लीबिया के तानाशाह मुआम्मर गद्दाफी की 20 अक्टूबर 2011 को हत्या कर दी गई थी. इस घटना को एक दशक बीत चुका है, लेकिन लीबिया अभी तक संघर्ष, अराजकता और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से बाहर नहीं निकला है.
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नेशनल ट्रांजिशनल काउंसिल (एनटीसी) के प्रवक्ता अब्दुल हफीज घोघा ने 20 अक्टूबर 2011 को ऐलान किया, "हम दुनिया को बताना चाहते हैं कि गद्दाफी क्रांति में मारा गया है. दमन और तानाशाही खत्म हो गई है."
फरवरी 2011 में पड़ोसी देश ट्यूनीशिया में क्रांति से प्रेरित लीबिया के लोग तानाशाह मुआम्मर गद्दाफी के खिलाफ उठ खड़े हुए, जो 1969 के विद्रोह का नेतृत्व करने के बाद सत्ता में आए थे.
संयुक्त राष्ट्र ने मार्च में नागरिकों को तानाशाही से बचाने के लिए एक सैन्य अभियान को मंजूरी दी थी. नाटो ने लीबिया की तानाशाही ताकतों को कमजोर करते हुए गद्दाफी की सेना पर हमले शुरू किए थे.
एक खूनी अंत
गद्दाफी राजधानी त्रिपोली से भाग गए. महीनों तक छिपने के बाद त्रिपोली से 450 किलोमीटर पूर्व में सिर्ते शहर में उनका ठिकाना खोजा गया. आखिरकार "क्रांतिकारी नेता" को तब पकड़ लिया गया जब उन्होंने एक सीवर से भागने की कोशिश की. विद्रोहियों ने उन्हें उसी समय बहुत हिंसक तरीके से मार डाला उनके खून से लथपथ शरीर की तस्वीरें पूरी दुनिया में प्रसारित की गईं.
हैम्बर्ग स्थित मध्य पूर्व अध्ययन संस्थान में लीबिया मामलों की विशेषज्ञ हजर अली कहती हैं कि गद्दाफी की सरकार के खिलाफ विद्रोह की शुरुआत के बाद से खाद्य कीमतों में तेजी से वृद्धि हुई है और युवाओं बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है. लोग शुरू से ही लोकतंत्र और मानवाधिकारों की मांग करते आए हैं. हजर अली का कहना है कि लीबिया के लोग मानवाधिकारों के हनन की जांच देखना चाहते थे, जैसे कि त्रिपोली की अबू सलीम जेल में 1996 का नरसंहार. इस घटना में 1,200 से 1,700 कैदी मारे गए थे.
लीबिया के लोग एक नई सुबह के बारे में आशावादी थे, हालांकि कुछ पर्यवेक्षकों ने उन्हें सतर्क रहने की सलाह दी थी. संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने उस वक्त कहा था, "आने वाले दिन लीबिया और उसके लोगों के लिए बहुत कठिन और चुनौतीपूर्ण होंगे. अब लीबिया के लोगों के एकजुट होने का समय है. राष्ट्रीय एकता और मेल-मिलाप से ही लीबिया के लोगों का भविष्य बेहतर हो सकता है."
हालांकि यह केवल एक प्रशंसा थी, क्योंकि सार्वजनिक आक्रोश और तनाव 2014 में गृहयुद्ध में बदल गए. हजर अली का कहना है कि इस स्थिति के लिए काफी हद तक गद्दाफी खुद जिम्मेदार थे. उन्होंने लीबिया के सैन्य कर्मियों को सत्ता से बाहर रखा और उनकी रक्षा के लिए विदेशी सैनिकों को नियुक्त किया. वे कहती हैं, "इस रणनीति के कारण, लोग प्रतिद्वंद्वी बन गए और तानाशाह की मृत्यु के बाद वर्षों तक यह प्रवृत्ति जारी रही."
विद्रोह के दौरान विभिन्न समूहों ने गद्दाफी को बाहर करने के लिए एक अल्पकालिक गठबंधन बनाया लेकिन गद्दाफी के पतन के साथ ही गठबंधन बिखर गया. ऐसी कोई राजनीतिक स्थिति नहीं थी जहां लोग अपने मतभेदों को सुलझा सकें और एक साथ बैठ सकें. अली कहती हैं, "इस दौरान कई चुनाव हुए लेकिन राष्ट्रीय एकता के निर्माण में कोई सफलता नहीं मिली."
