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इतिहासअफ्रीका

20वीं सदी का चिड़ियाघर जहां होती थी इंसानों की नुमाइश

१४ जनवरी २०२२

20वीं सदी तक दुनिया के कई देशों में ‘काले लोगों’ की प्रदर्शनी लगाई जाती थी. उन्हें जानवरों की तरह चिड़ियाघर में रखा जाता था. हाल के दिनों में आयोजित दो प्रदर्शनियों ने इस क्रूर औपनिवेशिक इतिहास की झलक दिखाई है.

बेल्जियम में लगने वाले मानव चिड़ियाघर की तस्वीरतस्वीर: Groupe de recherche Achac/priv. coll.

बेल्जियम के उपनिवेश कांगो की 267 महिलाओं और पुरुषों को ब्रुसेल्स के उपनगर टर्वुरेन में एक बड़े पार्क के पीछे कहीं रखा गया था. उन्हें इंसानों की तरह नहीं, बल्कि ऐसे रखा गया था जैसे वे किसी चिड़ियाघर में थे. इन लोगों को किंग लियोपोल्ड द्वितीय के कहने पर बेल्जियम लाया गया था. उन्हें यूरोपीय जनता के सामने प्रदर्शनी के तौर पर दिखाने के लिए नकली ‘कांगो गांव' बसाया गया. यहां फूस की छत वाली झोपड़ियां बनी थी. इन्हीं झोपड़ियों में ये रहते थे. 1897 के विश्व मेले में हर दिन 40 हजार लोग इन्हें देखने आते थे.

मेला समाप्त होने तक इनमें से सात लोगों की मौत हो गई थी. इनके सम्मान में 19वीं सदी के अंत में औपनिवेशिक संग्रहालय बनाया गया जिसे अफ्रीका म्यूजियम टर्वुरेन नाम दिया गया. इस संग्रहालय का अब तक कई बार पुनर्निर्माण हो चुका है और इसके नाम बदले जा चुके हैं. फिलहाल, यहां विशेष प्रदर्शनी आयोजित की गई है जिसका नाम है, ‘मानव चिड़ियाघर: औपनिवेशिक प्रदर्शनियों का युग.' यह प्रदर्शनी 5 मार्च तक चलेगी.

बेल्जियम के शासक कहते थे कि वे कांगो को मानव सभ्यता सिखा रहे हैंतस्वीर: RMCA Tervuren

श्रेष्ठता का दावा

1884-1885 के बर्लिन अफ्रीका सम्मेलन में 14 यूरोपीय देशों ने महाद्वीप को आपस में बांट लिया. बेल्जियम के राजा लियोपोल्ड द्वितीय को निजी उपनिवेश के तौर पर कांगो दिया गया. यह बेल्जियम के आकार का 80 गुना क्षेत्र था. टर्वुरेन में ‘अफ्रीका पैलेस' संग्रहालय में जो प्रदर्शनी लगाई गई है उससे साफ तौर पर जाहिर होता है कि यूरोपीय अपने-आप को काफी श्रेष्ठ मानते थे.

यहां एक तस्वीर है जिसमें लियोपोल्ड दो काले बच्चों के साथ दिख रहे हैं. इस तस्वीर के नीचे लिखा है, "बेल्जियम कांगो में सभ्यता को विकसित करता है." दरअसल, बेल्जियम ने कांगो के संसाधनों का बेरहमी से इस्तेमाल किया. वहां के लोगों को मजदूरी के लिए यूरोप लाया गया और उनका शोषण किया गया.

बेल्जियम के राजा लियोपोल्ड द्वितीय (1865 - 1909)तस्वीर: belga/dpa/picture alliance

लोकप्रिय खेल

इतिहासकार, मानवविज्ञानी और ब्रुसेल्स प्रदर्शनी के तीन आयोजकों में से एक मार्टेन कॉटनियर कहते हैं कि इंसानी चिड़ियाघर ने लोगों को काफी ज्यादा आकर्षित किया. डॉयचे वेले से बात करते हुए उन्होंने कहा, "कांगो के लोगों को गुफा में रहने वाले आदि मानव की तरह दिखाया गया और ताड़ के पेड़ से बने कपड़े पहनाकर उनसे नृत्य कराया गया. उन्हें कभी भी बुद्धिजीवी, कलाकार या सामान्य लोगों के तौर पर नहीं दिखाया गया."

कॉटनियर ने कहा कि यह किसी एक क्षेत्र की बात नहीं है. यूरोप, अमेरिका, जापान और अफ्रीका में भी सभी नस्लों के लोगों की प्रदर्शनी लगाई गई. ऐसा इसलिए किया गया, ताकि स्थानीय लोग प्रदर्शनी देखने आएं, उन्हें लगे कि ये अजीब लोग कौन हैं और ‘खुद को श्रेष्ठ महसूस करें'. 

