कोविड महामारी के लाखों मरीज, संक्रमण के महीनों बाद तक कमजोरी और दूसरे कई गंभीर लक्षण महसूस कर रहे हैं. ऐसे मरीजों के लिए डॉक्टरों या करीबियों को अपनी तकलीफों की गंभीरता समझा पाना भी चुनौती से कम नहीं हो रहा है.
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पिछले 18 महीने में मार्था एस्पेर्टी को डॉक्टरों से यही सुनने को मिल रहा हैः "तुम्हें इसके जाने का इंतजार करना पड़ेगा.”
लेकिन कोविड 19 संक्रमण होने के एक साल से ज्यादा समय बाद भी उन्हें बुखार चढ़ता रहा, उल्टियां हुईं, थकान बनी रही, दिल की धड़कनें तेज होने लगीं, याददाश्त कमजोर और ऑक्सीजन लेवल गिरता रहा तो उन्हें लगा, उनके पास इंतजार का विकल्प नहीं रह गया था. पीएचडी छात्रा एस्पेर्टी कहां तो घूमने-फिरने और वर्कआउट की शौकीन थीं और कहां खाना पकाते हुए ही उनकी सांस फूलने लगती है.
फ्रांस और अपने देश इटली में बेहिसाब विशेषज्ञों को दिखाने के बाद और अपनी जेब से सारा मेडिकल खर्च चुकाने के बाद उनकी बीमारी पता चल पाईः लॉन्ग कोविड, यानी लंबी अवधि वाला कोविड संक्रमण. उनकी मेडिकल जांच में पता चला कि उनके दिल और फेफड़ों को काफी नुकसान हो चुका है.
उन्होंने डीडब्लू को बताया, "मुझे भयानक गुस्सा आने लगता है. एक साल तक मेरी बात को गंभीरता से नहीं लिया गया. अगर कोई सुन लेता तो मेरी हालत थोड़ा तो सुधरती.”
लॉन्ग कोविड क्या है?
गंभीर कोविड इंफेक्शन होने के बाद हफ्तों या महीनों तक उसका असर झेलने वाले लाखों लोगों में एस्पेर्टी भी एक हैं. इन लोगों को सुस्ती और थकान से लेकर ध्यान भटकने या सांस लेने में तकलीफ जैसे लक्षण हो सकते हैं.
ब्रिटेन में इम्पीरियल कॉलेज के शोधकर्ताओं की एक स्टडी में करीब 15 प्रतिशत कोविड मरीजों में 12 हफ्तों बाद भी बहुत सारे लक्षण कायम पाए गए. औरतों और बूढ़ों पर ज्यादा असर पड़ा है लेकिन पुरुष और बच्चे भी इसकी चपेट में आते देखे गए हैं.
क्या है लॉन्ग कोविड
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वैज्ञानिक अभी संभावित कारणों के बारे में पता लगा ही रहे हैं, इसके चलते डायग्नोज न कर पाने और उस हिसाब से उपचार न दे पाने के कारण भी हालत और पेचीदा हो जाती है.
‘हारा हुआ महसूस करती हूं'
यह कहना है अमेरिका की अलेक्सांद्रा फैरिन्गटन का. इसी हफ्ते उन्हें बताया गया कि उनके लक्षण बस उनका वहम हैं. पुर्तगाल के पोर्टो में डाटा और बिजनेस कन्सेल्टिंग में काम कर रहीं अलेक्सांद्रा को अब भी छाती मे दर्द, सांस लेने में दिक्कत और थकान महसूस होती है जबकि उन्हें मार्च 2020 में कोविड हो चुका था.
उन्होंने डीडब्लू को बताया कि मेडिकल स्टाफ यूं तो मदद करता रहता है लेकिन बीमारी पकड़ में नहीं आ पाती तो वे हत्थे से उखड़ जाते हैं. एक कार्डियोलॉजिस्ट ने तो उन्हें यहां तक कह दिया कि वह उनके डिपार्टमेंट में दोबारा कभी आने की जुर्रत न करें.
