लॉकडाउन में कामकाजी मांओं को नहीं थी फुर्सत
२० जुलाई २०२०लॉकडाउन के दौरान मन में कई सवाल थे, कब तक ऐसे ही घर में रहना होगा? इंफेक्शन कर्व कब फ्लैट होगा? जिंदगी दोबारा कब सामान्य होगी? कहीं कोई जानकारी, कोई खबर छूट ना जाए, इसलिए मैं जानकारी के हर मुमकिन चैनल से जुड़ी रही. इस दौरान शायद ही कोई अहम प्रेस कॉन्फ्रेंस हो जो मैंने ना देखी हो, कोई जरूरी वीडियो क्लिप शायद ही छूटा हो. आज के जमाने में जानकारी सबसे तेजी से मिलती है सोशल मीडिया पर. इसी उम्मीद में मैं भी सोशल मीडिया से जुड़ी रही. लेकिन कमाल की बात यह थी कि यहां मुझे कोरोना से जुड़ी खबरों से ज्यादा खाने की रेसिपी के फीड मिल रहे थे.
लोगों ने घर में रह कर क्या क्या नहीं बना डाला.. समोसे, जलेबी से ले कर गोल गप्पे तक! जो लोग खाना नहीं बना रहे थे, वे नेटफ्लिक्स और एमेजॉन प्राइम पर एक के बाद एक सीरीज के रिव्यू दे रहे थे. और इस सब के बीच मैं सोच रही थी कि इन लोगों के पास इतना वक्त कहां से आता है? मेरी जिंदगी में तो दिन के 24 घंटे भी कम पड़ रहे थे. शायद लॉकडाउन के दौरान यही एक ख्याल मेरे मन में सबसे ज्यादा आया कि काश किसी से दिन के कुछ घंटे उधार लिए जा सकते!
वर्क फ्रॉम होम की हकीकत
लॉकडाउन के दौरान एक कामकाजी मां के लिए घर से काम करना कैसा होता है? इसे समझाते वक्त मुझे इंटरनेट पर चलने वाले वो मीम याद आ रहे हैं जो किसी एक खास बात पर आपके, आपके दोस्तों के, आपके परिवार के और आपके दफ्तर के सहकर्मियों के अलग अलग नजरिये को दिखाते हैं. तो क्यों ना उसी तरह इसका भी जवाब दिया जाए. जब आप दिन भर अपने पति और बच्चे के साथ घर पर रह कर दफ्तर का काम करते हैं, तब:
- सात समंदर पार बैठे आपके रिश्तेदारों को लगता है कि अब तो आप घर पर हैं, आपके पास वक्त ही वक्त है. अब तो दफ्तर जाने का वक्त भी बच रहा है, तो फिर एक फोन करने की फुर्सत क्यों नहीं?
- दफ्तर में बैठे आपके सहकर्मियों को लगता है कि आप शान से घर के आराम में बैठ कर काम कर रहे हैं, दफ्तर के तनाव से दूर. तो फिर थोड़ा और काम क्यों नहीं निपटा देते?
- आपके समोसे की रेसिपी और नेटफ्लिक्स रिव्यू पोस्ट करने वाले दोस्तों को लगता है कि आप उनसे भी ज्यादा खाना बना रहे हैं, उनसे भी ज्यादा फिल्में और सीरीज "बिंज वॉच" कर रहे हैं.
और आपकी हकीकत कुछ ऐसी होती है:
बतौर कामकाजी मां आपकी जिंदगी घड़ी की सुई के साथ साथ चलती चली जाती है. आपके पास फुर्सत का एक मिनट भी नहीं होता. 24 घंटे कम पड़ जाते हैं. कभी आप सुबह बच्चे के जगने से पहले दफ्तर का काम निपटा रहे होते हैं, तो कभी रात को उसके सोने के बाद. खाना पकाना तो छोड़िए, आपके पास खाना खाने तक की फुर्सत नहीं होती है. घर, बच्चे और दफ्तर के बीच आपके पास अपने लिए एक पल भी नहीं बचता क्योंकि ये तीनों ही आपका 100 फीसदी चाहते हैं. आप तीनों में से किसी को भी छोड़ नहीं सकते. ऐसे में अगर रात को आप ठीक ठाक सो सकें, तो वही दिन की आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि बन जाती है.
सालों की मेहनत बर्बाद
आज से कुछ दशकों बाद जब महिला अधिकारों पर रिसर्च होगी, तो कोरोना महामारी का यह दौर उसमें एक अहम भूमिका निभाएगा. वैश्विक संकट किसी भी तरह का हो, उसने महिलाओं की बराबरी की लड़ाई पर हमेशा ही असर डाला है. 1918 में जब दुनिया भर में स्पेनिश फ्लू फैला था, तब भी ऐसा ही हुआ था. एक तरफ पहला विश्व युद्ध चल रहा था और दूसरी ओर फ्लू महामारी शुरू हो गई थी. दोनों ही मामलों में पुरुष जान गंवा रहे थे. और क्योंकि उस जमाने में "वर्कफोर्स" पुरुषों से ही बनती थी, इसलिए अर्थव्यवस्था को बुरी तरह धक्का लगा. घर चलाना मुश्किल हो गया, तो औरतें बाहर निकलीं. उन्होंने मर्दों की दुनिया में कदम रखा और नौकरियां करनी शुरू की. 1920 तक अमेरिका में कामकाजी लोगों का 21 फीसदी हिस्सा महिलाओं का हो गया था. महिलाएं अब उन पेशों में भी जा रही थीं, जहां उनका होना अब तक वर्जित था. जैसे जैसे नौकरियां मिलती गईं, महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती गईं और अपने हकों के लिए खुल कर आवाज उठाने लगीं.
आज 100 साल बाद एक बार फिर दुनिया उसी तरह के संकट से गुजर रही है. एक बार फिर लोगों की जानें जा रही हैं, एक बार फिर अर्थव्यवस्था डूब रही है, एक बार फिर महिलाओं से स्थिति को संभालने की उम्मीद की जा रही है. लेकिन मुझे एक बड़ा फर्क दिख रहा है. सौ साल पहले महिलाएं घरों से निकल कर बाहर काम करने निकली थीं. आज कामकाजी महिलाओं पर काम छोड़ कर घर संभालने का दबाव बढ़ता जा रहा है.
घर, बच्चा और दफ्तर में अगर किसी एक को छोड़ना है, तो जाहिर है, ना ही आप घर को छोड़ सकती हैं और ना ही बच्चे को. यानी पिछले सौ सालों में महिलाओं ने अपने लिए जो जगह बनाई थी, अब उसके छिनने का खतरा बन गया है. एक महामारी से दूसरी महामारी के बीच महिलाओं की जिंदगी एक बार फिर बदलने जा रही है. और इसे बचाना सरकारों की प्राथमिकताओं की सूची में तो कहीं भी नजर नहीं आ रहा है. हां, मुझ जैसी महिलाएं निजी स्तर पर इस जगह को बचाने की कोशिश में जरूर लगी हैं. अब यह वक्त ही बताएगा कि हम में से कितनी इस कोशिश में कामयाब हो पाएंगी. और जो होंगी, वह किस कीमत पर...
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