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समाज

लॉकडाउन के बाद मानव तस्करी बढ़ने का अंदेशा

प्रभाकर मणि तिवारी
२९ मई २०२०

दो महीने से जारी लॉकडाउन की वजह से करोड़ों लोगों की आजीविका छिन गई है और इस कारण अब मानव तस्करी के मामलों में तेजी से वृद्धि का अंदेशा पैदा हो गया है.

Indien Wanderarbeiter verlassen Neu Delhi wegen der Corona Pandemie
तस्वीर: Reuters/A. Abidi

अब तक कई ऐसे मामले आ चुके हैं जिनमें खुद मां-बाप ने ही अभाव की वजह से अपने बच्चों को लावारिस छोड़ दिया है. लगातार बदतर होती परिस्थिति की वजह से बेरोजगार लोगों के आसानी से मानव तस्करों के हत्थे चढ़ने का अंदेशा बढ़ रहा है. कई मानवाधिकार संगठनों और समाजशास्त्रियों ने सरकार से अभी से इस पहलू पर ध्यान देने की अपील की है. पश्चिम बंगाल तो अकसर मानव तस्करी के मामलों में अव्वल रहता रहा है. अब कोरोना और लॉकडाउन के साथ ही चक्रवाती तूफान अम्फान की मार ने रोजगार के तमाम साधन छीन लिए हैं. ऐसे में यहां भी तस्करी बढ़ने का अंदेशा है. दूसरी ओर, इसी सप्ताह दिल्ली हाईकोर्ट ने शादी कर नेपाल ले जाई गई एक नाबालिग युवती को वापस लाने का निर्देश दिया है.

भारत मानव तस्करी के मामलों में तो पहले से ही कुख्यात रहा है. यहां साल दर साल ऐसे मामले बढ़ते ही रहे हैं. वह भी तब जब हालात सामान्य थे. लेकिन कोरोना और इसकी वजह से जारी लॉकडाउन ने करोड़ों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा कर दिया है. रोजगार की तलाश में अपना घर छोड़ कर परदेस जाने वाले लाखों मजदूर एक झटके में बेरोजगार हो गए हैं. निजी कंपनियों में नौकरी करने वाला मध्य वर्ग भी सुरक्षित नहीं है.

भारी तादाद में लोगों की नौकरियां गई हैं. मानव तस्करों के लिए यह एक मुफीद अवसर है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक 2015 में  भारत में मानव तस्करी के 6,877 मामले सामने आए थे. लेकिन 2016 में मानव तस्करी के 8,000 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए. 2017 और 2018 में भी ऐसे 10 हजार से ज्यादा मामले सामने आए थे. यह तो वैसे मामले हैं जिनकी सूचना पुलिस तक पहुंची. गैर-सरकारी संगठनों का कहना है कि खासकर ग्रामीण इलाकों में ऐसे तस्करों के चंगुल में फंसने वालों की सूचना ही पुलिस तक नहीं पहुंच पाती. ऐसे में इस आंकड़े के कई गुना ज्यादा होने का अनुमान है.

दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल में केंद्र व दिल्ली सरकार को नेपाल से एक किशोरी को वापस लाने का निर्देश दिया है. आरोप है कि किशोरी के परिवार को जानने वाले एक शादीशुदा व्यक्ति ने उससे शादी की और नेपाल लेकर चला गया. न्यायमूर्ति विपिन सांघी व न्यायमूर्ति रजनीश भटनागर की खंडपीठ ने कहा कि किशोरी को वापस लाने के लिए जल्द कदम उठाए जाएं और अभियुक्त को शीघ्र गिरफ्तार किया जाए. पीठ ने उक्त आदेश किशोरी की मां की तरफ से दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर दिया.

लॉकडाउन लागू होने के बाद से ही देश के विभिन्न राज्यों से पैदल या दूसरे साधनों से घर लौटने वाले मजदूरों की दुर्दशा की तस्वीरें देश-दुनिया में लगातार सुर्खियां बटोरती रही हैं. एक गैर-सरकारी संगठन ने अपनी रिपोर्ट में अंदेशा जताया है कि लॉकडाउन की वजह से मानव तस्करी और बंधुआ मजदूरी के मामले तेजी से बढ़ सकते हैं. दो जून की रोटी जुटाने के लिए लोग अपनी औलाद तक को खेलने-खाने की उम्र में मजदूरी करने भेज सकते हैं या फिर उनको लावारिस छोड़ सकते हैं.