इंसानी इतिहास के सबसे क्रूर तानाशाह
हर चीज को अपने मुताबिक करवाने की सनक, ताकत और अतिमहत्वाकांक्षा का मिश्रण धरती को नर्क बना सकता है. एक नजर ऐसे तानाशाहों पर जिनकी सनक ने लाखों लोगों की जान ली.
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1. माओ त्से तुंग
आधुनिक चीन की नींव रखने वाले माओ त्से तुंग के हाथ अपने ही लोगों के खून से रंगे थे. 1958 में सोवियत संघ का आर्थिक मॉडल चुराकर माओ ने विकास का नारा दिया. माओ की सनक ने 4.5 करोड़ लोगों की जान ली. 10 साल बाद माओ ने सांस्कृतिक क्रांति का नारा दिया और फिर 3 करोड़ लोगों की जान ली.
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2. अडोल्फ हिटलर
जर्मनी के नाजी तानाशाह अडोल्फ हिटलर के अपराधों की लिस्ट बहुत ही लंबी है. हिटलर ने 1.1 करोड़ लोगों की हत्या का आदेश दिया. उनमें से 60 लाख यहूदी थे. उसने दुनिया को दूसरे विश्वयुद्ध में भी धकेला. लड़ाई में 7 करोड़ जानें गई. युद्ध के अंत में पकड़े जाने के डर से हिटलर ने खुदकुशी कर ली.
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3. जोसेफ स्टालिन
सोवियत संघ के संस्थापकों में से एक व्लादिमीर लेनिन के मुताबिक जोसेफ स्टालिन रुखे स्वभाव का शख्स था. लेनिन की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के बाद सोवियत संघ की कमान संभालने वाले स्टालिन ने जर्मनी को हराकर दूसरे विश्वयुद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई. लेकिन स्टालिन ने अपने हर विरोधी को मौत के घाट भी उतारा. स्टालिन के 31 साल के राज में 2 करोड़ लोग मारे गए.
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4. पोल पॉट
कंबोडिया में खमेर रूज आंदोलन के नेता पोल पॉट ने सत्ता में आने के बाद चार साल के भीतर 10 लाख लोगों को मौत के मुंह में धकेला. ज्यादातर पीड़ित श्रम शिविरों में भूख से या जेल में यातनाओं के चलते मारे गए. हजारों की हत्या की गई. 1998 तक कंबोडिया के जंगलों में पोल पॉट के गुरिल्ला मौजूद थे.
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5. सद्दाम हुसैन
इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन की कुर्द समुदाय के प्रति नफरत किसी से छुपी नहीं थी. 1979 से 2003 के बीच इराक में 3,00,000 कुर्द मारे गए. सद्दाम पर रासायनिक हथियारों का प्रयोग करने के आरोप भी लगे. इराक पर अमेरिकी हमले के बाद सद्दाम हुसैन को पकड़ा गया और 2006 में फांसी दी गई.
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6. ईदी अमीन
सात साल तक युगांडा की सत्ता संभालने वाले ईदी अमीन ने 2,50,000 से ज्यादा लोगों को मरवाया. ईदी अमीन ने नस्ली सफाये, हत्याओं और यातनाओं का दौर चलाया. यही वजह है कि ईदी अमीन को युगांडा का बूचड़ भी कहा जाता है. पद छोड़ने के बाद ईदी अमीन भागकर सऊदी अरब गया. वहां मौत तक उसने विलासिता भरी जिंदगी जी.
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7. मेनगिस्तु हाइले मरियम
इथियोपिया के कम्युनिस्ट तानाशाह से अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ लाल आतंक अभियान छेड़ा. 1977 से 1978 के बीच ही उसने करीब 5,00,000 लाख लोगों की हत्या करवाई. 2006 में इथियोपिया ने उसे जनसंहार का दोषी करार देते हुए मौत की सजा सुनाई. मरियम भागकर जिम्बाब्वे चला गया.
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8. किम जोंग इल
इन सभी तानाशाहों में सिर्फ किम जोंग इल ही ऐसे हैं जिन्हे लाखों लोगों को मारने के बाद भी उत्तर कोरिया में भगवान सा माना जाता है. इल के कार्यकाल में 25 लाख लोग गरीबी और कुपोषण से मारे गए. इल ने लोगों पर ध्यान देने के बजाए सिर्फ सेना को चमकाया.