तस्वीरेंः कितना खर्च हुआ इलाज में
कितना खर्च हुआ कोविड के इलाज पर
एक नए अध्ययन में पाया गया है कि भारत में कोविड के इलाज पर हुआ औसत खर्च आम आदमी की सालाना आय से परे है. आइए जानते हैं आखिर कितना खर्च सामने आया इस अध्ययन में.
तस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS
भारी खर्च
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया और ड्यूक ग्लोबल हेल्थ इंस्टिट्यूट के इस अध्ययन में सामने आया कि अप्रैल 2020 से जून 2021 के बीच एक औसत भारतीय परिवार ने जांच और अस्पताल के खर्च पर कम से कम 64,000 रुपए खर्च किए. अध्ययन के लिए दामों के सरकार द्वारा तय सीमा को आधार बनाया गया है.
तस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS
महीनों की कमाई
भारत में एक औसत वेतन-भोगी, स्वरोजगार वाले या अनियमित कामगार के लिए कोविड आईसीयू का खर्च कम से कम उसके सात महिने की कमाई के बराबर पाया गया. अनियमित कामगारों पर यह बोझ 15 महीनों की कमाई के बराबर है.
तस्वीर: Pradeep Gaur/Zuma/picture alliance
आय के परे
आईसीयू में भर्ती कराने के खर्च को 86 प्रतिशत अनियमित कामगारों, 50 प्रतिशत वेतन भोगियों और स्वरोजगार करने वालों में से दो-तिहाई लोगों की सालाना आय से ज्यादा पाया गया. इसका मतलब एक बड़ी आबादी के लिए इस खर्च को उठाना मुमकिन ही नहीं है.
तस्वीर: Pradeep Gaur/Zumapress/picture alliance
सिर्फ आइसोलेशन भी महंगा
सिर्फ अस्पताल में आइसोलेशन की कीमत को 43 प्रतिशत अनियमित कामगार, 25 प्रतिशत स्वरोजगार वालों और 15 प्रतिशत वेतन भोगियों की सालाना कमाई से ज्यादा पाया गया. अध्ययन में कोविड की वजह से आईसीयू में रहने की औसत अवधि 10 दिन और घर पर आइसोलेट करने की अवधि को सात दिन माना गया.
तस्वीर: Reuters/F. Mascarenhas
महज एक जांच की कीमत
निजी क्षेत्र में एक आरटीपीसीआर टेस्ट की अनुमानित कीमत, यानी 2,200 रुपए, एक अनियमित कामगार के एक हफ्ते की कमाई के बराबर पाई गई. अमूमन अगर कोई संक्रमित हो गया तो एक से ज्यादा बार टेस्ट की जरूरत पड़ती है. साथ ही परिवार में सबको जांच करवानी होगी, जिससे परिवार पर बोझ बढ़ेगा.
अध्ययन में कहा गया कि इन अनुमानित आंकड़ों को कम से कम खर्च मान कर चलना चाहिए, क्योंकि सरकार रेटों में कई अपवाद हैं और इनमें से अधिकतर का पालन भी नहीं किया जाता. इनमें यातायात, अंतिम संस्कार आदि पर होने वाले खर्च को भी नहीं जोड़ा गया है.
लॉन्ग कोविड के ताजा नतीजे मिलने के बाद किसी तरह सब्र रखते हुए अलेक्सांद्रा कहती हैं, "मैं हारा हुआ महसूस करती हैं. कभी कभी लगता है कि मेरे पास डॉक्टर से ज्यादा जानकारी है.”
इंग्लैंड के हेस्टिंग्स में अमेरिकी आर्टिस्ट टिफनी मेकगिनिस कहती हैं कि उन्हें भी मदद की कमी महसूस हुई थी जब संक्रमण के कई दिनों बाद उन्हें दोबारा निमोनिया ने जकड़ लिया और छाती में दर्द रहने लगा था. मेकगिनिस कहती हैं, "बहुत सारे डॉक्टर हम पीड़ितों के साथ ऐसा सुलूक करते हैं मानो हम हाइपकान्ड्रीएक यानी बीमारी की इंतहाई सनक से घिरे हुए लोग हों.”