यह अंदेशा निराधार नहीं है. बीते महज एक सप्ताह के दौरान माहाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में ऐसे तीन मामले सामने आए हैं जिनमें माता-पिता ने ही अपने बच्चों को लावारिस छोड़ दिया था. बाल अधिकारों के हित में काम करने वाले संगठन इसे एक खतरनाक प्रवृत्ति की शुरुआत मानते हैं. अहमदनगर के एक प्रमुख गैर-सरकारी संगठन स्नेहालय के संस्थापक गिरीश कुलकर्णी कहते हैं, "अपनी वित्तीय स्थिति की वजह से गरीब लोग बच्चों को लावारिस छोड़ रहे हैं. हो सकता है इसके लिए उनको पैसे भी मिले हों. लॉकडाउन खत्म होने के तुरंत बाद बाल विवाह, बाल तस्करी और बंधुआ मजदूरों के तौर पर बच्चों के इस्तेमाल के मामले तेजी से बढ़ सकते हैं. बच्चों की तस्करी के लिए भारत पहले से ही बदनाम रहा है."

बच्चों के हित में काम करने वाले एक अन्य संगठन के संयोजक सुधीर दत्त कहते हैं, "देश के बड़े शहरों में सड़कों पर लावारिस व बेघर बच्चों और पशुओं का नजर आना सामान्य बात है. ऐसे ज्यादातर बच्चों को या तो उनके घरवालों ने छोड़ दिया है या फिर वे घर से भाग कर आए हैं. लेकिन लॉकडाउन में फुटपाथी बच्चे कहीं नजर नहीं आ रहे हैं. यह बेहद चिंता का विषय है. सरकार के पास भी इस बारे में कोई आंकड़ा नहीं है."

हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता पड़ोसी देशों से महिलाओं की तस्करी के मामले में एक प्रमुख केंद्र के तौर पर उभरा है. हर साल हजारों ऐसे मामले सामने आते हैं जिनमें राज्य के ग्रामीण इलाकों और खासकर सुंदरबन की महिलाओं और बच्चों को तस्करी के जरिए मुंबई और पुणे भेज दिया जाता है. बाद में गैर-सरकारी संगठनों की सहायता से पुलिस ने उनमें से कुछ को बचाया भी है. 

एनसीआरबी के आंकड़ों में कहा गया है कि 2016 में 63,407, 2017 में 63,349 और 2018 में देश में 67,134 बच्चे गायब हो गए. बंगाल के मामले में यह आंकड़ा क्रमशः 8335, 8117 और 8205 था. दार्जिलिंग डिस्ट्रीक्ट लीगल एड फोरम के महासचिव अमित सरकार कहते हैं, "बंगाल के उत्तरी इलाकों से हर साल भारी तादाद में बच्चे तस्करी के शिकार होते हैं." अब तक एक हजार से ज्यादा बच्चों और महिलाओं को मानव तस्करों के चंगुल से बचाने वाले संगठन कंचनजंघा उद्धार केंद्र (केयूके) के सचिव रांगू सौरीया कहते हैं, "लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद लापता होने वाले बच्चों का पता लगाने के लिए ठोस रणीनीति बनाना जरूरी है." विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों ने इसके लिए सरकार से एक अंतर-मंत्रालयी टीम गठित करने की मांग की है.

हाल के वर्षों में कोलकाता मानव तस्करी के केंद्र के तौर पर उभरा है. कलकत्ता विश्वविद्यालय की महिला अध्ययन शोध केंद्र की निदेशक रहीं डॉक्टर ईशिता मुखर्जी कहती हैं, "पश्चिम बंगाल मानव तस्करी के अंतरराष्ट्रीय रूट पर स्थित है. यहां कई घरेलू व अंतरराष्ट्रीय गिरोह इस धंधे में सक्रिय हैं. इसके अलावा पड़ोसी देशों की सीमा से सटा होना भी इसकी एक प्रमुख वजह है." इसी तरह पूर्वोत्तर राज्य भी खासकर महिलाओं की तस्करी से परेशान हैं. अब वहां भी ऐसे मामलों में वृद्धि का अंदेशा बढ़ रहा है. एनसीआरबी की पिछली रिपोर्ट में ऐसे मामलों में असम पहले और बंगाल दूसरे स्थान पर था.

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