सरकार ने क्यों लगाई पूर्व सैन्य अधिकारी की पुस्तक पर पाबंदी?
प्रभाकर मणि तिवारी
१७ नवम्बर २०२२
मणिपुर सरकार ने राज्य के भारत में विलय के मुद्दे पर लिखी गई एक पूर्व सैन्य अधिकारी की किताब पर पाबंदी लगा दी है. सरकार का कहना है कि इससे राज्य में सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ने का खतरा है.
ब्रिगेडियर शर्मा की किताब "द कॉम्प्लेक्सिटी कॉल्ड मणिपुर: रूट्स, परसेप्शन एंड रियलिटी" का कवरतस्वीर: Viva Books
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भारतीय सेना में सेवा दे चुके दिवंगत ब्रिगेडियर सुशील कुमार शर्मा की लिखी एक किताब "द कॉम्प्लेक्सिटी कॉल्ड मणिपुर: रूट्स, परसेप्शन एंड रियलिटी" पर हाल के महीनों में उठे विवाद के चलते मणिपुर सरकार ने बैन लगा दिया है. सरकार का कहना है कि इस पुस्तक की विषयवस्तु बेहद संवेदनशील है जिसका राज्य के सांप्रदायिक सद्भाव पर बुरा असर पड़ सकता है. सरकार ने बीते दिनों इतिहास, संस्कृति, परंपरा और भूगोल पर सभी पुस्तकों के लिए एक उच्च-स्तरीय समिति की पूर्व स्वीकृति लेना अनिवार्य कर दिया था.
विलय के इतिहास को लेकर चिंता
ब्रिगेडियर शर्मा की किताब में लिखा है कि विलय के समय मणिपुर राज्य के पास घाटी में महज सात सौ वर्ग मील जमीन थी. इसका मतलब यह निकाला गया कि नागा, कूकी और दूसरी जनजातियों वाला पर्वतीय इलाका इसका हिस्सा नहीं था. अपने लंबे कार्यकाल के दौरान ब्रिगेडियर शर्मा ने मणिपुर पर कई लेख और पुस्तकें लिखीं थीं.
यहां इस बात का जिक्र प्रासंगिक है कि राज्य के घाटी और पर्वतीय इलाकों में रहने वाली जनजातियों के बीच अक्सर तनाव रहा है और कई बार हिंसा भी हो चुकी है.
भारत में विलय का मुद्दा मणिपुर के स्थानीय लोगों के लिए बेहद संवेदनशील रहा है. राज्य में तमाम उग्रवादी संगठन इसी मुद्दे को भुना कर अपनी जड़ें मजबूत करते रहे हैं. राज्य के ज्यादातर लोगों का मानना है कि देश की आजादी के समय स्वतंत्र राज्य रहे मणिपुर को दो साल बाद जबरन भारत में विलय पर मजबूर किया गया था.
लंबे अरसे तक मणिपुर में उग्रवाद-विरोधी अभियान की कमान संभालने वाले सीआरपीएफ के पूर्व डीआईजी (अब स्वर्गीय) शर्मा ने अपनी पीएचडी की थीसिस के तहत लिखी इस पुस्तक पर पाबंदी के आदेश में राज्य के गृह विभाग ने दलील दी है कि मणिपुर के विलय समझौते से संबंधित इतिहास राज्य के लोगों के लिए बेहद संवेदनशील और भावनात्मक मुद्दा है. उसका कहना है कि इसमें लिखी बातों से राज्य में विभिन्न तबकों के बीच सांप्रदायिक सद्भाव नष्ट होने और शांति भंग होने का खतरा है. इससे राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता भी खतरे में पड़ने की आशंका भी जताई गयी है.
किताबें पढ़कर इस देश में सजा कम करा सकते हैं कैदी
बोलीविया की भीड़भाड़ वाली जेलों में कैदी अब किताबें पढ़कर अपनी सजा कम करा सकते हैं. यह कार्यक्रम ब्राजील में चलाए गए ऐसे ही एक कार्यक्रम से प्रभावित है. कार्यक्रम का एक और उद्देश्य साक्षरता बढ़ाना भी है.
