अब भारत में भी निगरानी के लिए जीपीएस ट्रैकर का इस्तेमाल
चारु कार्तिकेय
१० नवम्बर २०२३
जमानत पर रिहा आतंकवाद के आरोपियों पर नजर रखने के लिए अब भारत में भी जीपीएस ट्रैकर एंक्लेट का इस्तेमाल किया जा रहा है. जम्मू और कश्मीर पुलिस की इस पहल पर कई सवाल उठ रहे हैं.
श्रीनगर जेलतस्वीर: Tauseef/AFP
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जम्मू और कश्मीर पुलिस ने यह ट्रैकर आतंकवाद के एक मामले में आरोपों का सामना कर रहे गुलाम मोहम्मद भट्ट के टखनों पर लगाया है. उनके खिलाफ आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन के साथ संबंधित होने के और आतंकवादी गतिविधियों के लिए पैसों का इंतजाम करने के आरोपों को लेकर मुकदमा चल रहा है.
भट्ट के खिलाफ यूएपीए की कई धाराओं के तहत आरोप लगाए गए हैं. उन्होंने जमानत की अर्जी दी थी लेकिन चूंकि वो लंबित थी तो इस बीच उन्होंने अंतरिम जमानत की अर्जी दायर कर दी. जम्मू स्थित स्पेशल एनआईए अदालत ने इसी अर्जी को मानते हुए उन्हें अंतरिम जमानत तो दे दी लेकिन उनकी निगरानी पर भी जोर दिया.
कैसे काम करता है ट्रैकर
पुलिस की तरफ से अभियोजन पक्ष ने दलील दी की यह आतंकवाद का मामला है और इसलिए आरोपी की करीब से निगरानी की जरूरत है. इसके अलावा अदालत को यह भी बताया गया कि यूएपीए के तहत जमानत की शर्तें काफी कड़ी हैं.
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अंत में अदालत ने पुलिस को आदेश दिया कि वो आरोपी के टखनों में जीपीएस ट्रैकर लगा दे और उसे अंतरिम जमानत पर रिहा कर दे. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक इस ट्रैकर को आरोपी को हर वक्त पहने रहना होगा और अगर इसे काटने की कोशिश की जाएगी तो उससे एक अलार्म बजेगा और पुलिस को सूचना मिल जाएगी.
यह पहली बार है जब भारत में आरोपियों की निगरानी के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है. दुनिया में कई देशों में इसका इस्तेमाल किया जाता है. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक अमेरिका, ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में किया जा रहा है.
तकनीक पर सवाल
मानवाधिकारों के सवालों के अलावा इस तकनीक की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठते रहे हैं. भारत की नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी की साक्षी जैन ने हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक लेख में लिखा है कि इस टेक्नोलॉजी में कई खामियां हैं.
उनका कहना है कि दुनिया में कई जगह देखने में आया है कि इस तरह की ट्रैकरों में लगी टेक्नोलॉजी निरंतर काम नहीं करती और अक्सर सिग्नल टूट जाता है. बुरे सिग्नल की वजह से कई बार ट्रैकर झूठे अलार्म भी बजा देते हैं.
सवाल यह भी उठता है कि भारतीय कानून में जमानत पर रिहा आरोपियों की इस तरह की ट्रैकिंग की स्पष्ट अनुमति है भी या नहीं. लेकिन जानकारों का कहना है कि अदालतों के आदेश पर पुलिस इस ट्रैकर का इस्तेमाल कर सकती है.
किताबें पढ़कर इस देश में सजा कम करा सकते हैं कैदी
बोलीविया की भीड़भाड़ वाली जेलों में कैदी अब किताबें पढ़कर अपनी सजा कम करा सकते हैं. यह कार्यक्रम ब्राजील में चलाए गए ऐसे ही एक कार्यक्रम से प्रभावित है. कार्यक्रम का एक और उद्देश्य साक्षरता बढ़ाना भी है.
तस्वीर: Claudia Morales/REUTERS
ब्राजील से सीख
दक्षिण अमेरिकी देश ब्राजील में मुकदमे की लंबी अवधि के कारण कई कैदियों को दशकों तक जेल में ही अपना जीवन बिताना पड़ता है. देश की एक जेल ने उनके कारावास को 'सार्थक' बनाने के लिए किताबें पढ़ने की व्यवस्था की.
तस्वीर: Felipe Dana/AP Photo/picture-alliance
"सलाखों के पीछे किताबें"
बोलीविया सरकार का कार्यक्रम "बुक्स बिहाइंड बार्स" कैदियों को उनकी रिहाई की तारीख से कुछ दिन या सप्ताह पहले जेल से बाहर निकलने का मौका देता है. बोलीविया में आजीवन कारावास या मृत्युदंड नहीं है, लेकिन धीमी न्यायिक प्रणाली के कारण सुनवाई कई सालों तक चलती है.
तस्वीर: Claudia Morales/REUTERS
कार्यक्रम से आकर्षित हुए कैदी
बोलीविया के लोकपाल कार्यालय का कहना है कि यह कार्यक्रम 47 जेलों में शुरू किया गया है. ये जेल वैसे हैं जिनके पास कैदियों के लिए शिक्षा या सामाजिक सहायता कार्यक्रमों के लिए भुगतान करने के लिए संसाधन नहीं हैं. अब तक 865 कैदी पढ़ने और लिखने की अपनी आदत में सुधार ला चुके हैं.
तस्वीर: Claudia Morales/REUTERS
पढ़ने का इनाम
उन कैदियों में से एक जैकलीन ने इस कार्यक्रम के तहत एक साल के भीतर आठ किताबें पढ़ ली. उन्होंने पढ़ाई की चार परीक्षा भी पास कर ली. जैकलीन कहती हैं, "हमारे जैसे लोगों के लिए यह वास्तव में बहुत मुश्किल है जिनके पास कोई आय नहीं है और जिनका बाहर परिवार नहीं है."
तस्वीर: Claudia Morales/REUTERS
नई जिंदगी
लोकपाल कार्यालय की नादिया क्रूज कहती हैं इस कार्यक्रम का मकसद सुनवाई का इंतजार कर रहे कैदियों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना है. क्रूज कहती हैं, "यह महत्वपूर्ण है क्योंकि सजा में जो कटौती की जाती वह अपेक्षाकृत कम होती है (कुछ घंटे या दिन). यह इस बात पर निर्भर करता है कि बोर्ड क्या फैसला करता है."
तस्वीर: Claudia Morales/REUTERS
भीड़ है जेलों की समस्या
मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि देश की जेलों में संख्या से अधिक कैदी बंद हैं और कई बार कैदी स्वच्छता की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन भी करते हैं. इन सब मुश्किलों के बीच पढ़ना लिखना कैदियों के लिए जेल से बाहर निकलने का आसान रास्ता हो सकता है.