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दुनियाभर के महासागरों को मापना— वरदान है या अभिशाप?

अलेक्जांडर फ्रॉयंड
२६ सितम्बर २०२५

पृथ्वी का तीन-चौथाई हिस्सा महासागरों से ढका है, लेकिन इसका केवल 20 फीसदी हिस्सा ही मापा जा सका है. इन गहराइयों की जानकारी विज्ञान के लिए नई राह खोल सकती है. साथ-ही-साथ, शोषण का जरिया भी बन सकती है.

समुद्र में एक जेली फिश और ऊपर सतह से छनकर आ रही सूरज की रोशनी
अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ता अब तक महासागर की सतह के केवल 20 फीसदी हिस्से को ही मैप कर पाए हैंतस्वीर: H. Goethel/blickwinkel/picture alliance

गूगल मैप्स देखें, तो ऐसा लगता है मानो हमारी धरती का हर कोना मापा जा चुका है. मगर असल में महासागर की नीली सतह के नीचे क्या है, यह अब भी हमारी नजरों से छिपा हुआ है.

ऐसा इसलिए क्योंकि रडार के सिग्नल पानी के भीतर तक नहीं जा पाते हैं. पृथ्वी की सतह की बात करें, तो कर्मशियल सैटेलाइट प्रति पिक्सल लगभग 30 सेंटीमीटर का रेजॉल्यूशन मुहैया कराते हैं. लेकिन महासागर की तस्वीर काफी धुंधली होती हैं. इनका रेजॉल्यूशन प्रति पिक्सल करीब पांच से आठ किलोमीटर होता है.

अब तक ईको साउंड तकनीक से समुद्र तल के केवल 20 फीसदी हिस्से की ही जांच की जा सकी है. संयुक्त राष्ट्र और निजी निप्पॉन फाउंडेशन द्वारा चलाई जा रही 'सीबेड 2030' नामक एक संयुक्त परियोजना का लक्ष्य है कि इस दशक के अंत तक पूरे समुद्र तल का नक्शा तैयार किया जाए.

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महासागर की गहराइयों में समाई है 'पूरी दुनिया'

कनाडाई पर्यावरण पत्रकार और 2023 में प्रकाशित किताब "द डीपेस्ट मैप : द हाई-स्टेक्स रेस टू चार्ट द वर्ल्डस ओसन्स" की लेखिका लाउरा ट्रेथवे कहती हैं, "महासागर, पृथ्वी के 71 फीसदी हिस्से को ढकते हैं. यह अत्यंत विशाल है. इसका कोई जमीनी मुकाबला ही नहीं है. इसी वजह से हम महासागर की तुलना अक्सर चांद या अंतरिक्ष से करते हैं. जमीन पर ऐसा कुछ नहीं, जो आकार में महासागर के आसपास भी हो."

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हालांकि, अंतर केवल यह है कि चांद और मंगल का नक्शा महासागर की सतह से कहीं ज्यादा विस्तार से बनाया जा चुका है. ट्रेथवे बताती हैं, "हम सितारों तक पहुंचने की कोशिश करते हैं और मंगल पर नई बस्तियां बसाने का सपना देखते हैं. लेकिन मेरा मानना है कि हमारे पास पृथ्वी पर ही एक दूसरी 'अनोखी दुनिया' है, जिसे अब तक हम खोज ही नहीं पाए हैं."

लाउरा ट्रेथवे "द डीपेस्ट मैप : द हाई-स्टेक्स रेस टू चार्ट द वर्ल्डस ओसन्स" की लेखिका और पत्रकार हैंतस्वीर: Colin Boyd Shafer

पानी के नीचे की दुनिया को समझने के लिए जहाजों, डाइविंग रोबोट्स और पनडुब्बियों से ध्वनि तरंगें समुद्र की सतह की ओर भेजी जाती हैं. इन तरंगों को नीचे जाकर वापस आने में जितना समय लगता है, उसके अनुसार समुद्र की गहराई नापी जाती है. तरंग जितनी देर से वापस आती है, गहराई उतनी अधिक मानी जाती है.

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मल्टीबीम ईको साउंडिंग तकनीक से बहुत गहरी जगहों का भी नक्शा, थ्रीडी मॉडल और टेरेन प्रोफाइल तैयार की जा सकती है. ट्रेथवे के अनुसार, "हम पृथ्वी पर बसी एक पूरी दुनिया को नजरअंदाज कर रहे हैं. अनजाने पहाड़ और घाटियां, विज्ञान के लिए अब तक अज्ञात जीव-जंतु, ढेर सारा डेटा व खोजें गहराई में हमारा इंतजार कर रही हैं."

