दिल्ली: लैंडफिल साइट पर आग के बाद धुएं ने किया जीना मुहाल
२८ अप्रैल २०२२
दिल्ली के भलस्वा लैंडफिल साइट में लगी आग दूसरे दिन भी पूरी तरह से बुझी नहीं है. आग की वजह से आसपास के रिहायशी इलाकों में भय का माहौल है. जहरीले धुएं से लोग परेशान हैं.
मंगलवार को भलस्वा लैंडफिल साइट पर आग भड़की थीतस्वीर: Manish Swarup/AP Photo/picture alliance
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उत्तरी दिल्ली के भलस्वा में कूड़े के पहाड़ में लगी भयंकर आग पर अब तक काबू पाया नहीं जा सका है. आग लगने के मामले पर दिल्ली सरकार ने दिल्ली पॉल्यूशन कंट्रोल कमिटी (डीपीसीसी) से रिपोर्ट मांगी है. डीपीसीसी को 24 घंटे में रिपोर्ट सौंपने के निर्देश दिए गए हैं. दिल्ली सरकार का कहना है कि दिल्ली के कूड़े के पहाड़ पिछले 15 सालों की एमसीडी की लापरवाही का नतीजा हैं. एमसीडी पर बीजेपी का ही कब्जा है.
दिल्ली के पर्यावरण मंत्रालय के मुताबिक लैंडफिल साइट्स में आग लगने का सबसे बड़ा कारण उसमें से लगातार निकलने वाली मीथेन गैस है. यह मीथेन गैस न केवल आग की घटनाओं को बढ़ावा देती है बल्कि वायुमंडल के लिए भी हानिकारक है.
मीथेन गैस से भड़की आग
मंगलवार को भलस्वा लैंडफिल साइट पर आग भड़की थी. एमसीडी के अफसरों ने बताया है कि मीथेन गैस की वजह से यह आग भड़की थी. अफसरों ने मीडिया को बताया कि अगले कुछ दिनों तक लैंडफिल साइट पर आग लगने का खतरा बना रहेगा. उनका कहना है कि जब तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा होता तब कूड़े में नमी की मात्रा बढ़ जाती है. नमी बढ़ने से ही मीथेन गैस निकलने लगती है. मंगलवार को तापमान 40 डिग्री से अधिक था, जिसके चलते लगातार मीथेन गैस बनती रही और आग भड़क गई.
बताया जा रहा है कि मंगलवार को लगी इस साइट पर आग अब तक की सबसे बड़ी आग थी.
भलस्वा लैंडफिल 17 मंजिला इमारत से ऊंचा है और करीब 50 फुटबॉल मैदानों से बड़े क्षेत्र पर स्थित हैतस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS
कठिन हालात में रहते लोग
भलस्वा लैंडफिल 17 मंजिला इमारत से ऊंचा है और करीब 50 फुटबॉल मैदानों से बड़े क्षेत्र पर स्थित है. लैंडफिल के आस-पास के घरों में रहने वाले मजदूरों ने आग के बाद अपने घरों को खाली कर दिया और सड़कों पर ही रात गुजारी. लेकिन बुधवार की सुबह तक लैंडफिल के पास रहने वाले और काम करने वाले हजारों लोगों ने आग के बीच ही कचरा बीनने का खतरनाक काम शुरू कर दिया.
इस कूड़े के पहाड़ के पास रहने वाले 31 साल के भैरो राज कहते हैं, "यहां हर साल आग लगती है. इसमें नया क्या है. जान और आजीविका को तो खतरा है लेकिन हम क्या कर सकते हैं?"
हाल के हफ्तों में राजधानी के आसपास के तीन अन्य लैंडफिल में आग लग चुकी है. जिस भलस्वा लैंडफिल में ताजा आग लगी है उसे दशक पहले बंद करने की योजना बनाई गई थी लेकिन आज भी उसमें हर रोज 2,300 टन से अधिक कचरा डाला जाता है.
भारत हो या अफ्रीका, एक जैसा है कूड़ा बीनने वालों का हाल
अफ्रीका के सेनेगल में दुनिया के सबसे बड़े कूड़े के ढेरों में से एक स्थित है. यह इलाका पर्यावरण के लिए खतरनाक है, लेकिन हजारों कूड़ा बीनने वाले यहां रोज प्लास्टिक और अन्य बेचने लायक कचरे की तलाश में भटकते हैं.
तस्वीर: John Wessels/AFP/Getty Images
प्लास्टिक और धातुओं की तलाश
सेनेगल की राजधानी डकार के बाहर मबोस कचरा भराव क्षेत्र में करीब 2,000 कचरा बीनने वाले काम करते हैं. लोहे के एक कांटे की मदद से वे कूड़े में रीसाइकल होने योग्य प्लास्टिक ढूंढते हैं. कीमती धातुओं की तलाश में वे कूड़े को जलाते भी हैं.
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थोक व्यापारियों की भूमिका
कूड़ा बीनने वाले रीसाइकल होने योग्य सामान को थोक विक्रेताओं को बेच कर पैसा कमाते हैं. गैर सरकारी संगठन वीगो के मुताबिक इनमें से कुछ लोग लोग एक लाख पश्चिमी अफ्रीकी सीएफए फ्रैंक (हर महीने करीब 150 से 180 यूरो) कमा पाते हैं, जो कि सेनेगल में कमाई के स्तर के हिसाब से काफी कम है. कई कचरा बीनने वाले इससे बहुत कम कमाते हैं.