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लक्षणों से इंकार करते रहने का इतिहास
येल यूनिवर्सिटी में इम्युनोलॉजिस्ट अकीको इवासाकी उन शोधकर्ताओं में से एक हैं जो लॉन्ग कोविड के कारणों और दूसरे संक्रमण-पश्चात सिंड्रोमों पर अध्ययन कर रहे हैं ताकि डॉक्टर ऐसे मरीजों का बेहतर इलाज कर सकें.
अतीत में, दूसरे सिंड्रोमों में वैसी ही समस्याएं देखी गईं जो लंबे समय के कोरोना पीड़ितों में देखी जा रही हैं, जैसे बेतहाशा थकान, दर्द और मन उचाट. अकीको इवासाकी कहती हैं, "इतिहास देखें तो पहले भी इस तरह के लक्षणों की अनदेखी की गई है. स्थिति का लोगों पर गंभीर असर होने के बावजूद इस बारे में बहुत कम वैज्ञानिक कोशिशें हुई हैं.”
अब बहुत सारे लॉन्ग कोविड मरीज, ऐसे इंकारी रवैये का खामियाजा भुगत रहे हैं. नये कोरोना वायरस के पनपने के साथ, अचानक लाखों लोग बहुत सारी शिकायतों के साथ सामने आए हैं, स्नायु से लेकर दिल तक की शिकायतों के मामलो डॉक्टरों को भी चक्कर में डाल रहे हैं.
अकीको इवासाकी कहती हैं, "अगर बहुत सारे सिस्टम इससे जुड़े हों तो किसी स्पेशलिस्ट को भी नहीं पता होता कि कैसे निपटें. इसे बदलने की जरूरत है.”
कोरोना ने छीना जुबान का स्वाद
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कुछ देश अपने यहां रिसर्च के काम में तेजी ला रहे हैं. अमेरिकी कांग्रेस ने नेशनल इन्स्टीट्यूट्स ऑफ हेल्थ को, कोविड संक्रमण की दीर्घ अवधि वाले नतीजों के अध्ययन के लिए, एक अरब डॉलर से अधिक की राशि मंजूर की है.
दुनिया भर में, लॉन्ग कोविड क्लिनिक, तमाम लक्षणों से जूझते आ रहे मरीजों की खास देखभाल कर रहे हैं. लेकिन बहुत से ऐसे मरीजों को ये उपचार नहीं मिल पा रहा है. जिनकी किस्मत अच्छी है उन्हें भी दूसरी जगहों पर बेयकीनी से जूझना पड़ रहा है.
शक करते रिश्तेदार-परिजन
अमेरिका के सिनसिनाटी में विकास निदेशिका एमी पेलिकानो के मामले में तो शक करने वाले उनके अपने परिवार के ही लोग थे. महामारी के शुरुआती दिनों में ही कोविड होने से पहले, उन्हें अपनी पोतियों के साथ कार्टव्हील यानी हाथ-पैरों से कलाबाजी करने में मजा आता था. एक साल से ज्यादा का समय हो गया उनकी खांसी बनी हुई है जिसके चलते वो बात भी नहीं कर पाती. उनका ध्यान भटक जाता है, और उनके दिल की धड़कनें तेज हो जाती है. विशेषज्ञों के मुताबिक ये लॉन्ग कोविड का स्पष्ट मामला है.
वह कहती हैं कि उन जानकारों ने उनकी भरपूर मदद की है लेकिन उनके कई रिश्तेदारों का कहना ये था कि वह आलसी हो गई हैं और कुछ नहीं. ऐसा बोला गया तो उन्हें खुद पर ही शक होने लगा.
एमी पेलिकानो को थेरेपिस्ट की मदद लेनी पड़ी. वह कहती हैं, "शारीरिक रूप से इतनी खराब हालत तो थी ही, भावनात्मक रूप से मुझे ज्यादा बुरा लग रहा था क्योंकि मुझे अपने परिवार में पति के अलावा किसी से भी मजबूत सपोर्ट नहीं मिला.”