जलवायु परिवर्तन को देखते हुए समुद्र की सतह का अध्ययन भविष्य के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां भी दे सकता है. ट्रेथवे कहती हैं, "समुद्र का बहुत बड़ा हिस्सा कभी जमीन हुआ करता था. पिछले हिमयुग के बाद जब ग्लेशियर पिघले, तो उसके पानी ने कई महाद्वीपीय शेल्फ को ढक दिया, जो कि आकार में दक्षिण अमेरिका जितने बड़े हैं. यानी समुद्र के नीचे एक और खोया हुआ महाद्वीप है या एक तरह का 'लॉस्ट अटलांटिस.' यह जानने में मदद कर सकता है कि पुरानी सभ्यता बढ़ते समुद्र स्तर से कैसे निपटी थी और भविष्य में हम भी ऐसी समस्या से कैसे निपट सकते हैं."

उन्होंने आगे कहा, "नक्शा बनाना ऐसे भविष्य को हकीकत में बदलने की दिशा में पहला कदम है."

महत्वाकांक्षी परियोजना

'सीबेड 2030' परियोजना अपना महत्वाकांक्षी लक्ष्य शायद ही हासिल कर पाए. वजह साफ है कि महासागर बहुत विशाल है और उनके सर्वे के लिए जितने जहाज और सोनार उपकरण चाहिए, उनकी भारी कमी है. इसके अलावा कोविड-19 महामारी और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने भी इस काम को पीछे धकेला है.

ट्रेथवे बताती हैं, "साल 2017 में जब यह परियोजना शुरू की गई थी, तब दुनिया भू-राजनीतिक रूप से इतनी बंटी हुई नहीं थी. आज हालात अस्थिर हैं, सरकारें शक करने लगी हैं और नक्शे साझा करने को तैयार नहीं होतीं. तकनीक तो पहले से ही मौजूद है, लेकिन असल समस्या राजनीति की है."

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इस बीच आयोजकों ने इन कमियों को पूरा करने की कोशिश भी की है. जैसे ड्रोन तकनीक, क्राउडसोर्सिंग, सुपर यॉट्स और क्रूज शिप्स को समुद्र तल का नक्शा बनाने में इस्तेमाल करना. हालांकि, ये प्रयास पर्याप्त साबित नहीं हुए हैं.

गहरे समुद्र के दोहन की बड़ी तैयारी

असल में गहरे समुद्र की खोज इंसानों और उपकरणों दोनों के ही लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है. समुद्र की कठिन परिस्थितियों के कारण एक अभियान पर लगभग 50,000 डॉलर प्रतिदिन का खर्च आता है. ट्रेथवे के अनुसार, "इसका मतलब है कि सरकार और कंपनियों को नक्शा बनाने के लिए कुछ ठोस कारण चाहिए. जैसे कि संसाधन, ढांचा या राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हित."

'सीबेड 2030' के अनुमान अनुसार, इस लक्ष्य तक पहुंचने का खर्च लगभग तीन से चार अरब डॉलर होगा. यह साल 2020 में शुरू की गई नासा की मंगल मिशन की लागत के बराबर है, जिसके अंतर्गत एक रोवर को मंगल पर उतारा गया था.

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हालांकि, इसकी सफलता का एक नकारात्मक पहलू भी है. जैसे ही समुद्र का नक्शा पूरी तरह बन जाएगा, महासागरों के दोहन की रफ्तार भी तेजी से बढ़ सकती है. ट्रेथवे कहती हैं, "जब लोग नक्शे की सोचते हैं, तो अक्सर खनन और संसाधन निकालने की ही कल्पना करते हैं. इस समय गहरे समुद्र के दोहन और अंतरराष्ट्रीय जलक्षेत्र में पहला वाणिज्यिक खदान खोलने की तैयारी चल रही है."

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ट्रेथवे की उम्मीद है कि महासागरों का नक्शा मुख्य रूप से विज्ञान और संरक्षण के लिए इस्तेमाल होगा. ठीक वैसे ही जैसे 1959 में अंटार्कटिक संधि के तहत अंटार्कटिका का पूरा नक्शा बनने के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने उसे 60 साल तक वैज्ञानिक उद्देश्यों के लिए सुरक्षित रखा था.

उनका मानना है कि गहरे समुद्र की रक्षा कड़े नियमों से उतनी प्रभावी तरह नहीं हो पाएगी जितनी अब तक हो रही है, जब तक महासागर अनजान और कठिन स्थिति में है.

ट्रेथवे बताती हैं, "लगभग दो-तिहाई महासागर और धरती की लगभग आधी सतह अंतरराष्ट्रीय जलक्षेत्र में आती है, जिस पर किसी देश या व्यक्ति का मालिकाना हक नहीं है. यह अस्पष्ट कानूनी स्थिति मुख्य कारण है कि अंतरराष्ट्रीय महासागरों पर निगरानी और नियम-कानून काफी कम है. ऐसे में समुद्र के अपराधों जैसे बहुत ज्यादा मछली पकड़ना, प्रदूषण या ड्रग्स की तस्करी से निपटना कठिन है."

ट्रेथवे आगे कहती हैं, "महासागर के लिए कड़े नियमों का स्वागत किया जाएगा, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है धन और राजनीतिक इच्छाशक्ति. महासागर काफी विशाल है और अगर समुद्र में निगरानी और कानून लागू करने के लिए धन नहीं होगा, तो अधिक नियम बनाना बेकार ही रहेगा."

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