तस्वीर: Claudia Morales/REUTERS
ब्राजील से सीख
दक्षिण अमेरिकी देश ब्राजील में मुकदमे की लंबी अवधि के कारण कई कैदियों को दशकों तक जेल में ही अपना जीवन बिताना पड़ता है. देश की एक जेल ने उनके कारावास को 'सार्थक' बनाने के लिए किताबें पढ़ने की व्यवस्था की.
तस्वीर: Felipe Dana/AP Photo/picture-alliance
"सलाखों के पीछे किताबें"
बोलीविया सरकार का कार्यक्रम "बुक्स बिहाइंड बार्स" कैदियों को उनकी रिहाई की तारीख से कुछ दिन या सप्ताह पहले जेल से बाहर निकलने का मौका देता है. बोलीविया में आजीवन कारावास या मृत्युदंड नहीं है, लेकिन धीमी न्यायिक प्रणाली के कारण सुनवाई कई सालों तक चलती है.
तस्वीर: Claudia Morales/REUTERS
कार्यक्रम से आकर्षित हुए कैदी
बोलीविया के लोकपाल कार्यालय का कहना है कि यह कार्यक्रम 47 जेलों में शुरू किया गया है. ये जेल वैसे हैं जिनके पास कैदियों के लिए शिक्षा या सामाजिक सहायता कार्यक्रमों के लिए भुगतान करने के लिए संसाधन नहीं हैं. अब तक 865 कैदी पढ़ने और लिखने की अपनी आदत में सुधार ला चुके हैं.
तस्वीर: Claudia Morales/REUTERS
पढ़ने का इनाम
उन कैदियों में से एक जैकलीन ने इस कार्यक्रम के तहत एक साल के भीतर आठ किताबें पढ़ ली. उन्होंने पढ़ाई की चार परीक्षा भी पास कर ली. जैकलीन कहती हैं, "हमारे जैसे लोगों के लिए यह वास्तव में बहुत मुश्किल है जिनके पास कोई आय नहीं है और जिनका बाहर परिवार नहीं है."
तस्वीर: Claudia Morales/REUTERS
नई जिंदगी
लोकपाल कार्यालय की नादिया क्रूज कहती हैं इस कार्यक्रम का मकसद सुनवाई का इंतजार कर रहे कैदियों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना है. क्रूज कहती हैं, "यह महत्वपूर्ण है क्योंकि सजा में जो कटौती की जाती वह अपेक्षाकृत कम होती है (कुछ घंटे या दिन). यह इस बात पर निर्भर करता है कि बोर्ड क्या फैसला करता है."
तस्वीर: Claudia Morales/REUTERS
भीड़ है जेलों की समस्या
मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि देश की जेलों में संख्या से अधिक कैदी बंद हैं और कई बार कैदी स्वच्छता की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन भी करते हैं. इन सब मुश्किलों के बीच पढ़ना लिखना कैदियों के लिए जेल से बाहर निकलने का आसान रास्ता हो सकता है.
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कहां से उठी पाबंदी की मांग
सरकार का कहना है कि इस पुस्तक में जिन तथ्यों का जिक्र किया गया है वह वर्ष 1950 में राज्य मंत्रालय (जो अब गृह मंत्रालय कहा जाता है) की ओर से भारतीय राज्यों पर श्वेत पत्र शीर्षक गजट का विरोधाभासी है. 15 अक्टूबर, 1949 को हुए विलय के समय मणिपुर का क्षेत्रफल 8,620 वर्ग मील और आबादी 5.12 लाख थी.
राज्य के विभिन्न सामाजिक संगठन बीते कुछ महीनों से इस पुस्तक और इसकी विषयवस्तु का विरोध करते हुए इस पर पाबंदी लगाने की मांग रहे थे. उन्होंने लेखक और उनके शोध गाइड से माफी की मांग भी उठाई थी. पीएचडी के उनके शोध गाइडों में मणिपुर विश्वविद्यालय के एक पूर्व प्रोफेसर भी शामिल हैं. इससे सरकार के लिए मुश्किल हालात पैदा हो गए थे. अब सरकार ने उस पुस्तक की तमाम प्रतियों को जब्त करने का भी आदेश दिया है. सरकार ने कहा कि इस पुस्तक के प्रचार-प्रसार से राज्य के घाटी और पर्वतीय इलाकों में रहने वाली जनजातियों के बीच गलतफहमी और तनाव पैदा होने का अंदेशा है और हिंसा भड़क सकती है.