देखिएः कहां कहां पहुंची वैक्सीन
कहां कहां पहुंची वैक्सीन
कोविड-19 वैक्सीन को लोगों तक पहुंचाने के लिए दुनियाभर के सैकड़ों स्वास्थ्यकर्मी दूभर यात्राएं कर रहे हैं. उनका काम है वैक्सीन को उन जगहों पर ले जाना जहां आना-जाना आसान नहीं है. मिलिए, ऐसे ही लोगों से.
तस्वीर: Anupam Nath/AP Photo/picture alliance
पहाड़ की चढ़ाई
दक्षिणी तुर्की में दूर-दराज पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों तक वैक्सीन पहुंचाने के लिए सिर्फ स्वास्थ्यकर्मी होना काफी नहीं है. उन्हें शारीरिक रूप से तंदुरुस्त और मजबूत भी होना पड़ता है क्योंकि पहाड़ चढ़ने पड़ते हैं. डॉ. जैनब इरेल्प कहती हैं कि लोग अस्पताल जाना पसंद नहीं करते तो हमें उनके पास जाना पड़ता है.
तस्वीर: Bulent Kilic/AFP
बर्फीली यात्राएं
पश्चिमी इटली के ऐल्पस पहाड़ी के मारिया घाटी में कई बुजुर्ग रहते हैं जो वैक्सिनेशन सेंटर तक नहीं पहुंच सकते. 80 साल से ऊपर के लोगों को घर-घर जाकर वैक्सीन लगाई जा रही है.
तस्वीर: Marco Bertorello/AFP
हवाओं के उस पार
अमेरिका के अलास्का में यह नर्स युकोन नदी के किनारे बसे कस्बे ईगल जा रही है. उसके बैग में कुछ ही वैक्सीन हैं क्योंकि ईगल सौ लोगों का कस्बा है जहां आदिवासी लोग रहते हैं. उन्हें प्राथमिकता दी जा रही है.
तस्वीर: Nathan Howard/REUTERS
मनाना भी पड़ता है
दक्षिणी-पश्चिमी कोलंबिया के पहाड़ी इलाकों में 49 साल के ऐनसेल्मो टूनूबाला का काम सिर्फ वैक्सीन ले जाना नहीं है. उन्हें वैक्सीन की अहमियत भी समझानी पड़ती है क्योंकि कुछ आदिवासी समूह दवाओं से ज्यादा जड़ी-बूटियों पर भरोसा करते हैं.
तस्वीर: Luis Robayo/AFP
कई-कई घंटे चलना
मध्य मेक्सिको नोवा कोलोन्या इलाके में ये लोग चार घंटे पैदल चलकर टीकाकरण केंद्र पहुंचे. ये हुइशोल आदिवासी समूह के लोग हैं.
तस्वीर: Ulises Ruiz/AFP/Getty Images
नाव में सेंटर
ब्राजील के रियो नेग्रो में नोसा सेन्योरा डो लिवरामेंटो समुदाय के लोगों तक वैक्सीन नाव पर बने एक टीकाकरण केंद्र के जरिए पहुंची है.
तस्वीर: Michael Dantas/AFP
अंधेरे में उजाला
ब्राजील के इस आदिवासी इलाके में बिजली नहीं पहुंची है लेकिन वैक्सीन पहुंच गई है. 70 साल की रैमुंडा नोनाटा को वैक्सीन की पहली खुराक मोमबत्ती की रोशनी में मिली.
तस्वीर: Tarso Sarraf/AFP
झील के उस पार
यूगांडा की सबसे बड़ी झील बनयोन्यनी के ब्वामा द्वीप पर रहने वालों को वैक्सीन लगवाने के लिए नाव से आना पड़ता है.
तस्वीर: Patrick Onen/AP Photo/picture alliance
सब जल-थल
जिम्बाब्वे के जारी गांव में पहुंचने के लिए बनी सड़क टूट गई है. नदी पार करने का यही तरीका है लेकिन वैक्सीन तो पहुंचेगी.