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नए कूड़े की गंध
इस थोड़ी सी कमाई के लिए, इन्हें ना सिर्फ भारी गर्मी बल्कि कचरा भराव क्षेत्र की गंध का भी सामना करना पड़ता है. वे रोज कचरे के ट्रकों का इंतजार करते हैं जो कचरा क्षेत्र के बीचोबीच स्थित कचरे के ऊंचे पहाड़ पर नया कचरा डाल जाते हैं. उसके बाद वे जल्दी जल्दी कचरा बीनना शुरू कर देते हैं.
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मवेशियों का साथ
यहां कुल 230 ट्रक रोज लगभग 1,300 टन कचरा लाते हैं. यह कचरा मवेशियों और पंछियों को भी आकर्षित करता है, जो 280 एकड़ में फैले इस क्षेत्र में खाना ढूंढने के लिए भटकते रहते हैं.
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एक घाटे का सौदा
कचरा बीनने वालों के संगठन के प्रवक्ता पापे दिआये कहते हैं कि मबोस में जीविका चलाना मुश्किल होता जा रहा है. प्रतिस्पर्धा के अलावा कचरे की थोक कीमतों का लंबे समय से ना बढ़ना भी एक समस्या है. दिआये कहते हैं कि वो लोग कचरे को रीसाइकल करने में मदद कर पर्यावरण की सेवा भी करते हैं, लेकिन वो "हमेशा घाटा उठाने वाले" ही बने रहते हैं.
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पर्यावरण के लिए खतरा
मबोस पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा है. जब यहां कचरे को जलाया जाता है तो उसका जहरीला धुंआ पूरे क्षेत्र में फैल जाता है और आस पास के रिहायशी इलाकों तक भी पहुंच जाता है. क्षेत्र के बाहर की तरफ मौजूद एक तालाब प्रदूषण की वजह से लाल रंग का हो गया है.
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जल्द होगा बंद
दशकों से मबोस को नजरअंदाज करने के बाद, सेनेगल सरकार ने अब इसे बंद करने का फैसला कर लिया है. 2025 में इसे एक कचरा अलग करने के केंद्र में बदल दिया जाएगा. इसी के साथ कचरा बीनने वालों के लिए जीविका के साधन का भी अंत हो जाएगा. (जॉन वेसेल्स, बीट्रीस क्रिस्टोफारो)
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दो करोड़ से अधिक आबादी वाली दिल्ली हर रोज करीब 12 हजार टन ठोस कचरा पैदा करती है. शहर के पास ठोस कचरे को संसाधित करने के लिए आधुनिक अपशिष्ट प्रबंधन के बुनियादी ढांचे की कमी है.
रिपोर्ट: आमिर अंसारी (एपी से जानकारी के साथ)
कांच फूंककर खजाना बनाने वाला
माइक टेटे घाना के एकमात्र पेशेवर ग्लासब्लोअर हैं. यानी वह फूंक मारकर कांच को आकृति में बदल सकते हैं. अपने इस हुनर से टेटे ने कचरे को बेशकीमती चीजों में बदल दिया है.
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घाना का एकमात्र कांच फूंकने वाला
44 वर्षीय माइक टेटे ने घाना में कचरे को बेशकीमती बनाने का कमाल किया है. इस कचरे में खिड़कियों के टूटे कांच से लेकर टीवी स्क्रीन और सोडा बोतलों तक हर तरह का कांच होता है.
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कांच का पिघलना
कचरे से मिले इस कांच को पिघलाकर अलग-अलग आकृतियों में ढाला जा रहा है. लाल और हरे फूलदानों से लेकर रोजमर्रा की जरूरत की बोतलों तक कई तरह की चीजें बन रही हैं.
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हुनर और जुनून
रॉयटर्स से बातचीत में टेटे बताते हैं कि उन्होंने पहले मोती बनाना सीखा था. इसके लिए उन्होंने फ्रांस और नीदरलैंड्स में ट्रेनिंग ली थी. वह कहते हैं, “इस काम में मेरा दिल लगा और यह मेरा जुनून बन गया. अब तो मैं हर वक्त पर कांच फूंकना चाहता हूं. यह बेहतरीन काम है.”
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जैसे जिंदगी रूप लेती है
टेटे की फूंक से कांच जब अपना रूप बदलता है तो उन्हें लगता है कि जिंदगी रूप ले रही है. इसीलिए उन्हें कांच खूबसूरत लगता है.
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मकसद है कचरे का सफाया
टेटे का एक सख्त नियम है कि रीसाइकिल किए गए कच्चेमाल को ही इस्तेमाल करना है. उनका मकसद घाना के कांच वाले कचरे को कम करना है.
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कूड़ा बढ़ता है
घाना में सालाना 30 करोड़ डॉलर यानी करीब 23 अरब रुपये के कांच और सिरामिक उत्पादों का आयात करता है. इनमें से 80 प्रतिशत से ज्यादा चीन से आते हैं, जो कांच का सबसे बड़ा निर्यातक है. घाना में कुछ कंपनियां तो कांच को रीसाइकिल करती हैं लेकिन अधिकतर कूड़े में फेंक दिया जाता है.
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कारवां बनता गया
टेटे ने अपनी इस कला को बहुत से युवाओं तक भी पहुंचाया है ताकि एक पूरा समुदाय तैयार हो सके जो इस कचरे के सफाये के लिए काम करे. धन की कमी के बावजूद वह अपने अभियान में जुटे हुए हैं.
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एक दिन आएगा
टेटे को उम्मीद है कि जिन युवाओं को उन्होंने काम सिखाया है वे एक दिन अपनी-अपनी वर्कशॉप खोलेंगे और देश में काम बढ़ेगा, कचरा नहीं. वह कहते हैं, “मैं चाहता हूं लड़के-लड़कियां ये काम सीखें और अपना काम शुरू करें ताकि हम मिलकर घाना को आगे बढ़ा सकें.”