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पूर्व स्वीकृति अनिवार्य
इससे पहले सरकार ने एक आदेश जारी कर राज्य के इतिहास, संस्कृति, परंपरा और भूगोल पर सभी पुस्तकों की पूर्व-स्वीकृति को अनिवार्य कर दिया था. इसमें कहा गया था कि राज्य से संबंधित उक्त चारों विषयों पर सभी पांडुलिपियों को 15 सदस्यीय समिति से मंजूरी लेनी होगी. उसके बिना इन विषयों पर कोई किताब नहीं लिखी-छापी जा सकती. सरकार की ओर से गठित समिति में विश्वविद्यालय के कुलपति और कॉलेज के कई पूर्व और वर्तमान शिक्षक शामिल होंगे. सरकार ने चेतावनी दी थी कि इस आदेश का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ संबंधित कानून के तहत कड़ी कार्रवाई की जाएगी.
राज्य के तमाम लेखकों और बुद्धिजीवियों ने सरकार के उस फैसले का विरोध किया था. लेकिन उत्पीड़न के डर से कोई मुखर होकर इसके खिलाफ सामने नहीं आया. राजधानी इंफाल के एक कॉलेज में भूगोल पढ़ाने वाले पूर्व शिक्षक डा. सी. नाओबा कहते हैं कि सरकार का यह फैसला अभिव्यक्ति की आजादी पर एक कड़ा आघात है. डीडब्ल्यू से बातचीत में नाओबा ने कहा, "ऐसे फैसलों से सच को नहीं दबाया जा सकता. कोई भी लेखक पूरी तरह खोज-बीन और शोध के बाद ही कोई पुस्तक लिखता है. अब उच्च-स्तरीय समिति से मंजूरी लेना एक तरह की सेंसरशिप है."
दुनिया के सबसे सुन्दर पुस्तकालय
पुस्तकालयों का इतिहास 4,000 सालों से भी पुराना है. बॉलरूम की तरह दिखने वाले हों या यूएफओ की तरह, दुनिया में तरह तरह के पुस्तकालय हैं. लेकिन ये कैसे भी दिखाई देते हों, किताबों के लिए प्रेम इन्हें एक सूत्र में बांधता है.
तस्वीर: Jan Woitas/ZB/picture alliance
समुदाय के लिए
फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी की सेंट्रल लाइब्रेरी ऊडी डिजाइन पुस्तक प्रेमियों के लिए एक सपने जैसी है. इस चार मंजिला इमारत की शिल्प कला में फिनलैंड की प्राकृतिक दुनिया को रेखांकित किया गया है. बाहरी दीवारों को लकड़ी जैसा रूप दिया गया और इमारत का आकार लहरनुमा बर्फ से ढकी जमीन के जैसा बनाया गया है. इसके अंदर किताबें ही नहीं, सिनेमाघर और सॉना भी है.
तस्वीर: Tuomas Uusheimo
राख से फिर जन्म लेना
जर्मनी के वाइमार की डचेस ऐना अमालिया लाइब्रेरी को 300 सालों से "हरत्सोगलिश बिबलियोथेक" ("द ड्यूकल लाइब्रेरी") कहा जाता था. बाद में एक भीषण आग में इमारत आंशिक रूप से जल गई थी. 1991 में इसे अपना मौजूदा नाम मिला. 24 अक्टूबर, 2007 में इसे फिर से खोल दिया गया. यह तस्वीर उसके मशहूर रोकोको हॉल की है.
तस्वीर: Jan Woitas/ZB/picture alliance
लाइब्रेरी या फुटबॉल का मैदान?
अगर आपके पास स्टूडेंट कार्ड नहीं है तो भी आपको द नीदरलैंड्स के डेल्फ्ट की यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के पुस्तकालय जा कर अफसोस नहीं होगा. घास के मैदान जैसी दिखाई देने वाली इसकी ढलान वाली छत इसका सबसे आकर्षक हिस्सा है. इमारत के बीच में से निकलता 42 मीटर ऊंचा एक कोन आपको दूर से ही नजर आ जाएगा. इसमें किताबों से भरी चार मंजिलें हैं.