तस्वीर: Tafadzwa Ufumeli/Getty Images
जापान के गांव
जापान में शहर भले चकाचौंध वाले हों, आज भी बहुत से लोग दूर-दराज इलाकों में रहते हैं. जैसे किटाएकी में इस बुजुर्ग के लिए स्वास्थ्यकर्मी घर आए हैं टीका लगाने.
तस्वीर: Kazuhiro Nogi/AFP
बेशकीमती टीके
इंडोनेशिया में टीकाकरण जनवरी में शुरू हो गया था. बांडा आचेह से मेडिकल टीम नाव के रास्ते छोटे छोटे द्वीपों पर पहुंची. टीके इतने कीमती हैं कि सेना मेडिकल टीम के साथ गई.
तस्वीर: Chaideer Mahyuddin/AFP
दूसरी लहर के बीच
भारत में जब कोरोना वायरस चरम पर था, तब वैक्सीनेशन जारी था. लेकिन ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित बहाकजरी गांव में मेडिकल टीम के पास पहुंचे लोग मास्क आदि से बेपरवाह दिखाई दिए. (ऊटा श्टाइनवेयर)
तस्वीर: Anupam Nath/AP Photo/picture alliance
12 तस्वीरें1 | 12
उधर लंदन में, यास की बीमारी की गंभीरता लोगों को कभी समझ नहीं आती अगर उनकी हालत इतनी पेचीदा न होती. खुद के लिए ‘वे' सर्वनाम का इस्तेमाल करने वाले यास पर तो कोविड-पश्चात थकान के लक्षणों की ऐसी मार पड़ी कि वे अब बैसाखियों या व्हीलचेयर के सहारे आवाजाही करते हैं.
पहले-पहल लोगों ने सोचा यास बढ़ा-चढ़ाकर बोल रहे हैं क्योंकि उनके पिता को भी लॉन्ग कोविड हुआ था तो वो हल्का-फुल्का ही रहा, ठीक भी हो गया. लेकिन अब यास का परिवार और डॉक्टर उनकी पूरी मदद करने लगा है.
यास ने डीडब्लू को बताया, "बहुत हताश कर देने वाली बात थी क्योंकि मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की थी. लगा ही नहीं कि उतना काफी था. जबसे लोग मुझ पर भरोसा करने लगे हैं, मेरी मानसिक सेहत भी काफी सुधर गई है.”
जागरूकता के लिए जारी लड़ाई
डॉक्टरों और अपने प्रियजनों के सामने अपनी बिगड़ती हालत की गुहार लगाते रहने वाले लॉन्ग कोविड के मरीजों को अब परस्पर ढाढ़स मिला है. ऑनलाइन सपोर्ट ग्रुप्स में वे अपने अनुभव और संसाधनों को साझा करते हैं. मरीजों की बात पर न सिर्फ भरोसा किया जाता है बल्कि समझा भी जाता है.
अलेक्सांद्रा फैरिन्गटन कहती हैं, "मैंने महसूस किया जैसे मुझे मान्यता मिल गई हो. ये भी एक बड़ा कारण है कि मैं मुश्किलों से निकल पाई.”
उधर रोम में मार्था एस्पेर्टी खुद एक एडवोकेट बन गई हैं. उन्होंने लॉन्ग कोविड इटालिया नाम से एक ग्रुप बना लिया था. उसमें मरीज, शोधकर्ता और डॉक्टर शामिल हैं जो बीमारी के बारे में और जागरूकता फैलाने के लिए लड़ रहे हैं.
वह कहती हैं, "चूंकि लॉन्ग कोविड जन स्वास्थ्य की प्राथमिकता में नहीं है, लिहाजा बहुत सारे लोगों को अपनी बात पर भरोसा जगाने के लिए अपना खुद का समय, बचत और ऊर्जा झोंकनी होगी.”
मार्था एस्पेर्टी कहती हैं, "सरकार को चाहिए कि वो आगे बढ़कर देखरेख, पुनर्वास और वित्तीय मदद मुहैया कराए क्योंकि मैं अपनी जिंदगी के 18 महीने गंवा चुकी हूं.”
