पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा पर भारी चुनावी सियासत
२८ अगस्त २०२५
पश्चिम बंगाल में इस साल 45 हजार से ज्यादा पंडाल बनाए जा रहे हैं. इनमें से करीब साढ़े चार हजार अकेले राजधानी कोलकाता और उसके आस-पास हैं. कोलकाता में करीब सौ ऐसे पंडाल हैं जिनका बजट 80 से 90 लाख के बीच है. इसके अलावा करीब एक दर्जन पंडालों का बजट तीन से पांच करोड़ के बीच रहता है. लेकिन खासकर चुनाव से पहले यह त्योहार सियासत का अखाड़ा बन जाता है. इस साल भी अपवाद नहीं हैं क्योंकि अगले साल अहम विधानसभा चुनाव होने हैं.
वैसे तो राज्य में होने वाली पूजा के दौरान दुनिया भर में घटी घटनाओं को ही थीम चुना जाता है. लेकिन चुनाव से पहले इस पर सियासत का रंग गाढ़ा होने लगता है.
पश्चिम बंगाल में प्रवासी मजदूरों के उत्पीड़न का मुद्दा उठा
प्रवासी मजदूरों की थीम
अगले साल के चुनाव को ध्यान में रखते हुए कोलकाता के कई पूजा आयोजकों ने इस साल बंगाल और बंगाली थीम पर पूजा आयोजित करने का फैसला किया है. दरअसल, मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने देश के खासकर भाजपा-शासित राज्यों में बांग्लाभाषियों के कथित उत्पीड़न के खिलाफ बड़े पैमाने पर अभियान और आंदोलन छेड़ रखा है. उनके मूड को भांपते हुए महानगर के कम से कम आधा दर्जन पूजा समितियों ने इसी को अपना थीम बनाने का फैसला किया है.
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कोलकाता के बागुईहाटी इलाके के अश्विनी नगर बंधुमहल क्लब ने इस बार बंगाल और बंगाली को अपनी थीम चुना है. यह उसका 45वां साल है. बीते साल उसने बंगाल की बारोवारी यानी पारंपरिक पूजा को अपना थीम बनाया था. हालांकि पूजा समिति के संयोजक स्वरूप नाग बताते हैं कि इस थीम का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. हम अपने पंडाल में बंगाल और बंगालियों की समृद्ध परंपरा और विरासत को दर्शाएंगे.
सरकारी अनुदान पर सियासत
ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार हर साल पंजीकृत पूजा पंडालों को आर्थिक अनुदान देती रही है. यह सिलसिला वर्ष 2018 से शुरू हुआ था. उस समय अगले साल यानी 2019 में लोकसभा चुनाव होने थे. उस साल सरकार ने पूजा समितियों को 10-10 हजार का अनुदान दिया था जो इस साल बढ़ कर 1.10 लाख तक पहुंच गया है. इससे सरकारी खजाने पर करीब पांच सौ करोड़ का बोझ पड़ेगा.
यही वजह है कि इस मुद्दे पर सियासत और विवाद तेज हो गया है. बीजेपी के वरिष्ठ नेता सजल घोष, जो खुद भी एक बड़ी पूजा आयोजित करते हैं, डीडब्ल्यू से कहते हैं, "यह चुनावी सियासत है. ममता बनर्जी ने इस साल अनुदान की रकम में एकमुश्त 25 हजार की वृद्धि की है. इससे इसके पीछे की मंशा को समझना मुश्किल नहीं है."
लेकिन तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता कुणाल घोष इन दावों को नकारते हैं. घोष डीडब्ल्यू से कहते हैं, "यह रकम इसलिए दी जाती है कि बंगाल के इस सबसे बड़े त्योहार के आयोजन में सहूलियत हो. यह अनुदान बिना किसी भेदभाव के तमाम पंजीकृत समितियों को दी जाती है."
ममता बनर्जी की दलील है कि सरकारी अनुदान दुर्गा पूजा के लिए नहीं बल्कि इसके आयोजन से जुड़े हजारों लोगों के हितों की रक्षा के लिए दी जाती है. इसका मकसद कलाकार से कारीगर और मजदूर तक सबकी आर्थिक स्थिति को मजबूत करना है.