तस्वीर: Nicholas Kane/Arcaid/picture alliance
ट्यूलिप की लकड़ी और एबनी
पुर्तगाल के कोइम्ब्रा स्थित बिब्लिओतेका जोआनीना में सभी अलमारियां ट्यूलिप की लकड़ी और एबनी से बनी हुई हैं. पुर्तगाल के राजा जॉन पंचम ने इसे बनवाया था, इसलिए इसका नाम उन्हीं के नाम पर है. 2013 में ब्रिटेन के अखबार "द डेली टेलीग्राफ" ने इस लाइब्रेरी को दुनिया के सबसे सुंदर पुस्तकालयों की सूची में शामिल किया किया था.
सिकंदरिया की लाइब्रेरी कभी दुनिया की सबसे मशहूर लाइब्रेरी हुआ करती थी, लेकिन करीब 2,000 साल पहले वो एक आग में नष्ट हो गई. कहा जाता है कि वहां पेपिरस के करीब 4,90,000 रोलों में उस समय की दुनिया का सारा ज्ञान था. उसी परंपरा को जारी रखते हुए 2002 में नया पुस्तकालय खोला गया था. इसे बनाने में 22 करोड़ डॉलर की लागत आई.
तस्वीर: picture-alliance/Arco Images GmbH
मिस्र के ममियों के बीच
स्विट्जरलैंड के सेंट गॉलेन स्थित सेंट गॉल की ऐबी लाइब्रेरी में रखी चीजों में से कुछ तो 1,300 साल से भी ज्यादा पुरानी हैं. यहां आने वाले लोग यहां यूरोप का सबसे पुराना बिल्डिंग प्लान और मिस्र की एक ममी भी देख सकते हैं. यह तस्वीर "बुकरसाल" (द बुक हॉल) की है जो 1983 से यूनेस्को की वैश्विक धरोहर सूची में है.
तस्वीर: picture-alliance/Stuart Dee/robertharding
एक राष्ट्रपति द्वारा बचाया गया पुस्तकालय
जब भी आप वाशिंगटन डीसी में हो तो कांग्रेस की लाइब्रेरी जरूर जाइएगा. इसकी स्थापना सन 1800 में की गई थी लेकिन सिर्फ 14 सालों बाद ही अंग्रेजों ने इसे जला दिया था. बाद में इसके जीर्णोद्धार के लिए अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन ने अपने निजी संग्रहण से करीब 6,500 किताबें बेच कर 24,000 डॉलर की कुल लागत की पूरी रकम जुटाई. तस्वीर मुख्य कक्ष की है जिसे नव-रेनेसां शैली में बनाया गया था.
तस्वीर: picture-alliance/JOKER/H. Khandani
डबलिन का लॉन्ग रूम
आयरलैंड की राजधानी डब्लिन की ट्रिनिटी कॉलेज लाइब्रेरी का तीन मंजिला "लॉन्ग रूम" 64 मीटर लंबा और 12 मीटर चौड़ा है. लेकिन यह हमेशा से इतना प्रभावशाली नहीं था. 1858 में इसकी सपाट, प्लास्टर की छत को हटा कर शाहबलूत या ओक के पेड़ की लकड़ी की नई छत बनाई गई.
तस्वीर: Imago/imagebroker
एक फिल्मी सितारा
न्यू यॉर्क पब्लिक लाइब्रेरी को तो कई फिल्मों में दिखाया गया है, जिनमें 1933 की "फॉर्टीसेकंड स्ट्रीट" म्यूजिकल, 1961 की "ब्रेकफास्ट ऐट टिफनीज", 1984 की "घोस्टबस्टर्स", 2008 की "सेक्स एंड द सिटी" और 2002 की "स्पाइडर-मैन" शामिल हैं. इसके मुख्य कक्ष को 1911 में खोला गया था और बाद में इसका विस्तार किया गया.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Schmitt-Tegge
चीन में हर चीज ही विशाल है
चीन की नेशनल लाइब्रेरी दुनिया के सात सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक है. इसमें तीन करोड़ से ज्यादा किताबें और मीडिया सामग्री है. इसका निर्माण "कैपिटल लाइब्रेरी" के रूप में 1809 में करवाया गया था. 1928 में चीनी गणराज्य की स्थापना के बाद इसे "बीजिंग लाइब्रेरी" नाम दे दिया गया. इसका मौजूदा नाम इसे 1998 में मिला.