रिपोर्टः बिएट्रिस क्रिस्टोफारो
तस्वीरेंः टीके पर दावत
कोरोना का टीका लगाने पर "दावत"
लंबे समय के बाद लॉकडाउन खत्म हुआ है, इसलिए सर्बिया में रेस्तरां खुल गए हैं. हालांकि, पूरे देश में अभी भी टीकाकरण गतिविधियां जारी हैं. ऐसे में शहर के एक रेस्तरां ने एक खास पेशकश की है.
तस्वीर: MARKO DJURICA/REUTERS
टीका लगवाओ और भुना गोश्त पाओ
वैक्सीनेशन को बढ़ावा देने के लिए सर्बिया के क्रागुएवात्स शहर में रेस्तरां मालिक स्ताव्रो रासकोविच ने उन लोगों को मुफ्त में स्थानीय व्यंजन खाने का मौका दिया जिन लोगों ने कोरोना की वैक्सीन लगवा ली. इसके जरिए रासकोविच ने लोगों को धन्यवाद करने की कोशिश की.
तस्वीर: MARKO DJURICA/REUTERS
वैक्सीन और खाना
लॉकडाउन की वजह से देश के रेस्तरां, कैफे और बार बुरी तरह प्रभावित हुए. इस साल भी कोरोना को लेकर पाबंदियां लगाई गई थीं, अब पाबंदियां हटा ली गईं हैं और ऐसे में स्ताव्रो रासकोविच ने इस मौके पर लोगों को रेस्तरां के बाहर खाना पेश किया, रेस्तरां के भीतर लोगों को वैक्सीन दी जा रही.
तस्वीर: MARKO DJURICA/REUTERS
रेस्तरां में दो टीके
स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों ने रेस्तरां के मुख्य हॉल को एक टीकाकरण केंद्र में बदल डाला है. यहां पर लोगों को फाइजर-बायोएनटेक की वैक्सीन और चीन की सिनोफार्म वैक्सीन दी जा रही है. टीका लगवाने के बाद लोग भुने गोश्त का आनंद ले सकते हैं.
तस्वीर: MARKO DJURICA/REUTERS
टीकाकरण पर जोर
सर्बिया ने पिछले साल दिसंबर में ही पूरे देश में टीकाकरण अभियान की शुरुआत की थी. उसने जनता को फाइजर-बायोएनटेक, एस्ट्राजेनेका, स्पुतनिक वी या फिर सिनोफार्म की वैक्सीन लेने का विकल्प दिया.
तस्वीर: MARKO DJURICA/REUTERS
इतिहास का हिस्सा
बीयर के साथ रोस्टेड मीट का आनंद लेते 63 साल के बेन यायिक रासकोविच की पहल की सराहना करते हैं और कहते हैं, "एक दिन कोई कहेगा कि बेन अंकल ने यहीं टीका लगवाया था." 70 लाख की आबादी वाले देश में करीब एक तिहाई लोगों को कोरोना वैक्सीन की पहली खुराक दी जा चुकी है.
तस्वीर: MARKO DJURICA/REUTERS
डिस्काउंट वाउचर
सर्बिया की राजधानी बेलग्रेड में तो एक शॉपिंग मॉल ने वैक्सीनेशन को बढ़ावा देने के लिए डिस्काउंट वाउचर देने का ऐलान किया. मॉल में वैक्सीन लगवाने वालों की भीड़ लग गई और पहले 100 लोगों को करीब 30 डॉलर का वाउचर भी मिला.
तस्वीर: Marko Djurica/REUTERS
कोरोना टेस्ट पर बीयर
डेनमार्क की राजधानी कोपनहेगन में एक बार ऐसे लोगों को बीयर पिलाता है जो उनके बार में कोरोना के लिए एंटीजेन टेस्ट करवाने के लिए आते हैं. बार का मानना है कि इस तरह से उसका कारोबार चल पड़ेगा.