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9. मुअम्मर गद्दाफी
मुअम्मर गद्दाफी ने 40 साल से ज्यादा समय तक लीबिया का शासन चलाया. तख्तापलट कर सत्ता प्राप्त करने वाले गद्दाफी के तानाशाही के किस्से मशहूर हैं. गद्दाफी पर हजारों लोगों को मौत के घाट उतारने और सैकड़ों औरतों से बलात्कार और यौन शोषण के आरोप हैं. 2011 में लीबिया में गद्दाफी के विरोध में चले लोकतंत्र समर्थक आंदोलनों में गद्दाफी की मौत हो गई.
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10. फ्रांकोइस डुवेलियर
1957 में हैती की कमान संभालने वाला डुवेलियर भी एक क्रूर तानाशाह था. डुवेलियर ने अपने हजारों विरोधियों को मरवा दिया. वो अपने विरोधियों को काले जादू से मारने का दावा करता था. हैती में उसे पापा डुवेलियर के नाम से जाना जाता था. 1971 में उसकी मौत हो गई. फिर डुवेलियर का बेटा भी हैती का तानाशाह बना.
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एक असफल देश
देश की सत्ता बिखर गई और जल्द ही दो सरकारें बन गईं. एक त्रिपोली में और दूसरा तब्रुक के पूर्वी हिस्से में. अपने खुद के हितों को पूरा करने के लिए, कई अन्य देशों ने भी गृहयुद्ध में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया. इनमें रूस, तुर्की, मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात शामिल थे. पैसे के लिए दूसरे देशों के लिए काम करने वाले सशस्त्र समूह अभी भी इस देश में मौजूद हैं.
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोवान ने भूमध्यसागरीय क्षेत्र में गैस के भंडार के लिए तुर्की के दावे पर जोर देने के प्रयास में तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त फैज अल-सिराज सरकार के साथ गठबंधन किया है. मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात ने तब्रुक में कथित निर्वासित सरकार का समर्थन किया है, जिसका संबंध मिलिशिया कमांडर खलीफा हफ्तार से है. मिस्र को उम्मीद थी कि ऐसा करने से लीबिया को इस्लामवादी ताकतों, खासकर मुस्लिम ब्रदरहुड के चंगुल से खुद को आजाद करने में मदद मिलेगी. .
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लीबिया को स्थिरता कैसे मिले
गृहयुद्ध को समाप्त करने और लीबिया को स्थिर करने के लिए कई कदम उठाए गए हैं. कई संयुक्त राष्ट्र विशेष दूतों ने युद्धरत पक्षों को वार्ता की मेज पर लाने की कोशिश की. आखिरी बार जर्मनी में 2020 और 2021 में लीबिया कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया गया.
फरवरी में के लोग अब्दुल हमीद दाबीबा को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाने के लिए सहमत हुए. उन्हें दिसंबर में राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव कराने का काम सौंपा गया था. लेकिन अब संसदीय चुनाव एक और महीने के लिए टाल दिया गया है.
मिस्र की अरब वसंत क्रांति के चेहरे अब कहां हैं
मिस्र में अरब वसंत की क्रांति के 10 साल बाद क्रांति के अगुआ और प्रदर्शनों का चेहरा रहे ज्यादातर लोगों का या तो भ्रम टूट चुका है या फिर वो जेल में हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
टूट गया भ्रम
वाएल गोनिम दुबई में थे और वहीं से उन्होंने फेसबुक पर "वी आर ऑल खालिद सईद" बनाया. सईद को पुलिस ने इतना मारा था कि उनकी मौत हो गई और गोनिम उन्हें जानते थे. जनवरी में मिस्र में हुए प्रदर्शनों के पीछे इस फेसबुक पेज की भी भूमिका थी. 2014 से गोनिम अमेरिका में रह रहे हैं. अब 40 साल के हो चुके गोनिम की कमेंट्री से पता चलता है कि वो मिस्र की स्थिति से निराश हैं और उनकी उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं.
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अनिश्चित हिरासत
मानवाधिकार मामलों की वकील माहिनूर अल मासरी सईद की मौत पर प्रदर्शन करने वालों में सबसे पहली थीं. अब 35 साल की हो चुकीं माहिनूर को कई बार और कई सालों के लिए जेल में डाला गया. 2019 में उन्हें फिर से तब गिरफ्तार किया गया जब वो हिरासत में लिए गए लोगों का बचाव करने अभियोजक के दफ्तर गईं. आज तक उनके केस की सुनवाई नहीं हुई है और वह जेल में ही हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच ने इसे "आर्बिट्रैरी डिटेंशन" कहा है.
