मौत की सजा सुनाई गई थी.
देश जागा और फिर सो गया
दिल्ली की सड़कों पर 16 दिसंबर 2012 की रात हुए बलात्कार और हत्या के मामले ने देश भर को हिला दिया था. लेकिन हर गुजरते साल के साथ सवाल उठते रहे कि गुस्से और प्रदर्शनों के बाद क्या बदला और क्या नहीं.
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नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ट्विटर हैंडल @k_satyarthi से लिखते हैं, "निर्भया की कहानी अभी पूरी नहीं हुई है. हमारी बेटियों के साथ अभी शोषण, बलात्कार और हत्याएं हो रही हैं. क्या आप इस सब पर पूर्ण विराम लगाने के मेरे आह्वान का जवाब देंगे?"
तस्वीर: Rolf Schultes/Lindau Nobel Laureate Meetings
एक यूजर ने @Kolkata_Chhori ट्विटर हैंडल से लिखा है, "तुम हमें आज भी याद हो. हमें न्याय चाहिए, ना सिर्फ उसके लिए बल्कि सैकड़ों पीड़ित औरतों के लिए जिनके नाम नहीं हैं."
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सुधीर चौधरी @sudhirchaudhary ट्विटर हैंडल से लिखते हैं, "क्या बदला है? सिस्टम? मानसिकता? देश एक हफ्ते के लिए जागा और फिर सो गया, किसी भी औरत से पूछ लो!" लोगों का यह भी लिखना है कि क्या गारंटी है कि जुवेनाइल सुधर गया है और बाहर आकर वह समाज के लिए खतरा नहीं साबित होगा.
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एंथनी परमाल ने @anthonypermal ट्विटर हैंडल से लिखा है, "वाह! भारत, तुम अपनी मूर्खता कहीं रोक नहीं सकते, है ना?" उन्होंने ऐसा लिखते हुए नाबालिग दोषी से रिहाई पर अच्छे बर्ताव का कानूनी बॉन्ड भरवाने के गृह मंत्रालय के विचार करने पर टिप्पणी की.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Sharma
राजीव आनंद @SlayerRajiv लिखते हैं, "भारत - ऐसा देश जहां लोग हर बात आसानी से भूल जाते हैं और निंदा की कोशिश करते हैं." नाबालिग दोषी को रिहाई के बाद पुनर्वास के मकसद से दिल्ली सरकार ने सिलाई मशीन और 10 हजार रुपए देने का प्रस्ताव रखा है. इस पर भी लोगों ने भारी गुस्सा जताया.
तस्वीर: UNI
बलात्कार के समय नाबालिग रहे एक दोषी को तीन साल बाद छोड़े जाने का सोशल मीडिया पर जमकर विरोध हुआ. पीड़िता के मां-बाप ने जुवेनाइल को सबसे ज्यादा क्रूर बताते हुए उसका चेहरा सार्वजनिक करने की मांग की थी.
ऑस्ट्रेलिया के राज्य नॉर्दन टेरिटरी की सरकार अपराधिक जिम्मेदारी की आयु सीमा 10 वर्ष से बढ़ाकर 12 करने का प्रस्ताव लाई है. पिछले हफ्ते सरकार ने राज्य की विधानसभा में, जिसे संसद कहते हैं, ऐसा प्रस्ताव पेश किया. जबकि पूरे देश में यह आयु 10 वर्ष है, नॉर्दर्न टेरीटरी ने पहली बार इसे बढ़ाने का फैसला किया है.
ऑस्ट्रेलिया सहित कई देशों में बाल अपराध की आयु सीमा को बढ़ाने की मांग जोर पकड़ रही है. राज्य के अटॉर्नी जनरल शॉन्सी पेच ने कहा कि इस बात के तमाम सबूत उपलब्ध हैं कि 10-11 साल के बच्चों को अपराधिक न्याय व्यवस्था के संपर्क में लाने से उनके दोबारा अपराध करने की संभावना कम हो जाती है. उन्होंने कहा इसके उलट "इससे व्यवहारगत समस्याएं और अपराध करने की संभावनाएं बढ़ती हैं."