अदालती हस्तक्षेप
सरकारी अनुदान में वृद्धि के विरोध में कलकत्ता हाईकोर्ट में दो अलग-अलग जनहित याचिकाएं भी दायर की गई थी. उन पर सुनवाई के बाद अदालत ने सरकार से 48 घंटों के भीतर उन आयोजन समितियों की सूची पेश करने को कहा जिन्होंने बीते साल के अनुदान का हिसाब नहीं दिया है.
इस सुनवाई के दौरान एडवोकेट जनरल किशोर दत्त ने बताया कि पांच सौ से ज्यादा पूजा समितियों में से महज 36 ने हिसाब नहीं दिया है. इसके बाद अदालत ने बुधवार को अपने फैसले में कहा है कि जिन समितियों ने पिछले अनुदान का हिसाब नहीं दिया है उनको इस साल अनुदान नहीं दिया जा सकता.
बढ़ता टर्नओवर
राज्य में दुर्गापूजा का टर्नओवर हर साल बढ़ता ही जा रही है. एक अध्ययन के मुताबिक, वर्ष 2013 में यह आंकड़ा करीब 25 हजार करोड़ था. राज्य के पर्यटन मंत्रालय के निर्देश पर वर्ष 2019 में ब्रिटिश काउंसिल की ओर से किए गए शोध की रिपोर्ट में इस टर्नओवर को करीब 33 हजार करोड़ बताते हुए कहा गया था कि यह हर साल तेजी से बढ़ रहा है.
रिपोर्ट में कहा गया था कि राज्य की जीडीपी में इस उत्सव का 2.58 फीसदी योगदान है. मोटे अनुमान के मुताबिक, बीते साल यह टर्नओवर 80 हजार करोड़ तक पहुंच गया. इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स पहले ही अनुमान जता चुका है कि 2030 तक दुर्गा पूजा का टर्नओवर एक लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा.
आयोजन समितियों के साझा मंच फोरम फार दुर्गोत्सव के एक प्रवक्ता डीडब्ल्यू को बताते हैं कि खासकर कोविड के बाद आयोजन के लिए जरूरी चीजों का खर्च बढ़ा है. इसलिए आयोजन का बजट भी 40-50 फीसदी तक बढ़ गया है.
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अनुदान से फायदा
लेकिन आखिर ममता बनर्जी सरकार ने यह अनुदान क्यों शुरू किया था और इससे उनको क्या सियासी फायदा है. बंगाल की राजनीति और सामाजिक संरचना समझने वालों के लिए इसका जवाब मुश्किल नहीं है.
कोलकाता के एक कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे कुंतल कुमार राय डीडब्ल्यू से कहते हैं, "यह एक तीर से दो शिकार करने जैसा है. तमाम पूजा समितियों का अपने इलाके में खासा असर होता है. उनको अनुदान देकर सत्तारूढ़ पार्टी इलाके के वोटरों पर पकड़ मजबूत कर सकती है. इसके अलावा इससे बीजेपी के उस मुद्दे की धार भी कुंद हो जाती है जो ममता के किलाप उसका सबसे बड़ा हथियार रहा है. वह है धार्मिक अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण का."
समाजशास्त्री विश्वरूपा गाएन डीडब्ल्यू से कहती हैं, "बीजेपी की दिक्कत यह है कि यह मामला हिंदू त्योहार से जुड़ा है. इसलिए वह इस अनुदान का कड़ा विरोध भी नहीं कर सकती."
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शायद यही वजह है कि विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने पत्रकारों से कहा, ममता दुर्गा पूजा के लिए चाहे दो लाख दें या दस लाख, हमें इससे कोई शिकायत नहीं है. लेकिन इसके साथ ही सरकारी कर्मचारियों के बकाया महंगाई भत्ते का भी भुगतान किया जाना चाहिए और खाली पदों पर नियुक्ति होनी चाहिए.
राजनीतिक विश्लेषक शिखा मुखर्जी डीडब्ल्यू से कहती हैं, "ममता के सरकारी अनुदान का फैसला बीजेपी के गले की ऐसी फांस बन गई है जिसे वह निगल सकती है और न ही उगल सकती है. उसकी पूरी राजनीति हिंदुओं के ध्रुवीकरण पर टिकी है. आगे अगर वह कभी राज्य की सत्ता में आती है तो उसके लिए भी इस अनुदान को बंद करना संभव नहीं होगा."