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मारपीट और जेल
अला अब्देल फतेह और उनकी पत्नी ने 2004 में स्थानीय गतिविधियों का समर्थन करने के लिए एक ब्लॉग बनाया. उसके बाद से उनकी कई बार गिरफ्तारी हो चुकी है. पांच साल जेल में रहने के बाद 2019 में उन्हें रिहा किया गया. सितंबर में उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया और तब से वो जेल में ही हैं. एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक वो और उनके वकील को जेल के भीतर प्रताड़ित किया जाता है.
तस्वीर: CC BY-SA 2.5/Common Good
पैरोल पर रिहा
अहमद माहेर अप्रैल 6 क्रांति के सहसंस्थापक थे. यह अभियान 2008 में फेसबुक पर मिस्र के मजदूरों के समर्थन में शुरू हुआ जिन्होंने इस दिन हड़ताल की योजना बनाई थी. इस अभियान ने जनवरी 2011 के विरोध प्रदर्शनों में मदद की. उन्हें भी कई बार गिरफ्तार किया गया. 2-13 के आखिर में उन्हें तीन और साल के लिए सजा सुनाई गई और 2017 में उन्हें छोड़ा गया. 6 अप्रैल क्रांति पर 2014 में प्रतिबंध लगा दिया गया.
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नोबेल के लिए नामांकित कैदी
इसरा अब्देल फतेह को प्रदर्शनों के दौर में लाइव ब्रॉडकास्ट के लिए मिस्र की "फेसबुक गर्ल" कहा जाता है. 2011 में उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित भी किया गया. उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया और उन्होंने राजनीति से खुद को अलग कर लिया लेकिन अक्टूबर 2019 में उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया. उनकी रिहाई के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मांग उठने के बावजूद 43 साल की इसरा आज भी जेल में हैं.
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हर किसी ने गिरफ्तार किया
अहमद डूमा 25 जनवरी 2011 को काहिरा में शुरू हुए प्रदर्शनों में सबसे पहले शामिल होने वालों में थे. मिस्र में वो इस बात के लिए कुख्यात हैं कि उन्हें हर प्रशासन ने गिरफ्तार किया है. 2019 में उन्हें अधिकतम सुरक्षा वाली जेल में 15 साल कैद की सजा हुई और 335,000 डॉलर का जुर्माना हुआ. उन्हें दूसरी चीजों के साथ ही सेना के खिलाफ बल प्रयोग का दोषी माना गया. अब 32 साल के हो चुके डूमा जेल में हैं.
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परिवार पर ध्यान
25 जनवरी को विरोध प्रदर्शन शुरू होने से पहले असमा महफूज ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो डाल कर लोगों से प्रदर्शन में शामिल होने को कहा. इसे लाखों लोगों ने देखा और बहुत से लोगों को इससे प्रेरणा मिली. महफूज को जेल में तो नहीं डाला गया लेकिन मिस्र के बाहर उनकी यात्रा पर रोक लगा दी गई. 35 साल की अकेली मां का अब पूरा ध्यान अपने दो बच्चों पर रहता है और राजनीतिक विवादों से उन्होंने खुद को दूर कर लिया है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
जेल में बेहाल
53 साल के मोहम्मद अल बेलतागी मुस्लिम ब्रदरहुड के वरिष्ठ सदस्य हैं. ताकतवर इस्लामी गुट ब्रदरहुड की पार्टी को जब 2012 के चुनावों में जीत मिली तो वो सरकार का हिस्सा बने. 2013 में सेना के सत्ता पर नियंत्रण के बाद उन्हें उम्रकैद हो गई और आज भी वो जेल में हैं. 2019 में उनके परिवार ने बताया कि उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया है. इस हफ्ते मिस्र के अधिकारियों ने कथित रूप से उनकी संपत्ति जब्त कर ली है.
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ऑस्ट्रिया में रह कर आंदोलन
78 साल के मोहम्मद अल बरदेई ने 1964 में मिस्र की राजनयिक सेवा में करियर की शुरुआत की और ज्यादातर वक्त देश के बाहर बिताया. 2011 में वो वतन लौटे. अल बरदेइ ने कई विपक्षी दलों में अहम भूमिका निभाई और 2013 में मिस्र के अंतरिम राष्ट्रपति भी बने. हालांकि एक महीने बाद ही 500 मोरसी समर्थकों के नरसंहार के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया. इसके तुरंत बाद ही वो वियना वापस चले गए.