राज्य सरकार के इस प्रस्ताव का पुलिस एसोसिएशन ने विरोध किया है. कैथरीन टाइम्स अखबार में छपे एक लेख में नॉर्दर्न टेरीटरी पुलिस एसोसिएशन की वरिष्ठ उपाध्यक्ष लीजा बेलिस ने लिखा कि इस बदलाव से समाज ज्यादा सुरक्षित नहीं बनेगा. उन्होंने लिखा, "कोई भी बच्चों को सलाखों के पीछे नहीं देखना चाहता लेकिन समुदाय उम्मीद करता है कि गंभीर अपराधों के लिए सजा दी जाए और पीड़ितों की सुरक्षा हो."
क्या कहता है यूएन?
ऑस्ट्रेलिया दुनिया के उन देशों में से है जहां अपराधिक जिम्मेदारी की आयु सबसे कम है. वहां कुछ अपराधों में दस वर्ष के बालक को भी वयस्क के तौर पर सजा दी जा सकती है. 2019 में संयुक्त राष्ट्र की बाल अधिकार समिति ने सिफारिश की थी कि यह आयु सीमा 14 वर्ष होनी चाहिए.
भूख से सूख-सूख कर मरते बच्चे
बच्चे भूख से सूख-सूख कर मरते जा रहे हैं. मांएं रो भी नहीं पा रही हैं क्योंकि उन्हें दूसरे बच्चों को बचाने की कोशिश करते रहना है. यह सोमालिया है.
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सबसे बुरा दौर
40 साल के सबसे बुरे सूख से गुजर रहे सोमालिया में भूख से मरते बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही है. सरकार का कहना है कि स्थिति काबू से बाहर हो चुकी है.
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गांवों में बस मौत बची है
बाइदोआ शहर में लगाए गए एक कैंप में रह रहे लोग कई-कई दिन चलकर अपने गांवों से आए हैं. वे इसलिए यहां आ गए क्योंकि गांव में मौत के सिवा अब कुछ बचा नहीं है.
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गंभीर कुपोषण
हाल ही में जारी एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि विभिन्न कैंपों में रह रहे बच्चों और गर्भवती महिलाओं में से दो तिहाई गंभीर कुपोषण का शिकार हैं.
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जीवन बदल चुका है
जलवायु परिवर्तन और लगातार जारी सूखे ने सोमालिया को मौत की बस्ती में बदल दिया है. लोगों का सामान्य जीवन अब परिभाषाएं बदल रहा है.
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सब बाइदोआ जा रहे हैं
बड़ी संख्या में लोग बाइदोआ की ओर भाग रहे हैं. कुछ अनुमान हैं कि बीते महीनों में शहर की आबादी चार गुना बढ़कर आठ लाख पर पहुंच गई है.
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सूखते दुखते हलक
कैंपों में रह रहे बच्चे इस कदर सूख चुके हैं कि उनके हलक से पानी उतरना भी मुश्किल हो गया है. कुछ को न्यूमोनिया है तो कुछ खसरे से जूझ रहे हैं.
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रोने की ताकत नहीं
दुधमुंहे बच्चों में इतनी ताकत नहीं बची है कि रो सकें. कइयों की त्वचा सूखकर लगभग गायब हो चुकी है.
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किसी ने सुनी नहीं
सोमाली अधिकारी और संयुक्त राष्ट्र कई महीनों से इस भयानक आपदा की चेतावनी दे रहे थेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे लेकिन दुनिया यूक्रेन में व्यस्त है.
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इस समिति की रिपोर्ट में सभी देशों से आग्रह किया गया था कि अपराधिक जिम्मेदारी की उम्र बढ़ाकर 14 कर दें. मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल कहती है कि इस बात का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है कि कम उम्र में कड़ी सजा देने से अपराधियों के दोबार अपराध की संभावना कम हो जाती है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, "बच्चों को जेल में बंद करने से अपराध की संभावना खत्म नहीं होती. इसके बजाय उनके दोबारा अपराध की संभावना बढ़ जाती है. एक बार सजा पा चुके 94 प्रतिशत बच्चे वयस्क होने से पहले दोबारा कोर्ट पहुंच जाते हैं. जो बच्चे कम उम्र में न्याय व्यवस्था के संपर्क में आ जाते हैं उनकी शिक्षा पूरी करने की संभावना भी कम होती है."