जाति का झूठा विज्ञान

यूरोपीय उपनिवेशवाद के सुनहरे दिनों में, मनोरंजन के लिए "मानव चिड़ियाघर" या अफ्रीकी, अमेरिका के मूल निवासियों और स्कैंडिनेविया के सामी जैसे समूहों की गांव-गांव में प्रदर्शनियां लगाई गईं. ये प्रदर्शनियां अधूरे ‘वैज्ञानिक' मानव शास्त्र की तर्ज पर स्थापित की गई थीं. 1903 के ‘नस्लीय प्रकार' की तस्वीरों से पता चलता है कि खुद को श्रेष्ठ जाति साबित करने की कल्पना की वजह से गैर-यूरोपीय लोगों को ‘इंसान' नहीं समझा गया.

औपनिवेशिक शक्तियां अपनी ‘सभ्य श्रेष्ठता' को लेकर आश्वस्त थीं. जर्मनी में, हैम्बर्ग स्थित पशु व्यापारी और चिड़ियाघर के संस्थापक कार्ल हेगनबेक ने मानव चिड़ियाघर को बिजनेस मॉडल में बदल दिया. मेले के मैदान में प्रदर्शनी दिखाने वाले फ्रेडरिक विल्हेम सिबॉल्ड ने 1931 तक म्युनिख में हर साल लगने वाले मेले ऑक्टोबरफेस्ट में इंसानों की प्रदर्शनी लगाई. 

नस्लीय भेदभाद को विज्ञान की तरह पेश किया जाता थातस्वीर: Priv. coll.

बर्लिन प्रदर्शनी में भी मानव चिड़ियाघर

जर्मनी में पहली औपनिवेशिक प्रदर्शनी 1896 में आयोजित की गई थी. बर्लिन में एक व्यापार प्रदर्शनी के दौरान, आयोजकों ने शहर के ट्रेप्टो डिस्ट्रिक्ट के पार्क में एक गांव की स्थापना की थी. इसे काले लोगों के लिए अपमानजनक शब्द कहा जाता था. झूठे वादे करके, जर्मन उपनिवेशों से 106 से अधिक अफ्रीकियों को बर्लिन लाया गया. यहां उन्हें सात महीने तक अजीब से दिखने वाले कपड़े पहनाकर ग्रामीणों के सामने प्रदर्शित किया गया, ताकि स्थानीय लोगों का मनोरंजन हो. उन्हें बार-बार सार्वजनिक तौर पर अपमानित भी किया गया.

ट्रेप्टो स्थित संग्रहालय में एक स्थायी प्रदर्शनी ‘त्सुरुकगेशाउट (पीछे की ओर देखना)' को अक्टूबर 2021 में फिर से खोला गया. यह प्रदर्शनी साफ तौर पर ‘काले इतिहास' पर प्रकाश डालती है. साथ ही, उन लोगों की जिंदगी के बारे में बताती है जिन्हें किसी वस्तु से भी कम आंका गया था. यह प्रदर्शनी यह भी दिखाती है कि जब ये लोग प्रदर्शन के दौरान सौंपी गई भूमिका से बाहर निकल गए, तो किस तरह से औपनिवेशिक आकाओं को अचानक भारी विरोध का सामना करना पड़ा. उदाहरण के लिए, कैमरून के क्वेले नदुम्बे ने ओपेरा ग्लास खरीदा और इसका इस्तेमाल दर्शकों को घूरने के लिए किया. 

प्रदर्शनी त्सुरुकगेशाउट या लुकिंग बैकतस्वीर: Daniela Incoronato

आज भी वही मानसिकता

कॉटनियर कहते हैं कि मानव चिड़ियाघरों की नस्लवादी अवधारणा आज भी मौजूद है. उदाहरण के लिए, गहरे रंग की चमड़ी वाले उनके सहकर्मी आज भी नौकरी या घर खोजने के दौरान इसका सामना करते हैं. श्रेष्ठता की अवधारणा पहले की तरह आज भी जारी है. ‘मैं तुमसे बेहतर हूं' की मानसिकता आज भी नहीं बदली है.

वह कहते हैं, "बच्चे पैदाइशी नस्लवादी नहीं होते. हम अपने बच्चों की परवरिश इस तरह करते हैं कि वे दूसरे लोगों को अलग-अलग नजरिए और हीन भावना से देखने लगते हैं."

रिपोर्ट: स्वेन ट्योनिगेस

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